नजरिया: इमरजेंसी के भूत नहीं, देश के भविष्य की बात करिए

Edited By Anil dev,Updated: 27 Jun, 2018 03:43 PM

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पिछले कुछ दिन से देश के नेता आपातकाल को लेकर एक दूसरे से उलझे हुए हैं। संबितपात्रा और ओवैसी की जंग भी आपने देखी। अरुण जेटली और सीता राम येचुरी जिस तरह इस बहाने एक दूसरे की बखिया उधेड़ रहे हैं वह भी आप देख रहे हैं। और यह सब हो रहा है एक ऐसी घटना को...

नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा): पिछले कुछ दिन से देश के नेता आपातकाल को लेकर एक दूसरे से उलझे हुए हैं। संबितपात्रा और ओवैसी की जंग भी आपने देखी। अरुण जेटली और सीता राम येचुरी जिस तरह इस बहाने एक दूसरे की बखिया उधेड़ रहे हैं वह भी आप देख रहे हैं। और यह सब हो रहा है एक ऐसी घटना को लेकर जो चार दशक पहले हुई थी। निश्चित तौर पर जो उस समय हुआ उसे किसी भी नजर या नजरिए से सही नहीं ठहराया जा सकता। खुद कांग्रेस में इंदिरा गांधी के इस कदम का विरोध करने वाले मिल जाएंगे। हालांकि उस समय इंदिरा गांधी इतनी मजबूत थीं की कोई आवाज उठाने की हिमाकत नहीं करता था,लेकिन संदर्भों में जाएं तो यह स्पष्ट है कि कई खांटी कांग्रेसी नेता आपातकाल को लेकर खुश नहीं थे। लेकिन  क्या आज उस लकीर को पीटना और उस आधार पर वैमनस्य बढ़ाना भारतीय लोकतंत्र के लिए श्रेयस्कर होगा? चार दशक यानी करीब करीब दो पीढिय़ां गुजर चुकी हैं उस गुजरे जमाने के बाद।

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आज भारत की 60 फीसदी आबादी ऐसी है जिसने सिर्फ इमरजेंसी के बारे में पढ़ा या सुना ही है। ऐसे में हम अपने अपने हिसाब से इस मसले पर जंग छेड़कर क्या साबित करना चाहते हैं ? खासकर तब जब लोकतंत्र की ह्त्या वाले उस कदम के समर्थक और विरोधी चौतरफा सियासी दलों में  भरे पड़े हैं। आपातकाल के दौरान एक नारा बड़ा फेमस हुआ था इमरजेंसी के तीन दलाल-संजय, विद्या, बंसीलाल; संजय गांधी इंदिरागांधी के पुत्र थे , विद्याचरण शुक्ल उनके सबसे करीबी मंत्री और बंसी लाल संजय और इंदिरा दोनों के लाडले। इन्हीं से शुरू करते हैं। संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी, जो आपातकाल की प्रबल समर्थक रहीं, वे बरसों से भारतीय जनता पार्टी में हैं और अटल सरकार के बाद वे वर्तमान मोदी सरकार में भी मंत्री हैं। मेनका ने कभी इमरजेंसी का विरोध नहीं किया। उन्हीं के सुपुत्र वरुण गांधी भी बीजेपी टिकट पर चुनाव लड़ते हैं। वरुण को भी आपने कभी इमरजेंसी की निंदा करते नहीं सुना होगा। विद्याचरण शुक्ल आपातकाल लगने के समय  सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। इस लिहाज से उनका तो काम ही आपातकाल को सही ठहराना था। वे एक शक्तिशाली मंत्री थे और इंदिरा गांधी के काफी नजदीक थे। 
PunjabKesariदिलचस्प ढंग से विद्याचरण शुक्ल बाद में भारतीय जनता पार्टी में न सिर्फ शामिल हुए बल्कि उन्होंने छत्तीसगढ़ से बीजेपी के टिकिट पर लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था। इंदिरागांधी की हत्या के बाद के दौर में राजीव गांधी से मतभेदों के कारण विद्याचरण शुक्ल ने कांग्रेस छोड़ी और विश्वनाथ प्रताप सिंह का दामन थामा। इस दरम्यान भी उन्होंने कभी आपातकाल की निंदा नहीं की। बाद में वे बीजेपी में चले गए और इमरजेंसी के 'दलाल ' का तमगा उनपर लगा होने के बावजूद उसी भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें छत्तीसगढ़ में लोकसभा टिकिट दिया जिसकी पूर्ववर्ती पार्टी ने उस नारे को गांव-गांव पहुंचाया था।  ये अलग बात है कि विद्याचरण शुक्ल चुनाव जीत नहीं पाए।
PunjabKesariअब बात उसी नारे के तीसरे पात्र बंसी लाल की कर लेते हैं। बंसीलाल आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के सर्वाधिक नजदीकी राजनेता समझे जाते थे। बाद में उन्होंने भी कांग्रेस छोड़ दी। कालांतर में बंसी लाल ने अपनी हरियाणा विकास पार्टी बना ली। और एक दौर ऐसा भी आया जब उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर हरियाणा में सरकार बनाई। बीजेपी संग सरकार चलाते हुए भी बंसीलाल ने भी कभी भी आपातकाल की निंदा नहीं की।और न ही बीजेपी को उनके साथ से कोई परहेज या शर्म  हुई। तो फिर आज  इतनी हाय - तौबा क्या महज सियासी लाभ लेने के  मचाई जा रही है ?  इमरजेंसी के ही दौरान राजनीति का ककहरा पढऩे वाले दो और नेता हैं लालू प्रसाद यादव और  नीतीश कुमार। आज भले ही दोनों अलग-अलग हैं लेकिन  आप तो नहीं भूले होंगे कि कल तक दोनों कांग्रेस से मिलकर गठबंधन सरकार चला रहे थे। 
PunjabKesariउधर मुलायम यादव के लाल भी इमरजेंसी की खलनायक कांग्रेस का हाथ पकड़ कर साइकिल को गति देते देखे जा चुके हैं। यानी वर्तमान में राजनीति सुविधानुसार हो रही है और पार्टी के गंभीर व् वैचारिक मसलों को अक्सर सत्ता के लिए हाशिये पर रखा जाता है। तो फिर क्या यह वक्त सच में इमरजेंसी पर शोर मचाने का है ? जिसे पार्टियां और नेता खुद भूल चुके हैं, या अपने सत्ता सुख के लिए भुला  देते हैं , उसे  जनता को याद दिलाया जा रहा है ? क्या यह बेहतर न होगा कि 1975  के बजाए हम 2075  की बात करें। देश के  सामने जो, बेरोजगारी, भुखमरी, जलवायु संकट है उनसे कैसे निबटा जाएं इस पर चर्चा जरूरी है या दफन हो चुके सियासी मुर्दे उखाडऩा?  क्या बेहतर न होगा कि हम इमरजेंसी के भूत के बजाये देश के भविष्य की बात करें ?

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