अंधविश्वास से कोसों दूर है यह गांव, जहां मृतकों की अस्थियां नदी में नहीं बहाते

Edited By Anil dev,Updated: 28 May, 2018 10:44 AM

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देश में अंधविश्वास के नाम पर आज भी तरह-तरह की कुरीतियां पांव पसारे हुए हैं खासकर गांवों में, वहीं राजस्थान के चूरू जिले में एक गांव ऐसा है जहां के लोग किसी धार्मिक कर्मकांड में यकीन नहीं करते। गांव में कोई मंदिर नहीं है और यहां मृतकों की अस्थियों को...

जयपुर: देश में अंधविश्वास के नाम पर आज भी तरह-तरह की कुरीतियां पांव पसारे हुए हैं खासकर गांवों में, वहीं राजस्थान के चूरू जिले में एक गांव ऐसा है जहां के लोग किसी धार्मिक कर्मकांड में यकीन नहीं करते। गांव में कोई मंदिर नहीं है और यहां मृतकों की अस्थियों को नदी में प्रवाहित करने तक का चलन नहीं है। यह गांव है चूरू की तारानगर तहसील का गांव ‘लांबा की ढाणी’ – जहां के लोग मेहनत और कर्मवाद पर यकीन रखते हैं। साथ ही शिक्षा, चिकित्सा, व्यापार के क्षेत्र में सफलता अर्जित कर अपने गांव को देश भर में अलग पहचान दे रहे हैं। लांबा की ढाणी के लोग मृतकों की अस्थियां नदी में विसर्जन करने नहीं ले जाते।

यहां तक कि गांव में एक भी मंदिर या कोई अन्य धार्मिक स्थल नहीं है। करीब 105 घरों की आबादी वाले गांव में जाट समुदाय के 91 परिवार , नायक समुदाय के 4 घर और मेघवालों 10 परिवार हैं। अपनी लगन और मेहनत के जरिये यहां के 30 लोग सेना में, 30 लोग पुलिस में, 17 लोग रेलवे में और लगभग 30 लोग चिकित्सा क्षेत्र में गांव का नाम रोशन कर रहे हैं।

बची हुई अस्थियों को दोबारा जला देते हैं
गांव के पांच युवकों ने खेलों में राष्ट्रीय स्तर पर पदक प्राप्त किए हैं और दो खेल के कोच हैं। गांव में रहने वाले 80 वर्षीय ऐडवोकेट बीरबल सिंह लांबा ने बताया, ‘इस गांव में लगभग 65 वर्ष पहले यहां के लोगों ने सामूहिक रूप से तय किया था कि किसी की मौत पर उसके दाह संस्कार के बाद अस्थियों का नदी में विर्सजन नहीं किया जाएगा। दाह संस्कार के बाद ग्रामीण बची हुई अस्थियों को दोबारा जला कर राख कर देते हैं।’

गांव में एक भी मंदिर नहीं लेकिन कोई नास्तिक नहीं
उन्होंने बताया कि कृषि प्रधान गांव में लोगों शुरू से ही कर्म में यकीन रखते आए हैं। यहां के लोग सुबह से शाम तक मेहनत के काम में ही लगे रहते थे। मगर इसका मतलब यह नहीं है गांव के लोग नास्तिक हैं। वह कहते हैं, ‘गांव के लोग कहा करते थे कि ‘मरण री फुरसत कोने, थे राम के नाम री बातां करो हो’ (हमें तो मरने की भी फुरसत नहीं हैं आप राम का नाम लेने की बात करते हो)। गांव के एक अन्य निवासी और जिला खेल अधिकारी ईश्वर सिंह लांबा बताते हैं कि गांव के लोग अंधविश्वास और आडम्बर से दूर रहकर मेहनत के बल पर प्रशासनिक सेवा, वकालत, चिकित्सा, सेना, और खेलों में गांव का नाम रोशन कर रहे है।

आजादी की लड़ाई लड़ चुके हैं गांव के लोग
उन्होंने बताया, ‘गांव के दो लोग इंटेलीजेंस ब्यूरो में अधिकारी है, वहीं दो प्रफेसर, 7 वकील, 35 अध्यापक, 30 पुलिस सेवा और 17 रेलवे में अपनी सेवाएं दे रहे है। स्वतंत्रता सेनानी पिता स्वर्गीय नारायण सिंह लांबा के पुत्र ईश्वर सिंह ने बताया, ‘उनके पिता ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और द्वितीय विश्व युद्व के अलावा 1965 व 1971 के युद्धों में भी दुश्मनों से लोहा लिया था।’ ईश्वर सिंह ने बताया कि उनका 95 वर्ष की आयु में इस वर्ष जनवरी में निधन हुआ। उन्हें उनके योगदान के लिए राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित भी किया गया। सेना में लगातार 20 वर्ष तक सेवा देने पर उन्हें सेना मेडल भी दिया गया था।

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