Edited By Anil dev,Updated: 10 Jan, 2019 11:09 AM
मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला कर राजनीतिक लिहाज से ऐसा करारा मास्टर स्ट्रोक खेला है जिसकी काट विपक्ष के पास फिलहाल दिख नहीं रही है।
नई दिल्ली(नवोदय टाइम्स): मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला कर राजनीतिक लिहाज से ऐसा करारा मास्टर स्ट्रोक खेला है जिसकी काट विपक्ष के पास फिलहाल दिख नहीं रही है। बिल लोकसभा में पास हो गया है और राज्यसभा ने भी इस पर मोहर लगा दी हैै, पर बिल पर सबसे अहम सवाल यह उठाया जा रहा है कि क्या यह बिल कोर्ट में टिक पाएगा या नहीं। अगर सरकार सुप्रीम कोर्ट में हार भी जाती है तो उसके पास 9वीं अनुसूची के रूप में एक हथियार है, जिसका वह इस्तेमाल कर सकती है। क्योंकि इस अनुसूची में शामिल विषय को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
9वीं अनुसूची क्या है?
इसके अंतर्गत राज्य द्वारा संपत्ति के अधिग्रहण व राष्ट्र के सामरिक महत्व के विषयों को जगह दी गई है। इस अनुसूची की खूबी यह है कि इसमें सम्मिलित विषयों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
1951 में बनी थी अनुसूची
संविधान में यह अनुसूची प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम 1951 के द्वारा जोड़ी गई थी। हालांकि इसके बाद इसमें एक संशोधन हुआ है।
बिल की यह है सबसे बड़ी कमजोरी
केंद्र सरकार ने सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए जो आरक्षण की सीमा 10 फीसदी रखी है उससे आरक्षण 60 फीसदी तक हो जाएगा जो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को एक तरह से चुनौती है। बिल की यही खामी इसे सुप्रीम कोर्ट में कमजोर करेगी।
इस अनुसूची में भी यह है पेंच
पहले यह मान्यता थी कि 9वीं अनुसूची में सम्मिलित कानूनों की न्यायिक समीक्षा या उन्हें न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती लेकिन 11 जनवरी 2007 के संविधान पीठ के एक निर्णय द्वारा यह स्थापित किया गया कि 9वीं अनुसूची में सम्मिलित किसी भी कानून को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
1992 का इंदिरा साहनी मामला बन सकता है रोड़ा
इस संबंध में इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय पीठ ने 1992 में अपने फैसले में साफ किया था कि तरक्की या किसी अन्य मामले में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकती क्योंकि एक तरफ हमें मैरिट का ख्याल रखना होगा तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय भी देखना होगा।
सरकार को यह रहेगी उम्मीद
चूंकि सवर्णों को आरक्षण किसी के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं करता इसलिए बिल इस अनुसूची में शामिल होने के बाद सुप्रीम कोर्ट निरस्त नहीं करेगा, ऐसी उम्मीद सरकार को रहेगी।
विरोधियों की दलील
विरोधियों का तर्क है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले की गलत व्याख्या कर रही है। कोर्ट ने 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण न होने देने की बात इसलिए कही थी ताकि आधी सीटें मैरिट के आधार पर भरी जाएं। इस बिल के बाद मैरिट के लिए महज 40 फीसदी सीटें रह जाएंगी जोकि कोर्ट के फैसले के खिलाफ होगा, यही वजह है कि यह बिल सुप्रीम कोर्ट में नहीं टिक पाएगा।
सरकार का तर्क
वित्त मंत्री अरुण जेतली ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी की जो सीमा लगाई है वह केवल जाति आधारित आरक्षण के लिए है। इसके पीछे कोर्ट की भावना थी कि सामान्य वर्ग के लिए कम से कम 50 फीसदी सीटें तो छोड़ी जाएं वर्ना एक वर्ग को उबारने के लिए दूसरे वर्ग के साथ भेदभाव हो जाएगा। इसी तर्क के हिसाब से सरकार को उम्मीद है कि उसका बिल सुप्रीम कोर्ट की परीक्षा में पास हो जाएगा।
यहां पेंच फंसा तो संजीवनी बन सकती है जस्टिस रैड्डी की बात
इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने भले ही 50 फीसदी से अधिक के आरक्षण को अवैध बताया है लेकिन इसी पीठ का हिस्सा रहे सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जीवन रैड्डी ने एक खास बात कही थी कि कुछ हालात में सरकार 50 फीसदी की सीमा रेखा को लांघ सकती है। ऐसे में जस्टिस रेड्डी की यह बात सरकार के लिए संजीवनी बन सकती है।