Edited By Tanuja,Updated: 20 May, 2020 12:35 PM
कोरोना वायरस ने एक बार फिर 1918 की उस त्रासदी की याद दिला दी है जिसने पूरी दुनिया को दहला कर रख दिया था। लगता है इतिहास ...
इंटरनेशनल डेस्कः कोरोना वायरस ने एक बार फिर 1918 की उस त्रासदी की याद दिला दी है जिसने पूरी दुनिया को दहला कर रख दिया था। लगता है इतिहास शायद फिर खुद को दोहरा रहा है । इस बार भी दूर-दूर तक सिर्फ त्रासदी ही नजर आ रही है। 1918 की त्रासदी स्पेनिश फ्लू को याद करने का कारण है कोरोना वायरस जिसने दुनियाभर में अबतक 50 लाख लोगों को अपना शिकार बना लिया है। बीते 100 साल में कोरोना वायरस से पहले फैले स्पैनिश फ्लू ने ही इतनी जनहानि की थी। स्पैनिश फ्लू जिसे 'मदर ऑफ ऑल पैंडेमिक्स' यानी सबसे बड़ी महामारी भी कहा जाता है। इसकी वजह से महज दो साल (1918-1920) में 2 करोड़ से 5 करोड़ के बीच लोगों की मौत हो गई थी।
1918 गलतियों को दोहराने से होगा बचना
अगर दोनों महामारियों की तुलना करें, तो कोरोनावायरस जहां अपने पहले चरण में ही नजर आ रहा है तो स्पैनिश फ्लू एक ही साल में तीन चरणों में लोगों की जान लेता रहा। स्पैनिश फ्लू का दूसरा और तीसरा दौर पहले के मुकाबले ज्यादा घातक रहा। अगर ऐसा ही कोरोना वायरस के साथ भी हुआ तो हमें उन गलतियों को दोहराने से बचना चाहिए, जो स्पैनिश फ्लू के वक्त दुनिया ने की थी। सौ साल पहले, स्पेनिश फ्लू ने साबित किया कि वैश्विक महामारी नामक दुश्मन एक बार में खत्म नहीं होता, बल्कि फिर आता है। 1918 के बसंत काल में शुरू हुई स्पेनिश फ्लू महामारी को देखकर लग रहा था कि सितंबर तक प्रकोप खत्म हो जाएगा, लेकिन तभी दूसरा और सबसे खतरनाक दौर शुरू हुआ। पहले दौर के बाद तीन महीने तक बहुत कम मामले सामने आए, लेकिन फिर अचानक इनमें तेजी आ गई और कई जानें गईं।
तब भी लॉकडाऊन ही आया था काम
स्पैनिश फ्लू के दौर में यूके में संक्रमण के 10 माह (1918-19)पहले दौर में 1000 संक्रमितों में से 05 की मौत हुई और दूसरे दौर में 1000 संक्रमितों में से 25 की मौत जबकि तीसरे दौर में 1000 में से 12 की मौत हुई थी। भारत में स्पैनिश फ्लू से मरने वालों की तादाद आबादी की 5.2 फीसदी यानी करीब 1.7 करोड़ लोग थे। 1918 के मई-जून में समुद्री रास्ते से बंबई (आज के मुंबई) में दस्तक दी थी। अगले कुछ माह में यह महामारी रेलवे के जरिए देश के दूसरे शहरों में भी फैल गई। सितंबर में आए इसके दूसरे दौर ने तांडव मचाया था। तब भी लॉकडाउन ही काम आया था। दुनियाभर के जिन शहरों ने लोगों के इकट्ठे होने, थिएटर खोलने, स्कूलों और धार्मिक जगहों के खुलने पर रोक लगा दी थी वहां मौतों का आंकड़ा काफी कम था।
फैक्ट्रियों और ट्रांसपोर्ट के जरिए फैली थी महामारी
उस वक्त प्रथम विश्व युद्ध जारी था। तब भीड़भाड़ वाले सैनिकों के ट्रांसपोर्ट और जंगी सामान बनाने वाली फैक्ट्रियों और बसों और ट्रेनों के जरिए यह बीमारी जंगल की आग की तरह फैल गई। ब्रिटिश सम्राज्य के रॉयल सोसाइटी ऑफ मेडिसिन को सलाह दी गई कि अगर कोई बीमार हैं तो घर पर ही रहें और ज्यादा भीड़भाड़ वाली जगहों पर जाने से बचें, लेकिन ब्रिटिश हुकुमत ने युद्ध को जारी रखना उचित समझा। दरअसल, 1918 में न तो कोई एंटीबायोटिक्स थी और न वायरस को देखने के लिए उन्नत माइक्रोस्कोप। ऐसे में हॉस्पिटलों में मरीजों की भीड़ लग गई। उस वक्त स्पैनिश फ्लू को रोकने के लिए कोरोना वायरस की तरह दुनियाभर में लॉकडाउन नहीं किया गया। हालांकि, कुछ शहरों में थिएटर, डांस हॉल्स, सिनेमा, शराबखानों (पब) पर युद्ध के चलते समय को लेकर पाबंदियां लगी थीं, लेकिन ये ज्यादातर खुले थे।
सतर्कता न बरती तो भारत पर पड़ेगा भारी
भारत में कोरोना के संक्रमण को कम करने के लिए लॉकडाउन का चौथा चरण जारी है। 21, 19 और 14 दिन के लॉकडाउन के बाद अब फिर 31 मई तक लॉकडाउन है, लेकिन इस बार कई रियायतें दी गईं हैं। दुकानें, सरकारी, प्राइवेट दफ्तर खुल चुके हैं यानी लोगों को बाहर निकलने की अनुमति मिल चुकी है। ऑटो, टैक्सी, बस सेवा शुरू कर दी गई है। इन हालातों में हमें पहले से ज्यादा सतर्कता बरतनी होगी क्योंकि जैसा हमने बताया दूसरे चरण में यह महामारी ज्यादा घातक हो जाती हैं।