किसान को मण्डी से निकाल खुले बाजार में लाने पर क्यों तुली सरकार, जानें आखिर क्या है वजह

Edited By rajesh kumar,Updated: 01 Jan, 2021 02:38 PM

why the government bringing the farmer market to the open market

कल सरकार के मंत्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर रेलमंत्री पियूष गोयल राज्यमंत्री सोमप्रकाश ने किसानों के साथ लंच करके बुजुर्ग महिलाओं और बच्चों को आंदोलन स्थल से घर वापस भेजनें का मानवीय रुख दर्शाया है।

नई दिल्ली (सुधीर शर्मा): कल सरकार के मंत्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर रेलमंत्री पियूष गोयल राज्यमंत्री सोमप्रकाश ने किसानों के साथ लंच करके बुजुर्ग महिलाओं और बच्चों को आंदोलन स्थल से घर वापस भेजनें का मानवीय रुख दर्शाया है। इसके बावजूद सरकार ने दो मुख्य मुद्दे जिसे किसान जरूरी समझते हैं, एमएसपी पर जिक्र न करके उन्हें चार जनवरी की वार्ता पर टाल दिया है। इससे भी घोर आश्चर्य कि चार घंटे चली किसान व सरकार के बीच वार्ता से सरकार इतनी खुश है कि कहती सुनी जा रही है कि किसानों की सरकार के साथ वार्ता सकारात्मक रही। 

इन दो मांगों पर सहमती बनी
सरकार प्रस्तावित विद्युत संशोधन बिल व पराली जलाने से प्रदूषण संबंधी अधयादेश इन दो मांगों पर सहमत हो गयी है। सरकार यह भी कह रही है कि सरकार के सामने किसानों ने चार प्रस्ताव रखे थे, दो पर सहमति बनी है। शेष पर चार जनवरी पर चर्चा होगी। ये सब संदेश पैदा करते हैं कि कहीं सरकार धीरे धीरे किसानों के इस आंदोलन के वजन को आंक कर आंदोलन को विखेरने पर तो नहीं तुली है। कि आंदोलन लम्बा खिचने दें और साथ ही धीरे धीरे किसान को अलग अलग ढांचे से देखकर आंदोलन को बिना किसी निर्णय के स्वतः समाप्त होने की कगार पर पहुंचा दें। जिससे सरकार के प्रति गलत संकेत भी न जाये और सरकार का लक्ष्य भी पूरा हो जाये।

मण्डी से निकाल खुले बाजार में लाने पर क्यों तुली सरकार
प्रश्न उठता है कि ऐसा कौन सा माडल है जिसके आधार पर सरकार किसान को मण्डी से निकालकर खुले बाजार में लाने के लिए तत्पर है। किसान को बाजार की कीमत पर अपना उत्पाद बेंचने व संतुष्ट हो लेने के लिए सरकार की तत्परता सोचने के लिए विवश तो करती है। अब तो सरकार जैसे नया कृषि विल लाकर अपना कोई ऐसा छिपा लक्ष्य पूरा करती दिख रही है, भले लोग इसे हड़बड़ी में लाया कानून क्यों न मानते हों। तभी तो जिसके लिए वह बिल लेकर आयी, सरकार ने पहले उन्हीं किसानों के आंदोलन को कुचलना] बदनाम करना सब्सिडी का लालच देना और अब लगातार वार्ता के नाम पर आंदोलन को स्थिर बनाये रखना चाहती है। यह सब सरकार की मंशा को साबित करता है कि वह चाहती है कि येनकेन प्रकारेण बिल को इसी रूप में बनाये रखा जाय। विशेष कर एमएसपी और कांट्रेक्ट कृषि को लेकर उसके रुख में तो कोई बदलाव नहीं दिखता। 

कुछ तो है जो सरकार नजरंदाज कर रही
वास्तव में भारत लोकतांत्रिक देश है। यहां की नीतियों में लोक का हित पहले होना चाहिए। इसके लिए लोक की ओर से उठने वाले प्रश्नों पर सीधे लोक से वार्ता करने की परम्परा है। पर सरकार तो प्रश्नों के समाधान की अपेक्षा नये नये प्रश्न उठाने पर तुली दिखती है। यही नहीं विगत कुछ वर्षों से देश की सरकार नीतियों में दोहरेपन का शिकार होती दिख रही है। वह आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवादी और राजनीतिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक दिखना चाह रही है। इसी बिडम्बना के चलते वह देश की इकोनामी को सम्हालने में नाकाम भी हो रही है। सरकार के आंकडे़ यही कहते हैं कि बेरोजगारी व्यापार व्यवस्था से लेकर बढ़ती महगाई पुकार पुकार कर कह रहे हैं कि कुछ तो है जो सरकार नजरंदाज कर रही है। देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के अनुरूप नहीं है। विगत वर्षों से देश के प्रत्येक तंत्र को मनमानी तौर पर हांकते हुए सरकार ने जैसे ही कृषि अर्थव्यवस्था पर उंगली रखी पूरा देश उबल पड़ा। भले सरकार कुछ भी कहे पर वर्तमान में किसान आंदोलन इसका गवाह है। 

सरकार कार्पोरेट के लिए कार्य कर रही
आश्चर्य कि जिस सरकार ने फूड सिक्योरिटी एक्ट में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था कर रखी है, वही किसानों के उत्पाद पर इसे कानूनी रूप देने में हिचक रही है। आखिर क्यों? ये सब संकेत करते हैं कि सरकार कहीं किसी विशेष दबाव में तो नहीं। आरोप लगते भी रहे हैं कि सरकार कार्पोरेट के लिए कार्य कर रही है, वह अब सही भी दिखता है। एक अन्य तथ्य भी दबी जबान से तैरने लगे हैं कि फूड कार्पोरेशन आफ इंडिया (एफसीआई)जो सन 1965 में जय जवान-जय किसान के नारे के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा स्थापित किया गया था। जो  तक से अब तक एमएसपी के तहत किसानों का उत्पाद खरीदती है, सुनने में आ रहा है कि वही दिवालिया होने के कगार पर है। यह नया दिलचस्प मामला सामने आना आरोप को और भी पुष्ट करते हैं। खैर जो भी हो, सामने आने पर विचार किया जायेगा। 

मानसिकता से निकलना होगा
फिर भी हमें विविध प्रकार की मानसिकता से निकलना होगा, और जनता की भावनाओं और आवश्यकताओं पर खरे साबित करना होगा। तभी लोकतंत्र मजबूत होगा। वैसे भी लोकतंत्र का आधार है विकेंद्रीकरण। आर्थिक से लेकर सम्पूर्ण तंत्रें की सम्पूर्ण विधाओं एवं विधानों में विकेंद्रीकरण सरकार का लक्ष्य होना चाहिए। जिससे देश की जनता को आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी बनाया जा सके। आजादी काल से भारत इस पर चलकर अपने लक्ष्यों को पाने में सफल भी रहा है। तभी तो सरकार ने जनहित में आर्थिकी के लिए जरूरी हुआ तो बैंकों का सरकारीकरण किया और खाद्यान्न के लिए जरूरत समझी तो हरित क्रांति दुग्धक्रांति से लेकर मनरेगा जैसी योजनायें चलाईं। कृषि सब्सिडी, कर्जामाफी से लेकर सरकार द्वारा स्थापित स्वास्थ्य, शिक्षा से जुड़ी सुविधायें जिसमें सरकार का सीधे हित न होकर भी देश के लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूती के लिए जरूरी माना जाता है, सरकारों ने वह किये। 

कठिनाई आना सम्भव
शिक्षा से लेकर अन्य सभी तंत्रें को कुछ पल के लिए भुला भी दें। तब भी देश की आर्थिकी, व्यापार व्यवस्था एवं देश की आम जनता के बीच लोकतंत्रीय समायोजन किये बिना देश में संतुलन लाना कठिन है। क्योकि इसका सम्बंध हर व्यक्ति के मूलभूत जीवन की जरूरी सुबिधाओं से होता है। यदि देश के नागरिक की रोजी रोटी सहित जीवन से जुडे़ जरूरी पहलुओं पर जटिलतायें आयीं, तो देश व सरकार दोनों के लिए कठिनाई आना सम्भव है। 

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