क्या क्षेत्रीय पार्टियां 2024 लोकसभा चुनाव में मोदी को देंगी मात!

Edited By Seema Sharma,Updated: 25 Jun, 2021 09:06 AM

will regional parties defeat modi in 2024 lok sabha elections

देश में लोकसभा का अगला सियासी समर अब करीब साढ़े तीन साल के बाद 2024 में होगा, लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों की क्षेत्रिय पार्टियों अभी से इस जुगत में लगी हैं की देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चक्रव्यूह को कैसे तोड़ा जाए। एन.सी.पी. के सुप्रीमो शरद...

नेशनल डेस्क: देश में लोकसभा का अगला सियासी समर अब करीब साढ़े तीन साल के बाद 2024 में होगा, लेकिन देश के विभिन्न हिस्सों की क्षेत्रिय पार्टियों अभी से इस जुगत में लगी हैं की देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चक्रव्यूह को कैसे तोड़ा जाए। एन.सी.पी. के सुप्रीमो शरद पवार के नेतृत्व क्षेत्रीय पार्टियों को एकजुट करने के लिए हाल ही में कई नेताओं ने मंथन किया तो सियासी गलियारों में चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया। इससे एक बात तो साफ हो गई कि क्षेत्रीय पार्टियों को इस बात का एहसास है कि सत्तारूढ़ भाजपा को मात देने के लिए उनका एक मंच पर आना लाजमी है। उन्हें लगता है कि देश में भाजपा को मात देने के लिए अब तीसरा मोर्चा जरूरी है। हालांकि जानकारों का कहना है कि यह कांग्रेस के बिना भी संभव नहीं है। कांग्रेस तीसरे मोर्चे की बात आने पर किनारा कर लेती है यही वजह है कि टीएमसी नेता यशवंत सिन्हा ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाई तो न्योता मिलने के बावजूद कांग्रेस के नेताओं ने इसमें शिरकत नहीं की। कांग्रेस अपने नेतृत्व में दूसरे मोर्चे की बात पर सहमत होने को तैयार रहती है मतलब साफ है कि सारी पावर कांग्रेस के पास ही रहे। 

 

क्षेत्रीय दलों की एकजुट होने की योजना
क्षेत्रीय दलों को एक इस बात की समझ है कि अगर वे अभी से राष्ट्रीय स्तर पर टक्कर देनी है तो उन्हें एक एकजुट होकर राष्ट्रीय विकल्प बनना पड़ेगा। उन्हें इस तरह से संगठित होना पड़गा कि सभी का देश की आवाम के लिए कोई राष्ट्रीय संदेश हो। क्षेत्रीय दल इस बात को भी मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर फिलवक्त कोई चेहरा न भी हो तो उनकी नीतियों को विकल्प को लेकर जनता में किसी भी तरह का भ्रम न फैले। ऐसा नहीं है कि देश में इससे पहले ऐसे समीकरण न बने हों। जानकारों का कहना है कि 2004 में कांग्रेस ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में ही पहल करके 27 दलों का गठबंधन बनाया था, जिसके बाद पार्टी अप्रत्याशित रूप से दोबारा सत्ता में आई थी। जबकि वर्तमान में हालत यह है कि देश में कांग्रेस का आकार घटता जा रहा है। 

 

कांग्रेस ने साथ नहीं दिया तो फायदा नहीं 
एक क्षेत्रीय दल के सीनियर नेता की माने तो वह कहते हैं कि क्षेत्रीय दल कितने भी एकजुट हो जाएं, अगर कांग्रेस ने अपनी स्थिति नहीं सुधारी तो इस लड़ाई को लड़ने के कोई मायने नहीं हैं। 2019 आम चुनाव में कांग्रेस का पदर्शन संतोषजनक नहीं था लगभग 225 लोकसभा सीटों पर भाजपा का सीधा मुकाबला करने के बाद भी 200 से अधिक सीटों पर भाजपा काबिज हो गई। उनका मानना है कि ऐसे हालात में क्षेत्रीय दलों के एक होने का भी कोई खास लाभ नहीं हो पाएगा। अगर कांग्रेस के हालात नहीं सुधरे तो हर राज्य में क्षेत्रीय दलों के अपने-अपने राजनीतिक समीकरण हैं और जिन्हें बचाने के लिए वे न तो कांग्रेस के साथ जाना चाहेंगे और न भाजपा से उलझना चाहेंगे।

 

टी.एम.सी. खुद को मान रही है विकल्प
पश्चिम बंगाल में तीसरी बार जीतने के बाद ममता बनर्जी की अगुआई में टीएमसी भी खुद को विकल्प के तौर पर प्रोजैक्ट कर रही है। पार्टी के विस्तार पर भी कार्य किया जा रहा है। टीएमसी खास कर नॉर्थ ईस्ट में भी अपना विस्तार चाहती है। इस मामले में अरविंद केजरीवाल भी उनके साथ हैं। आदमी पार्टी दिल्ली, पंजाब के अलावा गुजरात, उत्तराखंड में अपने पांव पसारना चाहती है। अखिलेश यादव भी विपक्षी एकता के पक्षधर हैं, लेकिन इन लोगों की समस्या यह है कि ये कांग्रेस से दूर ही रहना चाहते हैं।

 

क्या है तीसरे मोर्चे की संभावना
कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि तीसरे मोर्चे की संभावना तब प्रबल होगी जब नवीन पटनायक, जगन रेड्डी व चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता आगे आएं। तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश 2019 चुनाव से पहले चंद्रबाबू नायडू ने की थी। उन्होंने मोर्चे में खुद को डिप्टी पीएम प्रोजेक्ट करने का समीकरण भी तैयार कर लिया था। उन्होंने कई राज्यों में संपर्क भी किया लेकिन मुहिम सिरे नहीं चढ़ पाई। क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय राजनीति में आने के इच्छुक तो हैं लेकिन एकजुट नहीं हुए ता उन्हे अपने ही राज्यों तक सिमट कर रहना होगा। जानकार यह भी कहते हैं कि कांग्रेस को विश्वास में लिए विपक्षी एकता संभव नहीं है। शरद पवार क्षेत्रीय दल और कांग्रेस के बीच सेतू का काम कर सकते हैं, लेकिन फिलहाल कांग्रेस ऐसे कोई भी संकेत नहीं दे रही है।

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