कहानी: एक औरत तीन बटा चार

Edited By Anil dev,Updated: 04 Feb, 2021 04:54 PM

special story ek aurat tin bata chaar by sudha arora

एक बीस बरस पुराना घर था। वहां चालीस बरस पुरानी एक औरत थी। उसके चेहरे पर घर जितनी ही पुरानी लकीरें थीं। तब वह एक खूबसूरत घर हुआ करता था। घर के कोनों में हरे-भरे पौधे और पीतल के नक्काशीदार कलश थे। एक कोने की तिकोनी मेज पर ताजे अखबार और पत्रिकाएँ थीं।...

सुधा अरोड़ा

एक बीस बरस पुराना घर था। वहां चालीस बरस पुरानी एक औरत थी। उसके चेहरे पर घर जितनी ही पुरानी लकीरें थीं। तब वह एक खूबसूरत घर हुआ करता था। घर के कोनों में हरे-भरे पौधे और पीतल के नक्काशीदार कलश थे। एक कोने की तिकोनी मेज पर ताजे अखबार और पत्रिकाएँ थीं। दूसरी ओर नटराज की कलात्मक मूर्ति थी। कार्निस पर रखी हुई आधुनिक फ्रेमों में जड़ी विदेशी पृष्ठभूमि में एक स्वस्थ-संतुष्ट दंपति के बीच एक खूबसूरत लड़की की तस्वीर थी। उसके बगल में सफेद रूई से बालों वाले झबरैले कुत्ते के साथ एक गोल मटोल बच्चे की लैमिनेटेड तस्वीर थी। घर के साहब और बच्चों की अनुपस्थिति में भी उनका जहां-तहां फैला सामान साहब की बाकायदा उपस्थिति की कहानी कहता था।

उस फैलाव को समेटती और उस घर को घर बनाती हुई यहां से वहां घूमती एक खूबसूरत औरत थी - आखिरी उंगली पर डस्टर लपेटे, हर ओने कोने की धूल साफ करती हुई, हर चीज को करीने से रखती हुई, लजीज खाने को धनिए की हरी-हरी कटी हुई पत्तियों से सजाकर तरह-तरह के आकारों वाले खूबसूरत बर्तनों में परोसती हुई और फिर रात को सबके चेहरे की तृप्त मुस्कान को अपने चेहरे पर लिहाफ की तरह ओढ़कर सोती हुई। इसी दिनचर्या में से समय निकालकर वह औरत बाहर भी जाती - बच्चों की किताबें लेने, साहब की पसंद की सब्जियां लेने, घर को घर बनाए रखने का सामान लेने। हर महीने की एक निश्चित तारीख को वह अपनी हमउम्र सखी सहेलियों के घर चाय पार्टी में भी हिस्सा लेती, पर हर बार घर से बाहर निकलते समय वह अपना एक हिस्सा घर में ही छोड़ आती। वह हिस्सा घर के सेफ्टी अलार्म जैसा था, जिसका एक तार उस औरत से जुड़ा था।

अचानक बाजार में खरीददारी करते हुए या सहेली के घर नाश्ते की प्लेट हाथ में पकड़े हुए अचानक उस तीन चौथाई औरत का तार खनखनाने लगता। वह घड़ी की ओर टकटकी लगाकर देखने लगती और अपने छूटे हुए हिस्से से मिलने को बेचैन हो उठती। घर की दहलीज के भीतर पाँव रखते ही दोनों हिस्से जब चुंबकीय आकर्षण से एक दूसरे से मिल जाते तो वह राहत की लंबी साँस लेती। स्कूल से लौटते अपने बच्चों को दोनों बांहों में भर लेती और बच्चों के साथ साहब का इंतजार करने लगती। बच्चों की आँखों में अपनी मासूम मांग के पूरे होने की चमक होती कि माँ दिनभर कहीं भी रहे, पर उनके स्कूल से लौटने से पहले उन्हें घर में उनके पसंदीदा नाश्ते के साथ माँ हाजिर मिलनी चाहिए। यही हिदायत साहब की भी थी।

इन हिदायतों और फरमाइशों की सुनहरी चकाचौंध में उसने इस बदलाव पर भी गौर नहीं किया कि उसके दोनों हिस्सों की फांक में खाई बढ़ती जा रही है। घर में छूट जाने वाला एक चौथाई हिस्सा धीरे-धीरे फैलता गया और उसने तीन चौथाई हिस्से को अपनी ओर खींच लिया। अब वह बाहर जाती तो एक चौथाई हिस्सा ही उसके साथ जाता जिसे देखकर सखी सहेलियाँ, नाते रिश्तेदार उसे आसानी से नजरअंदाज कर देते। बाहर का सारा काम जल्दी-जल्दी निबटा वह घर लौट आती तो देखती कि दूसरा हिस्सा नदारद है। दरअसल उस हिस्से का चुंबकीय आकर्षण भोथरा हो गया था। वह पूरे घर में उसे ढूंढ़ती फिरती।

बच्चे, जो अब बच्चे नहीं रहे थे, हंसकर पूछते, 'क्या खो गया है मैम? हम मदद करें?'

'नहीं, मैं खुद देख लूंगी।' ...वह अपनी झेंप मिटाती-सी कहती।

'यहां, इस कमरे में तो नहीं है न? ...प्लीज।' ...बच्चे, बड़ों की मुद्रा में समझा देते कि उन्हें अपना काम करने के लिए अकेला छोड़ दिया जाय!

वह कमरे से बाहर आ जाती और बदहवास-सी बैठक के कोने में पड़े फूलदान से टकरा जाती, जहां प्लास्टिक के खूबसूरत फूलों के बीच उसका वह हिस्सा इस कदर ढीला पड़ा होता कि पहली नजर में तो वह दिखाई ही नहीं देता। फिर पहचान में भी नहीं आता कि यह वही है जो पहले दहलीज पर पांव धरते ही उससे उमग कर आ जुड़ता था। अब वह सेफ्टी अलार्म की तरह वक्त पर खनखनाता भी नहीं। बिना सिग्नल के भी वह वक्त पर लौट ही आती। आने के बाद उसके वक्त का एक बड़ा हिस्सा उसे घर के ओने-कोने में तलाशते हुए बीतता। वह बार-बार भूल जाती कि घर से निकलते वक्त उसे कहां छोड़ा था। कभी वह देखती कि लॉन में पानी डालते हुए वह उसे वहीं छोड़ आई थी और वह उसे गेंदे की क्यारी के किनारे लगी ईंटों की तिकोनी बाड़ पर लुढ़का हुआ मिलता। कभी वह देखती कि दरवाजे के साथ लगे साइडबोर्ड के पास ही जूतों के बीच वह धूल मिट्टी से सना पड़ा है। वह उसे हाथ बढ़ाकर सहारा देती, उसकी धूल मिट्टी झाड़ती और धो पोंछ कर सबकी नजरों से बचाते हुए दुपट्टे में छिपाकर अपने साथ लिए चलती। कभी-कभी बच्चे, जो अब बड़े हो गए थे, आते जाते पूछ भी लेते - 'यह तुमने पल्लू में क्या छिपा रखा है?'

'कहां! कुछ भी तो नहीं।' ...वह कुछ और सतर्कता से उसे ढक लेती - इस उम्मीद में कि उनके अगले सवाल पर वह खुद उसे उघाड़ कर दिखा देगी और उनसे इस हिस्से के बारे में सलाह मशविरा करेगी। पर बच्चे अपनी बड़ी व्यस्तताओं में इतने मुतमइन होते कि उसके कुछ कहने से पहले ही फौरन आगे बढ़ लेते, 'अच्छा! समथिंग पर्सनल? ओ.के. कैरी ऑन, मॉम!' वह घर की हालत देखती और दुखी होती। लकड़ी के फर्नीचर की वॉर्निश बेरौनक हो गई थी। घर के अंदर के पौधे धूप और हवा के बिना मुरझाने लगे थे। बैठक के सोफों और कुर्सियों की गद्दियों की सीवनें उधड़ने लगी थी। दरवाजों और खिड़कियों के काँच पारदर्शी नहीं रह गए थे। बैठक से ऊपर बेडरूम को जाती सीढ़ियों की रेलिंग के हत्थों और कोनों में धूल की बेशुमार तहें थीं। फ्रेम में जड़ी तस्वीरों के रंग फीके पड़ गए थे। पूरे घर पर जैसे धुंधले से आवरण की चादर फैली थी और इन सब के बीच बार-बार गुम होता उसके सम को बिगाड़ता वह तीन चौथाई हिस्सा उसे अस्तव्यस्त कर रहा था।

अब वह उसे साथ लिए साहब का इंतजार करती कि शायद साहब उसके इस बेडौल अनुपात के बारे में पूछता? करें, पर साहब ठीक खाने के वक्त पर बिना इत्तला किए दो-चार मेहमानों को साथ लिए लौटते या बाहर किसी होटल से खाना खाकर देर से लौटते और लौटने के बाद भी वहां ही होते जहां से लौटे थे। पलकों पर नींद के हावी होने तक साहब बाईं ओर झुके-झुके फोन पर बातें करते रहते या गावतकिए पर बाईं टेक लगा किसी फाइल में सिर गड़ाकर पड़े रहते। ऐसी एकाग्रता से उनका ध्यान खींचना किसी खतरे की घंटी जैसा था जिसे बजाने से उस खाईं के फट जाने का डर था, जिसे लेकर वह चिंतित थी।

सबके सोने के बाद और अपने सोने से पहले वह अपने पल्लू में छिपे उस मांस के लोथ से पड़े ढीले हिस्से को धीमे से थपककर सुला देती और फिर खुद सो जाती, पर सुबह जब उठती तो देखती कि उसके उठने से पहले ही वह हिस्सा जागकर साहब के पैताने पड़ा सबके उठने का इंतजार कर रहा है और रात भर के उनींदे से उसकी साँसें कुछ श्लथ हैं। उन साँसों का श्लथ होना उसमें सुबह-सुबह ही ऐसी बेचैनी भर देता कि उसका मन होता, उस ढीले, बीमार लोथ को वहीं अपने हाल पर छोड़कर, अपना बचा खुचा, सही सलामत तिहाई चौथाई हिस्सा लेकर ही इस मटमैले घर से हमेशा के लिए पलायन कर जाए। वह इस बारे में गंभीरता से सोच ही रही थी कि एक हादसा हो गया।

एक सुबह साहब सोकर तो उठे पर उठ नहीं पाए। वह अभी सो ही रही थी। जगी तो देखा, साहब के पैताने खड़ा उसका वह हिस्सा अपना पूरा जोर लगाकर साहब को बिस्तर से उठ बैठने में मदद कर रहा है। वह आंखें फाड़े देखती रह गई। वह, जो उस पर पूरी तरह निर्भर था, जो उसके सहारे के बिना लुंज-पुंज जहां का तहां पड़ा रहता था, बिना उसकी इजाजत लिए आज इस कदर जागृत, चौकन्ना और क्रियाशील दिखाई दे रहा था। पर उस हिस्से की सारी मेहनत और तरकीब बेकार गई। साहब फिर कटे हुए पेड़ की तरह ढह गए और कराहने लगे। उसने फौरन डॉक्टर हकीम बुलाए। डॉक्टर ने मुआयना किया और बताया कि साहब की गर्दन और पीठ की शिराओं में संकुचन हो गया है और ऐसा बरसों से साहब के एक ही ओर झुके रहने के कारण हुआ है। साहब कार में बैठते तो एक ओर झुककर अखबार पढ़ते, चेयरमैन की कुर्सी पर बैठे फोन पर बतियाते तो एक ओर झुककर, दाहिने हाथ से खाना खाते तो ऐसे जैसे बाईं ओर बैठे किसी दूसरे के मुंह में निवाला डाल रहे हैं। साहब का शरीर जो बाईं ओर को टेढ़ा हुआ कि सीधा होने का नाम ही न ले। यहां तक कि जब वह चलते तो भी पीसा की मीनार की तरह उनका एक ओर को झुकाव दूर से ही देखा जा सकता था। अब, जब कि वह सीधा होना चाहते थे तो रीढ़ की हड्डी ने जवाब दे दिया था। उसकी लोच खत्म हो गई थी और वह धातु की तरह सख्त और एकजोड़ थी। जरा-सा हिलना डुलना उनके लिए असह्य था और उस ओर हल्के से दबाव से भी हड्डी में तरेड़ आने की संभावना थी।

पचासों दवाइयां, इंजेक्शन, ट्रैक्शन, डायाथर्मी यानी हर संभव इलाज किया गया, पर साहब की कराहों में कोई फर्क नहीं पड़ा। दिन, हफ्ते, महीने गुजरते गए। डॉक्टर ने ऐलान कर दिया कि यह मर्ज लाइलाज है और वह पहले की तरह अब कभी दफ्तर नहीं जा पाएंगे। उनकी शिराओं को मुलायम करने के लिए व्यायाम करवाए जाने लगे। वह साहब के लिए दूध, सूप या फलों का रस लेकर आती तो देखती, उसका वह तीन चौथाई हिस्सा पहले से उन्हें व्यायाम करवाने और तीमारदारी में जुटा है। आखिरकार दोनों की मेहनत रंग लाई। साहब बिस्तर से खुद उठकर बैठने लगे, खुद चलकर गुसलखाने जाने लगे। दफ्तर से फाइलें घर पर आने लगीं और साहब ने घर पर ही दफ्तर खोल लिया। डॉक्टर ने देखा तो उन्हें धीरे-धीरे चलने की हिदायत दे दी। उनके लिए एक खास किस्म की छड़ी बनवाई गई जिसे एडजस्ट कर छोटा बड़ा किया जा सकता था। वह छड़ी उनके दाएं हाथ में थमा दी गई।

पर साहब का बायां हिस्सा इतना कमजोर हो चुका था कि उसे भी सहारे की जरूरत थी। उस हिस्से के लिए लकड़ी या मेटल की मजबूत छड़ी कारगर नहीं थी। उस ओर के लिए एक ऐसी छड़ी दरकार थी जो साहब के बाएं हिस्से के अनुरूप अपने को हर माप के सांचे में ढाल सके। इसके लिए उस तीन बटा चार मांस के लोथ से ज्यादा लचीला और क्या हो सकता था? साहब को बड़ा-छोटा, ऊंचा-नीचा जैसा सहारा चाहिए होता, वह पलक झपकते अपने को उस आकार में ढाल लेता। उसने देखा, साहब की तबीयत में सुधार होने के साथ-साथ उसका वह तीन चौथाई हिस्सा भी सेहतमंद हो रहा था। अब भी रात भर साहब के पैताने जागने के बावजूद उसकी साँसों में शिथिलता नहीं रही थी। अब उसे ढूंढ़ना नहीं पड़ता था। बाकी की जिंदगी के लिए साहब की बगल में उसकी जगह सुनिश्चित हो चुकी थी।

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