अर्जुन महाभारत का युद्ध न करके कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे...

Edited By ,Updated: 19 Aug, 2015 01:00 PM

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बहुत से लोगों की ऐसी कल्पना होती है कि हम कर्म को टाल सकते हैं। सच यह है कि हम कर्म टाल तो सकते हैं किंतु संपूर्णतया कोई भी कर्मशून्य नहीं रह सकता। वह एक कर्म छोड़ेगा तो दूसरा करेगा। बिना कुछ किए कोई चुपचाप बैठेगा, तो वह चुपचाप बैठने का कर्म करता...

बहुत से लोगों की ऐसी कल्पना होती है कि हम कर्म को टाल सकते हैं। सच यह है कि हम कर्म टाल तो सकते हैं किंतु संपूर्णतया कोई भी कर्मशून्य नहीं रह सकता। वह एक कर्म छोड़ेगा तो दूसरा करेगा। बिना कुछ किए कोई चुपचाप बैठेगा, तो वह चुपचाप बैठने का कर्म करता होगा। हम आसानी से समझ सकते हैं कि बिना कुछ करे बिस्तर पर लेटने वाले लोग भी कभी न कभी ऊब जाते हैं और थक भी जाते हैं। वे कहते हैं, ‘‘सुबह से कहीं भी नहीं गया। बदन जैसे कसमसा गया है। अब जरा घूम-फिर कर शरीर खुला करता हूं।’’ 

इसका मतलब यह है कि बैठ-बैठ कर वह थक गया था और अब विश्राम के लिए उसे घूमना है। वास्तव में, बैठना भी एक थकाने वाला कर्म होता है। आलथी-पालथी मार कर कोई देर तक बैठे तो वह थक जाता है। तब विश्राम की दृष्टि से वह हाथ-पांव तानता है, खड़ा रहता है। 

कहने का मतलब यह है कि कोई भी इंसान पूर्ण रूप से कर्मशून्य नहीं होता। वह एक कर्म टाल देता है तो दूसरा कोई कर्म करता है। महाभारत युद्ध के आरंभ में अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा था, ‘‘मैं युद्ध नहीं करूंगा। उसमें मुझे पाप लगेगा। उससे तो अच्छा है कि मैं भीक्षा ही मांग लूं।’’ 

वास्तव में सामने अपने ही गुरु, सगे-संबंधियों को देखकर वह दुविधा में पड़ गया था। उस समय श्री कृष्ण ने उसे उत्तर दिया था कि कोई भी कर्म पूर्ण रूप से दोष रहित हो ही नहीं सकता। अग्नि के साथ धुआं तो होता ही है, उसी प्रकार हर एक कर्म किसी न किसी दोष के साथ ही होता है, इसलिए कर्म टालने से पाप टल ही जाएगा, यह कहना मुश्किल है। 

अर्जुन ने युद्ध टाल कर भीक्षा मांगने का कर्म किया होता, तो भीख मांगना भी दोष रहित कर्म कैसे होता? हमारे शास्त्रों में भी भीक्षा मांगने का अधिकार हर किसी को नहीं था। ज्ञान के साधक को, विद्यार्थी को और पंगु को ही भीक्षा मांगने का अधिकार था। अर्जुन तो इनमें से कोई भी नहीं था इसलिए वह भीक्षा मांगता तो वह अनाधिकार कर्म होता। पराक्रम और विलास अर्जुन का सहज स्वभाव था इसलिए भीक्षा मांगने की उसकी भाषा उसके स्वभाव के विरुद्ध थी। इसका अर्थ यही है कि स्वाभाविक रूप से जो इंसान का कर्तव्य है, उसे वह टाले नहीं। कुरुक्षेत्र तो हर एक का कार्यक्षेत्र है। 

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