प्रेरणात्मक कहानी: गुलाम अौर मालिक के अंतर को स्पष्ट करती है संत की सीख

Edited By ,Updated: 08 Oct, 2016 04:45 PM

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गुलामी के दिनों में एक मस्तमौला संत हुए। वह हर समय ईश्वर के स्मरण में ही लगे रहते थे। एक बार की बात है, वह घूमते-घूमते किसी

गुलामी के दिनों में एक मस्तमौला संत हुए। वह हर समय ईश्वर के स्मरण में ही लगे रहते थे। एक बार की बात है, वह घूमते-घूमते किसी जंगल से गुजर रहे थे, तभी गुलामों के कारोबारियों के एक गिरोह की निगाह संत पर पड़ी। 

 

गिरोह के सरगना ने संत का स्वस्थ शरीर देखा तो सोचा कि इस व्यक्ति की तो खूब अच्छी कीमत मिल सकती है। उसने मन ही मन तय कर लिया कि उन्हें पकड़ कर बेच दिया जाए। बस फिर क्या था, उसके इशारे पर गिरोह के सदस्यों ने संत को घेर लिया। 
संत ने कोई विरोध नहीं किया। गिरोह के सदस्यों ने जब संत को बांधा तब भी संत चुप्पी साधे रहे। 

 

संत की चुप्पी देख एक आदमी से रहा नहीं गया, उसने पूछा, ‘‘हम तुम्हें गुलाम बना रहे हैं और तुम शांत हो। हमारा विरोध क्यों नहीं कर रहे?’’ 

 

संत ने उत्तर दिया, ‘‘मैं तो जन्मजात मालिक हूं। कोई मुझे गुलाम नहीं बना सकता। मैं क्यों चिंता करूं।’’ 

 

गिरोह के सदस्य संत को गुलामों के बाजार में ले गए और आवाज लगाई, ‘‘एक हट्टा-कट्टा इंसान लाए हैं। किसी को गुलाम की जरूरत हो तो बोली लगाओ।’’ 

 

यह सुनकर संत ने उससे भी अधिक जोर से आवाज लगाई, ‘‘यदि किसी को मालिक की जरूरत हो तो मुझे खरीद लो। मैं अपनी इंद्रियों का मालिक हूं। गुलाम तो वे हैं जो इंद्रियों के पीछे भागते हैं और शरीर को ही सब कुछ समझते हैं।’’
 

संत की आवाज उधर से गुजर रहे कुछ लोगों ने सुनी। वे समझ गए कि यह पुकारने वाला अवश्य ही कोई आत्मज्ञानी व्यक्ति है। वे सभी भक्त संत के चरणों में झुक गए। भक्तों की भीड़ देखकर गिरोह के सदस्य घबरा गए और संत को वहीं छोड़कर भागने लगे। भक्तों ने उन्हें पकड़ लिया पंरतु संत ने उन्हें छोड़ देने को कहा। गिरोह के सरगना ने संत से माफी मांगी और अपना धंधा छोड़ देने का संकल्प किया।

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