पिता का दूसरा विवाह करवाने के लिए किया आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन

Edited By ,Updated: 25 Oct, 2016 02:12 PM

mahatma bhishma

महात्मा भीष्म आदर्श पितृभक्त, आदर्श सत्यप्रतिज्ञ, शास्त्रों के महान ज्ञाता तथा परम भगवद्भक्त थे। इनके पिता भारत वर्ष के चक्रवर्ती सम्राट

महात्मा भीष्म आदर्श पितृभक्त, आदर्श सत्यप्रतिज्ञ, शास्त्रों के महान ज्ञाता तथा परम भगवद्भक्त थे। इनके पिता भारत वर्ष के चक्रवर्ती सम्राट महाराज शान्तनु तथा माता भगवती गंगा थीं। महर्षि वशिष्ठ के शाप से ‘द्यौ’ नामक अष्टम वसु ही भीष्म के रूप में इस धराधाम पर अवतीर्ण हुए थे।


बचपन में इनका नाम देवव्रत था। एक बार इनके पिता महाराज शान्तनु कैवर्तराज की पालिता पुत्री सत्यवती के अनुपम सौंदर्य पर मुग्ध हो गए। कैवर्तराज ने उनसे कहा कि, ‘‘मैं अपनी पुत्री का विवाह आपसे तभी कर सकता हूं जब इसके गर्भ से उत्पन्न पुत्र को आप अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाने का वचन दें।’’


महाराज शान्तनु अपने शीलवान् पुत्र देवव्रत के साथ अन्याय नहीं करना चाहते थे अत: उन्होंने कैवर्तराज की शर्त को अस्वीकार कर दिया किंतु सत्यवती की आसक्ति और चिंता में वे उदास रहने लगे। जब भीष्म को महाराज की चिंता और उदासी का कारण मालूम हुआ तब इन्होंने कैवर्तराज के सामने जाकर प्रतिज्ञा की कि, ‘‘आपकी कन्या से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा।’’


जब कैवर्तराज को इस पर भी संतोष नहीं हुआ तो इन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने का दूसरा प्रण लिया। देवताओं ने इस भीष्म-प्रतिज्ञा को सुन कर आकाश से पुष्पवर्षा की और तभी से देवव्रत का नाम भीष्म प्रसिद्ध हुआ। इनके पिता ने इन पर प्रसन्न होकर इन्हें इच्छामृत्यु का दुर्लभ वर प्रदान किया।


सत्यवती के गर्भ से महाराज शान्तनु को चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुए। महाराज की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बनाए गए किंतु गंधर्वों के साथ युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई। विचित्रवीर्य अभी बालक थे। उन्हें सिंहासन पर आसीन करके भीष्म जी राज्य का कार्य देखने लगे। विचित्रवीर्य के युवा होने पर उनके विवाह के लिए काशी राज की तीन कन्याओं का बलपूर्वक हरण करके भीष्म जी ने संसार को अपने अस्त्र-कौशल का प्रथम परिचय दिया।


काशी नरेश की बड़ी कन्या का नाम अम्बा था। वह शाल्व से प्रेम करती थी, अत: भीष्म ने उसे वापस भेज दिया, किंतु शाल्व ने उसे स्वीकार नहीं किया। अम्बा ने अपनी दुर्दशा का कारण भीष्म को समझ कर उनकी शिकायत परशुराम जी से की। वीरमूर्ति परशुराम जी से इन्होंने शस्त्र विद्या सीखी थी।


परशुराम जी ने भीष्म से कहा कि, ‘‘तुमने अम्बा का बलपूर्वक अपहरण किया है, अत: तुम्हें इससे विवाह करना होगा, अन्यथा मुझसे युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’’


परशुराम जी से भीष्म का इक्कीस दिनों तक भयानक युद्ध हुआ। अंत में ऋषियों के कहने पर लोक कल्याण के लिए परशुराम जी को ही युद्ध-विराम करना पड़ा। भीष्म अपने प्रण पर अटल रहे।


महाभारत के युद्ध में भीष्म को कौरवपक्ष के प्रथम सेनानायक होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने शस्त्र न ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी। एक दिन भीष्म ने भगवान को शस्त्र ग्रहण कराने की प्रतिज्ञा कर ली। इन्होंने अर्जुन को अपनी बाण-वर्षा से व्याकुल कर दिया। 


भक्तवत्सल भगवान ने भक्त के प्राणों की रक्षा के लिए अपनी प्रतिज्ञा को भंग कर दिया और रथ का टूटा हुआ पहिया लेकर भीष्म की ओर दौड़ पड़े। भीष्म मुग्ध हो गए भगवान की इस भक्तवत्सलता पर। अठारह दिनों के युद्ध में दस दिनों तक अकेले घमासान युद्ध करके भीष्म ने पांडव पक्ष को व्याकुल कर दिया और अंत में शिखंडी के माध्यम से अपनी मृत्यु का उपाय स्वयं बताकर महाभारत के इस अद्भुत योद्धा ने शरशय्या पर शयन किया।


युद्ध समाप्त हुआ। धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ। एक दिन युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के पास गए तो देखा कि भगवान ध्यानमग्न हैं। यह देखकर आश्चर्यचकित युधिष्ठिर बोले, ‘‘प्रभो! आप किसका ध्यान करते हैं?’’


भगवान ने उत्तर दिया, ‘‘धर्मराज! शरशय्या पर सोते हुए नरशार्दूल भीष्म मेरा ध्यान कर रहे थे। उन्होंने मुझे स्मरण किया था इसलिए मैं भी भीष्म का ध्यान कर रहा था।’’ 


फिर भगवान ने कहा, ‘‘युधिष्ठिर! वेद और धर्म के सर्वोपरि ज्ञाता कुरुकुल के सूर्य पितामह के अस्त होते ही जगत का ज्ञानसूर्य भी निस्तेज हो जाएगा। अतएव वहां चलकर कुछ उपदेश ग्रहण करना हो तो कर लो।’’


युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण को साथ लेकर भीष्म पितामह के पास गए। बड़े-बड़े ब्रह्मवेत्ता ऋषि-मुनि वहां उपस्थित थे। भीष्म पितामह ने भगवान को देखकर प्रणाम और स्तवन किया।


भगवत्प्रसाद से भीष्म पितामह के शरीर की सारी वेदना उसी समय नष्ट हो गई, उनका अंत:करण सावधान और बुद्धि सर्वथा जागृत हो गई। उन्होंने युधिष्ठिर को धर्म के सब अंगों का पूरी तरह उपदेश दिया और उनके शोक संतप्त हृदय को शांत कर दिया।
सूर्य के उत्तरायण होने पर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण की छवि को अपनी आंखों में बसाकर महात्मा भीष्म ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया।

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