Edited By ,Updated: 23 Sep, 2016 09:01 AM
शंकरपुर में एक बार महात्मा हंसानंद का आगमन हुआ। वह एक धर्मशाला के चबूतरे पर बैठ गए और लोगों को न्याय, धर्म, कर्तव्य एवं सदाचार
शंकरपुर में एक बार महात्मा हंसानंद का आगमन हुआ। वह एक धर्मशाला के चबूतरे पर बैठ गए और लोगों को न्याय, धर्म, कर्तव्य एवं सदाचार के बारे में सदुपदेश देने लगे। धीरे-धीरे बहुत संख्या में लोग उनके पास आने लगे। अपने उपदेश के अंत में महात्मा उनसे कहते, ‘‘भद्रजनों, आप अपने साथ मुट्ठी भर चावल और पैसे भी लाया करें।’’
शंकरपुर में शरभ एक उच्च शिक्षा प्राप्त युवक था। एक दिन उसने महात्मा हंसानंद को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और पूछा, ‘‘स्वामी जी, आपके उपदेश सुनने के बाद गलत मार्ग पर चल रहे कई जन सदाचारी बन गए हैं। आप जबसे आए हैं गांव में झगड़े-फसाद और मारपीट की घटनाएं बहुत कम हो गई हैं। मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूं।’’
‘‘जो पूछना चाहते हो निर्भय होकर पूछो बेटा।’’ महात्मा हंसानंद ने कहा।
‘‘आप अपने उपदेशों में लोभ, लालच, धन की कामना को बराबर अनुचित बताते आ रहे हैं, फिर आप गांववासियों से चावल और पैसों की इच्छा क्यों रखते हैं? मैं बस इतना जानना चाहता हूं।’’ शरभ ने विनम्र भाव से कहा।
शरभ का सवाल सुनकर महात्मा हंस पड़े, फिर बोले, ‘‘बेटा, तुम्हारी बातों से यह विदित होता है कि मेरे उपदेशों से गांववासियों का हित हो रहा है। मैं यही हित कुछ दिनों के बाद पड़ोसी गांववासियों का भी करना चाहता हूं इसलिए मेरा शरीर काम करता रहे, स्वस्थ रहे, उसके लिए खाने और धन की आवश्यकता पड़ती है।’’
शरभ नतमस्तक हो गया। दूसरे दिन से गांववासी महात्मा हंसानंद के लिए अपनी भेंट में चावल के साथ नमक, दाल, सब्जी, फल आदि भी लाने लगे।