कृष्णावतार

Edited By ,Updated: 18 Sep, 2016 12:00 PM

sri krishna

अर्जुन ने युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव तथा द्रौपदी को कहा कि,‘‘जब देवराज इंद्र ने मुझे ‘शत्रु दमन’ की उपाधि दी तो मैंने उनसे कहा, ‘‘आप आदेश

अर्जुन ने युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव तथा द्रौपदी को कहा कि,‘‘जब देवराज इंद्र ने मुझे ‘शत्रु दमन’ की उपाधि दी तो मैंने उनसे कहा, ‘‘आप आदेश करें यदि आपका कोई शत्रु हो तो मैं जाकर उसका दमन कर आऊं।’’


यह सुन कर देवराज इंद्र ने उत्तर दिया, ‘‘नवरातकोच नामक दानव मेरे शत्रु हैं। वे समुद्र में बहुत दूर बसे हुए टापुओं में रहते हैं। उन सबका बल और प्रभाव एक जैसा है। तुम उन्हें मेरे अधीन कर दो। बस तुम्हारी यह गुरु दक्षिणा लेकर ही मैं प्रसन्न हो जाऊंगा।’’

अर्जुन ने आगे बताया, ‘‘इसके बाद देवराज इंद्र ने मुझे कवच पहनाया, मेरे गांडीव धनुष पर अटूट डोरी बांधी और मुझे रत्नों से जड़ा हुआ एक सुंदर मुकुट पहनाकर अपने रथ में बिठा दिया। इस रथ को उनका निजी सारथी चला रहा था। सब देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करके मैंने देवराज के बताए हुए मार्ग से समुद्र की ओर प्रस्थान किया।’’

‘‘समुद्र तट पर पहुंच कर रथ रुक गया। वहां मुझे बहुत बड़ी नौका मिली। यह नौका भी देवताओं की थी। इसके सारे नाविक अस्त्र-शस्त्रों से लैस थे और उन्होंने कवच पहने हुए थे।’’


‘‘इसके बाद देवराज इंद्र के सारथी ने मुझसे कहा कि अब मैं रथ लेकर पास के नगर में तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा। जब तुम लौटोगे तब मैं तुम्हें फिर इंद्रलोक में ले जाऊंगा। देवराज ने मुझे ऐसी ही आज्ञा दी है। यह नौका भी देवराज की है। ये नाविक दूर-दूर के देशों में जाकर वहां से देवताओं के लिए यज्ञ भाग लाया करते थे। कुछ वर्षों से नवरातकोच नाम के शत्रु इन नाविकों पर भारी हो गए हैं और जब ये लोग इस मार्ग से नौका लेकर आते हैं तो वे इनसे यज्ञ भाग में लाई हुई सारी सामग्री, सोना-चांदी आदि छीन लेते हैं।’’                               

(क्रमश:)


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