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मुकद्दमों के फैसले में लगातार देरी पीड़ित को न्याय से वंचित करने के समान

Edited By ,Updated: 25 Jul, 2020 03:20 AM

continued delay in the decision of cases is like denying the victim justice

आज जबकि भारतीय लोकतंत्र के मुख्य स्तम्भों में से कार्यपालिका और विधायिका कमजोर होती जा रही हैं, मात्र न्यायपालिका और मीडिया ही विभिन्न मुद्दों पर जनता की आवाज सरकार तक पहुंचाने और उसे झिझोडऩे का काम कर रहे हैं, परन्तु न्यायालयों में बढ़ रहे लम्बित...

आज जबकि भारतीय लोकतंत्र के मुख्य स्तम्भों में से कार्यपालिका और विधायिका कमजोर होती जा रही हैं, मात्र न्यायपालिका और मीडिया ही विभिन्न मुद्दों पर जनता की आवाज सरकार तक पहुंचाने और उसे झिझोडऩे का काम कर रहे हैं, परन्तु न्यायालयों में बढ़ रहे लम्बित मामलों के चलते पीड़ितों को न्याय मिलने में असाधारण रूप से विलम्ब हो रहा है जो उन्हें न्याय से वंचित करने के समान ही है। न्याय में विलम्ब के इसी महीने के चंद उदाहरण निम्र में दर्ज हैं : 

* 18 जुलाई को कोयम्बटूर की निचली अदालत में 1955 से शुरू होकर सुप्रीमकोर्ट पहुंचे पारिवारिक वसीयत के विवाद संबंधी एक मामले में मद्रास हाईकोर्ट के फैसले के विरुद्ध दायर सभी अपीलों को खारिज करते हुए फैसला सुनाया गया। न्याय की यह प्रक्रिया 65 वर्षों में पूरी हुई।
* 19 जुलाई को सुप्रीमकोर्ट ने 20 वर्ष पूर्व ड्यूटी के दौरान ‘भारत कोकिंग कोल लिमिटेड’ के एक कर्मचारी के अपहरण और हत्या के मामले में सुनवाई पूरी करते हुए कम्पनी के प्रबंधकों को मृतक की विधवा को उक्त संस्थान में नौकरी तथा 2 लाख रुपए मुआवजा देने का आदेश दिया। 

* 22 जुलाई को मथुरा की जिला एवं सत्र न्यायाधीश साधना रानी ठाकुर ने राजस्थान की भरतपुर रियासत के राजा मान सिंह हत्याकांड में 35 वर्ष तक चली कानूनी लड़ाई के बाद उक्त हत्याकांड में संलिप्त सभी 11 अभियुक्तों को आजीवन कैद की सजा सुनाई।
* 22 जुलाई को ही दिल्ली में द्वारिका जिला अदालत के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश प्रीतम सिंह ने 12 वर्षीय एक नाबालिग का अपहरण कर उसे देह व्यापार में धकेलने और बार-बार बेचने से जुड़े मुकद्दमे में दोषी गीता अरोड़ा उर्फ सोनू पंजाबन व संदीप बेदवाल को क्रमश: 24 और 20 वर्ष कैद की सजा सुनाई। यह घटना 11 सितम्बर, 2009 को हुई थी तथा मुकद्दमा 5 वर्ष बाद 2014 में दर्ज हुआ और फैसला 6 वर्ष बाद 2020 में सुनाया गया। 

स्थिति की गंभीरता का अनुमान सुप्रीमकोर्ट की जस्टिस आर. बानुमति के बयान से ही लगाया जा सकता है जिन्होंने 17 जुलाई को सुप्रीमकोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित अपने विदाई समारोह में अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहा कि उनके पिता की एक बस दुर्घटना में मृत्यु के बाद उनका परिवार भी मुआवजा पाने के लिए न्यायिक देरी का शिकार हुआ था।

देश के लगभग सभी न्यायालयों में ऐसी ही स्थिति है जिसके परिणामस्वरूप कई बार न्याय मिलने से पूर्व ही पीड़ित पक्ष तथा दूसरे पक्ष के अनेक सदस्य इस संसार से विदा हो जाते हैं। अत: इस समस्या को दूर करने के लिए न्यायालयों का बुनियादी ढांचा मजबूत करने के अलावा न्यायालयों में रिक्त पड़े न्यायाधीशों के स्थानों को यथाशीघ्र भरना होगा और मान्य न्यायाधीशों को फैसले सुरक्षित रख कर लम्बे समय तक लटकाने की प्रवृत्ति का त्याग करना होगा।—विजय कुमार

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