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एक ऐसी जेल जहां से कैदी भागना नहीं चाहते

Edited By ,Updated: 27 Feb, 2020 04:10 AM

a prison from which prisoners do not want to run

इस जेल की तरफ संकरा रास्ता जाता है, जहां पर न तो गेट है, न गार्ड पोस्ट, न कंटीली तारें और न ही ऊंची दीवारें हैं। सुनने में यह सब अजीब लगता है मगर यह उम्रकैद झेल रहे कैदियों का घर है। महाराष्ट्र के सांगली जिले में अटपड्डी कस्बे में स्वतंत्रपुर एक...

इस जेल की तरफ संकरा रास्ता जाता है, जहां पर न तो गेट है, न गार्ड पोस्ट, न कंटीली तारें और न ही ऊंची दीवारें हैं। सुनने में यह सब अजीब लगता है मगर यह उम्रकैद झेल रहे कैदियों का घर है। महाराष्ट्र के सांगली जिले में अटपड्डी कस्बे में स्वतंत्रपुर एक खुली कालोनी है। यहां पर अपराधी अपने पारिवारिक सदस्यों संग रहते हैं। वे जेल के खेतों में फसलें उगाते हैं और यहां से रोजाना मार्कीट की ओर अपनी वस्तुओं को बेचने के लिए जाते हैं। यह मार्कीट बस स्टैंड से 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। कैदी कहीं भी जा सकते हैं मगर उन्हें सायं 7 बजे रोल काल के लिए जेल में लौटना होता है। कैदियों को जेल यूनिफार्म स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस पर ही पहननी पड़ती है। 

इस खुली जेल को 1937 में स्थापित किया गया था। इसकी स्थापना जेल तथा आपराधिक सुधारों के लिए शुरूआती दिनों में की गई थी। दिलचस्प बात यह है कि व्ही शांता राम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’(1957) के कुछ दृश्यों का फिल्मांकन यहां पर किया गया था। 83 सालों में यह जेल 61 एकड़ में फैल चुकी है और यहां पर सैंकड़ों कैदी रहते हैं। जेल के कमरों की दीवारें अच्छे से रंगी गई हैं। फर्श पर टाइलें लगी हैं और आधुनिक किचन स्थापित की गई है। पिछले वर्ष इसका पुरातन हिस्सा भारी बारिश के चलते गिर गया था। 

कैदियों का कहना है कि यहां पर रहने को सभी सुविधाएं तथा शांतमयी वातावरण है। रोशन हरिशचन्द्र नामक कैदी ने कत्ल के मामले में अपने 18 वर्ष यहां पर बिताए। उसने विवाद होने पर एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी। अच्छे व्यवहार के कारण उसे नागपुर सैंट्रल जेल से स्वतंत्रपुर शिफ्ट कर दिया गया था। उसका कहना है कि दिन की शुरूआत यहां पर पक्षियों के चहचहाने से होती है। उसके बाद वह कस्बे में चाय पीने के लिए जाता है। यहां का एक प्रमुख नियम है कि यदि आप भाग कर वापस लौट आओ तो आपकी जेल की अवधि कम हो जाती है। उसे 365 दिनों में 360 दिन काम करने का मेहनताना मिलता है, इसी कारण वह जेल से भागना नहीं चाहता। यहां के जेलर का कहना है कि व्यक्ति के इर्द-गिर्द मानसिक तारें लगाई गई हैं जिससे वह भागने की सोचता भी नहीं। वे अपने परिवारों के साथ रहते हैं तो यहां से कैसे भाग सकते हैं। दीवारें तो उनके दिमाग में चिनवाई गई हैं। 

1954 में एक व्यक्ति ने यहां से भागने की कोशिश की थी मगर वह कुछ ही दिनों में शर्म महसूस करते हुए वापस लौट आया। 63 वर्षीय पापा सैयद अली को 2009 में जेल हुई थी। उसे हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। यरवदा जेल में कई वर्ष बिताने के बाद वह सांगली की खुली जेल में आ गया। यहां पर वह अपनी पत्नी खैरुनिसा संग रहता है। उसे 2300 रुपए प्रतिमाह मेहनताना मिलता है। देश में जहां पर जेलों में भारी भीड़ है वहीं ऐसी खुली जेलें भीड़भाड़ को कम करने के लिए एक अच्छा समाधान तथा विकल्प हैं। तभी तो महाराष्ट्र सरकार यरवदा जेल के निकट एक ओपन कालोनी वाली जेल स्थापित कर रही है, जिसमें 100 कैदी रह सकेंगे। इसके लिए राज्य जेल विभाग ने पहले से ही 7 एकड़ भूमि आरक्षित कर रखी है।              

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