‘हम’ बदलेंगे, तभी बदल सकेगा देश

Edited By ,Updated: 20 Sep, 2019 12:48 AM

we  will change only then the country can change

हाल के दिनों में नया मोटर वाहन अधिनियम 2019 सार्वजनिक विमर्श में है। इस पर दो स्वर हैं। पहला, राजनीतिक, वैचारिक और व्यक्तिगत कारणों से इसके विरोध से संबंधित है। दूसरा, अधिनियम के पूर्ण समर्थन या फिर अधिनियम को आवश्यक मानते हुए भी कठोर प्रावधानों में...

हाल के दिनों में नया मोटर वाहन अधिनियम 2019 सार्वजनिक विमर्श में है। इस पर दो स्वर हैं। पहला, राजनीतिक, वैचारिक और व्यक्तिगत कारणों से इसके विरोध से संबंधित है। दूसरा, अधिनियम के पूर्ण समर्थन या फिर अधिनियम को आवश्यक मानते हुए भी कठोर प्रावधानों में संशोधन की मांग से जुड़ा है। किंतु इस बहस में जनता के प्रति शासन-व्यवस्था की जवाबदेही और राष्ट्र के प्रति नागरिकों के कत्र्तव्यों पर मुखर चर्चा का अभाव दिख रहा है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अत्यंत अनिवार्य है। 

संसद द्वारा पारित और एक सितम्बर से प्रभावी मोटर वाहन अधिनियम 2019, अपने जुर्माने की राशि के कारण देश में कौतूहल का विषय बन गया है। समाज के एक वर्ग का दावा है कि इससे लोगों को लाभ कम, नुक्सान अधिक हो रहा है। परिणामस्वरूप, अधिनियम की कठोर धाराओं के कारण विपक्षी दल ही नहीं, भाजपा शासित राज्यों की सरकारें भी इसे लागू करने से बच रही हैं या फिर उसमें राज्य स्तर पर संशोधन कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश,पंजाब, महाराष्ट्र, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, केरल, प. बंगाल, तेलंगाना जैसे राज्यों में यह कानून लागू नहीं हुआ है। जबकि दिल्ली, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, त्रिपुरा, बिहार, झारखंड, हरियाणा इत्यादि राज्यों में या तो अधिनियम लागू है या फिर येन-केन-प्रकारेण परिवर्तनों/शर्तों के साथ इसे क्रियान्वित करने की घोषणा की गई है। 

सच तो यह है कि ‘लोकलुभावन’ नीतियों को बढ़ावा देने में अव्वल राजनीतिज्ञ जुर्माने की राशि को लोगों पर बोझ बताकर न केवल जनता को भ्रमित कर रहे हैं, अपितु उन्हें यातायात नियमों का सख्ती से पालन करने के प्रतिकूल पुरानी व्यवस्था के अनुसार, परोक्ष रूप से नियमों को तोडऩे और उससे सस्ते में बचकर निकलने के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं। यदि किसी परिवार में कमाने वाले एकमात्र सदस्य की सड़क दुर्घटना में मौत हो जाती है, तो क्या शेष परिजन भावनात्मक रूप से टूटने के साथ गम्भीर वित्तीय संकट से नहीं घिर जाते हैं? जब पीड़ित परिवार इस प्रकार के मामलों के बाद आॢथक बोझ से दबने लगते हैं, तब क्या वे संबंधित ‘लोकलुभावन नीतियों’ से लाभान्वित होते हैं? शायद नहीं। 

जीवन बीमा तक नहीं
एक आंकड़े के अनुसार, 70 प्रतिशत से अधिक भारतीयों के पास आकस्मिक मृत्यु संबंधी बीमा तक नहीं है। भले ही मोदी सरकार द्वारा वर्ष 2015 से लागू प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के अंतर्गत 33 करोड़ भारतीयों का 12 रुपए प्रतिवर्ष पर 2 लाख रुपए का बीमा हो चुका है लेकिन क्या यह नए मोटर वाहन अधिनियम और उसके कठोर प्रावधानों को लागू करने से रोकने का उचित कारण हो सकता है? 

यह विकृत स्थिति तब है जब वाहनों के मामले में भारत की प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी दुनिया में केवल 2 प्रतिशत है, जबकि वह यातायात संबंधी हादसों में 12 प्रतिशत के साथ शीर्ष देशों में शामिल है। वर्ष 2016 में डेढ़ लाख से अधिक लोगों ने सड़क दुर्घटनाओं में अपनी जानें गंवाई थीं, जिसमें 72 प्रतिशत मृतक 18-45 आयु वर्ग के थे। इन हादसों का नुक्सान संबंधित पीड़ित परिवार तो झेलता ही है, साथ ही देश की आॢथकी भी इससे प्रभावित होती है। संयुक्त राष्ट्र के एशिया और प्रशांत आर्थिक एवं सामाजिक आयोग (यू.एन.एस्केप) ने वर्ष 2016 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार-सड़क दुर्घटनाओं के कारण भारत को प्रतिवर्ष 58 अरब डॉलर अर्थात सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का 3 प्रतिशत नुक्सान उठाना पड़ता है। इस मामले में भारत केवल जापान से पीछे है,  जिसे सालाना 63 अरब डॉलर की क्षति होती है। 

सच तो यह है कि हमारे देश में ऐसे ‘महानुभावों’ की कोई कमी नहीं है, जो न तो किसी यातायात कानून/नियम को मानते हैं और न ही इसे तोडऩे व इसके गंभीर परिणाम भुगतने से डरते हैं। गत माह दिल्ली स्थित बारापुला फ्लाईओवर पर स्कूटर सवार व्यक्ति इसलिए दुर्घटना का शिकार हो गया, क्योंकि वह नियमों के प्रतिकूल उल्टी दिशा में तेज रफ्तार से अपना वाहन ले जा रहा था। यह कोई अपवाद नहीं है। वर्ष 2018 में हैल्मेट के बिना दोपहिया वाहन चला रहे 43,600 चालकों की सड़क हादसों में मौत हो गई थी। इसमें अकेले उत्तर प्रदेश  के लगभग 6,000 मामले शामिल हैं। उसी अवधि में दोपहिया वाहनों में पीछे की सीट पर बिना हैल्मेट के बैठे 15,000 से अधिक लोग भी सड़क हादसों में मारे गए थे। इसी तरह,  चौपहिया वाहनों में सीट बैल्ट नहीं पहनने के कारण वर्ष 2018 में 24,000 से अधिक चालकों की मौत हो गई थी। 

देश के अधिकतर युवाओं की पहली पसंद दोपहिया वाहन, विशेषकर मोटरबाइक है, जो तुलनात्मक रूप से सस्ता निजी परिवहन होने के साथ आकर्षक भी होता है। किंतु ऐसे ही वाहन सड़क दुर्घटनाओं में सर्वाधिक 34 प्रतिशत हादसे के शिकार होते हैं, जिनमें 30 प्रतिशत चालकों की अक्सर मौत हो जाती है। हल्के वाहनों में छोटी कार, जीप और टैक्सियों की सड़क दुर्घटनाओं में हिस्सेदारी 24.5 प्रतिशत है, जिसमें चालकों की मृत्यु दर 21 प्रतिशत है। 

शेष विश्व की भांति भारत में भी मोटरवाहन चलाने हेतु लाइसैंस अनिवार्य है। देश में इसके लिए मुख्यत: दो परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। किंतु अधिकतर अप्रशिक्षित आवेदक घूस देकर एजैंट/दलाल और भ्रष्ट विभागीय अधिकारियों के माध्यम से बिना किसी परीक्षण के लाइसैंस प्राप्त कर लेते हैं, जो सड़क पर किसी यमदूत से कम नहीं होते हैं। स्पष्ट है कि आवश्यक प्रशिक्षण के साथ सीट बैल्ट और हैल्मेट इत्यादि सुरक्षात्मक चीजों का उपयोग करने से सड़क पर होने वाली दुर्भाग्यपूर्ण मौतों को कम किया जा सकता है। 

सख्त नियम व भारी जुर्माने
इस पृष्ठभूमि में यक्ष प्रश्न है कि क्या सख्त नियमों और उसके उल्लंघन पर भारी जुर्माना लगाने से व्यापक परिवर्तन संभव है? शायद कुछ सीमा तक, परंतु पूरी तरह नहीं। यह कटु सत्य है कि स्थानीय प्रशासन के भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता और लापरवाही के गर्भ से जनित ‘पोटहोल्स’ (सड़क के गड्ढे) भी देश में हजारों जानें लील चुके हैं। अकेले वर्ष 2015-17 में सड़कों पर गड्ढे होने से हुई दुर्घटनाओं में लगभग 10,000 लोगों की मौत हो गई थी, जबकि 25,000 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। बरसात के समय सड़क पर खुले सीवरेज मैनहोल इस स्थिति को और अधिक भयावह बना देते हैं। यही नहीं, सड़क के किनारे और पैदलपथ पर भी भ्रष्टाचार की कोख से निकले अतिक्रमण और अवैध पार्किंग-यातायात संबंधी समस्या को जटिल बनाने में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। 

सड़कों पर घूमते आवारा पशु भी यातायात व्यवस्था के लिए चुनौती बने हुए हैं। इसके भी दो कारण हैं। पहला, शासन व्यवस्था इस संबंध में आवश्यक निर्णय लेने से बचती है और यदि वह कोई कदम उठाना भी चाहे, तो तथाकथित पशु अधिकार संगठन बिना किसी वैकल्पिक उपाय के अवरोधक बन जाते हैं। दूसरा, हममें से अधिकांश लोगों को अपने घरों का कचरा (निचली स्तर की पॉलीथिन सहित) सड़कों, नालियों, नदियों, उद्यानों और पर्यटक स्थलों पर फैंकने में ‘विशेष दक्षता’ प्राप्त है।

एक तो स्थानीय प्रशासन अधिकतर सड़क के किनारों पर कूड़ेदान की समुचित व्यवस्था नहीं करता है और यदि कहीं ऐसी व्यवस्था प्रकट हो भी जाए, तब भी समाज के अधिकतर ‘जिम्मेदार नागरिक’ इधर-उधर कचरा फैंकने के चिर-परिचित स्वभाव से बाज नहीं आते हैं। परिणामस्वरूप, भोजन की तलाश में भटक रहे बेसहारा गौवंश (गाय सहित), श्वान, बिल्ली, बंदर जैसे पशु सड़कों या पैदलपथ पर जमा कूड़े के ढेर तक पहुंच जाते हैं, जिससे सड़क पर दुर्घटना का खतरा बना रहता है। केन्द्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के अनुसार, अकेले पंजाब में ही वर्ष 2016 में आवारा पशुओं के कारण सड़क दुर्घटनाओं में 38 प्रतिशत की बढ़ौतरी हो गई थी। 

यातायात संबंधी व्यापक आंदोलन की जरूरत
सड़क यातायात उल्लंघन पर भारी जुर्माना लगाने से आमूलचूल परिवर्तन की कल्पना दिव्य स्वप्न है। आवश्यकता है कि राजग-3 सरकार देश में स्वच्छ भारत अभियान की भांति यातायात से संबंधित कोई व्यापक आंदोलन चलाए, जिसमें सरकार के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राजनीतिक दलों, आम नागरिकों और मान्यता प्राप्त सामाजिक संगठनों की समान भागीदारी हो। 

यह कितना हास्यास्पद है कि जो भारतीय अपने देश में कानून/नियमों को तोडऩे और गंदगी फैलाने में हिचकते नहीं हैं, वे अक्सर विदेशों में साफ-सफाई और यातायात नियमों के सबसे बड़े प्रशंसक होते हैं। यह सत्य है कि हममें से अधिकतर लोग, वे चाहे आम नागरिक हों या फिर सरकार में बैठा अधिकारी और कर्मचारी, वर्तमान स्थिति से दुखी हैं और उन्नति के लिए बदलाव चाहते हैं। परंतु उन्हीं में से अधिकांश लोग स्वयं में और अपनी आदतों में बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में क्या यह संभव है कि हम (देश के सभी नागरिक) बदलें नहीं और देश एकाएक बदल जाए? नहीं। मैं आशा करता हूं कि पाठक इस बारे में सोचेंगे।-बलबीर पुंज
 

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