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लोकप्रियता में सबसे आगे तेजस्वी, फिर बाधा क्या?

Edited By ,Updated: 20 Jun, 2025 05:50 AM

tejasvi is at the forefront of popularity then what is the obstacle

बिहार में नेताओं की एक नई पीढ़ी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का विकल्प बन कर खड़ी हो रही है। राज्य की राजनीति पर करीब 4 दशकों से लालू और नीतीश का दबदबा रहा है। नब्बे के दशक में पिछड़ों के लिए आरक्षण की आंधी में लालू मुख्यमंत्री बने और करीब 15...

बिहार में नेताओं की एक नई पीढ़ी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का विकल्प बन कर खड़ी हो रही है। राज्य की राजनीति पर करीब 4 दशकों से लालू और नीतीश का दबदबा रहा है। नब्बे के दशक में पिछड़ों के लिए आरक्षण की आंधी में लालू मुख्यमंत्री बने और करीब 15 सालों तक सत्ता में रहे। इस दौर में पिछड़ों, खासतौर से अपने ही समुदाय में उनकी लोकप्रियता उफान पर रही, पर बाद के दौर में बढ़ते अपराध, अपहरण के बाद उनके हिस्से में जंगलराज के अगुवा का खिताब भी आया। नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर जंगलराज की ध्वनि और तेज की जिससे सत्ता उनके हाथ आ गई। 2005 में  लालू विरोध के साथ  अति पिछड़ा और अति दलित का झंडा उठाकर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे और लगभग अब तक बने हुए हैं। उधर चारा घोटाला में सजा के चलते लालू सत्ता की कुर्सी का सपना देखते रह गए, लेकिन विरासत 10 साल पहले  छोटे बेटे तेजस्वी यादव को सौंप दी।

अब नीतीश के चेहरे पर भी उम्र की समस्याएं दिखाई दे रही हैं। उनके बेटे निशांत कुमार अब तक राजनीति में नहीं आए हैं। शुरू में नीतीश ने उनको आगे नहीं बढ़ाया और बाद में इसके हालात नहीं बने। यही वजह है कि  उनकी पार्टी जद-यू में भविष्य को लेकर असमंजस की स्थिति है। क्षेत्रीय दलों में जद-यू संभवत: अकेली पार्टी होगी जिसका वारिस जब भी होगा तो बाहर से होगा। उत्तर से लेकर दक्षिण तक बाप- बेटे, बिटिया के हाथ सत्ता का समीकरण चलता रहता है। अब फिर अक्तूबर-नवम्बर की चुनावी आहट के आने के साथ ही गर्मी की लू में भी नेताओं को दिक्कत नहीं हो रही है। हां, नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को लेकर जरूर असमंजस की स्थिति है।  विधानसभा चुनावों के बाद उनकी विदाई की खबरें तेजी से चल रही हैं। नई पीढ़ी के 4-5 नेता अब उनका विकल्प बनने की तैयारी में लगे हैं। जाहिर है उनमें सबसे आगे लालू के बेटे तेजस्वी यादव हैं, जिन्हें लालू ने अपनी विरासत 2015 में ही सौंप दी थी। बीच में जब  नीतीश कुमार ने पाला बदला था तो तेजस्वी उनके साथ उपमुख्यमंत्री बन गए थे। अब विपक्ष के नेता हैं। 

चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर अपनी अलग पार्टी बनाकर लालू-नीतीश का विकल्प बनने की जंग में शिद्दत से जुटे हैं। दिक्कत सबसे बड़ी भाजपा की है। राज्य में कोई भी नेता नेतृत्व की भूमिका को लेकर तैयार नहीं हो पाया है। सुशील कुमार मोदी के निधन के बाद तो कोई एकमत नाम नहीं सामने आ पाया है। मजबूरन जद-यू,राजद पाॢटयों से होते हुए 2017 में भाजपा में आए  सम्राट चौधरी उनके नेता हैं और फिलहाल उपमुख्यमंत्री भी हैं। सम्राट,पूर्व समाजवादी नेता और एक समय लालू और नीतीश के सहयोगी और पिछड़ों के बड़े नेता शकुनी चौधरी के बेटे हैं।  कांग्रेस ने जे.एन.यू. के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार को आगे किया है। राहुल गांधी उनके लिए समर्थन में भी जबरदस्त तरीके से लगे हैं लेकिन उनकी अपनी अलग दिक्कतें हैं। पिछड़ों की राजनीति के सिरमौर बिहार में वह सवर्ण भूमिहार जाति से आते हैं और दो बार लोकसभा का चुनाव हार भी चुके हैं। राहुल ने वहां दलितों का वोट बैंक अपने पास रखने के लिए राज्य कांग्रेस का नेतृत्व राजेश कुमार नाम के विधायक को दे रखा है। 

तेजस्वी-चिराग की चुनौती: इन चार युवाओं मेें ही बिहार का भविष्य छिपा है। लेकिन सबसे बड़ी दुविधा तेजस्वी और चिराग की है। हाल ही में बिहार के नेताओं की लोकप्रियता को लेकर सी वोटर्स ने एक सर्वे किया था। इस सर्वे के मुताबिक मुख्यमंत्री के लिए 36.9 प्रतिशत लोगों ने तेजस्वी यादव को पसंद किया। प्रशांत किशोर 16.4, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 18.4, उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी 6.6 और चिराग पासवान सिर्फ 10. 6 फीसदी लोगों की पसंद हैं। सर्वे में शामिल आधे से ज्यादा लोगों ने सरकार से नाखुशी जाहिर की और चुनावों के बाद बदलाव की इच्छा जाहिर की। सी वोटर के मुखिया यशवंत देशमुख ने इस सर्वे के बाद टिप्पणी की कि ये लोगों की इस वक्त की इच्छा है लेकिन ये वोट में बदल जाएं, यह जरूरी नहीं है। इसी सर्वे में बहुत कुछ कहानी है। 36.9 प्रतिशत लोग अगर तेजस्वी को पसंद कर रहे हैं तो सामान्य तौर पर उनके सत्ता में आने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। तय  है कि इसका बड़ा हिस्सा उनके मुस्लिम - यादव समीकरण से आता है। अगर दो गठबंधनों में भी मुकाबला होता है तो 42.43 प्रतिशत वोट पर सत्ता आ जाती है। लेकिन यहां इतनी लोकप्रियता के बाद भी तेजस्वी बहुत भरोसे में नहीं हैं कि सत्ता उनके ही पास आएगी। 

इसके पीछे कई और कारण हैं। दो सीधे गठबंधन के चुनाव में तीसरा गुट बनने की कोशिश में चल रहे प्रशांत कुमार भी हैं जो मुसलमानों का बड़ा वोट बैंक खींच ले जा सकते हैं। यही प्रशांत कुमार एन.डी.ए. गठबंधन के लिए भी सिरदर्द हैं। सवर्ण वोट बैंक भाजपा के साथ पिछले लगभग 20 साल तक जुड़ा रहा है, तो सत्ता से नाराजगी भी स्वाभाविक है। खास तौर युवाओं में। यही नाराजगी एन.डी.ए. का वोट कम कर सकती है। दूसरी तरफ  चिराग एन.डी.ए. का नेतृत्व संभालना चाहते हैं पर भाजपा खुलकर कुछ नहीं कह रही है।  चिराग की इस सर्वे में लोकप्रियता सिर्फ  10.6 प्रतिशत है यानी उन्हीं का परम्परागत वोट बैंक 6 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा।

चुनाव के नतीजे आखिरी समय की बहुत सी परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं। लेकिन इतना तो साफ है कि तेजस्वी और चिराग के लिए नीतीश का विकल्प बनना आसान नहीं है। ऐसी स्थिति में तय है कि कुछ समीकरण और बनने हैं। तेजस्वी के साथ कौन आएगा? प्रशांत किसको कितना बड़ा नुकसान पहुंचाएंगे? और जीत के रथ पर सवार भाजपा के लिए नरेंद्र मोदी का करिश्मा कितना आगे तक जाएगा? लेकिन तेजस्वी और चिराग की भूमिका पर नजर रखना बड़ा रोचक होगा।-शैलेश कुमार

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