कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है

Edited By ,Updated: 29 Mar, 2023 05:01 AM

there s something to blame

दो साल या उससे ज्यादा की सजा मिलने पर संसद की सदस्यता जाने का राहुल गांधी का 2013 के नए फैसले के बाद 33वां मामला है। मोदी सरकार के आने के बाद 22 सांसदों की सदस्यता जा चुकी है।

दो साल या उससे ज्यादा की सजा मिलने पर संसद की सदस्यता जाने का राहुल गांधी का 2013 के नए फैसले के बाद 33वां मामला है। मोदी सरकार के आने के बाद 22 सांसदों की सदस्यता जा चुकी है। एसोसिएशन फॉर डैमोक्रेटिक रिफार्म के अनुसार मौजूदा लोकसभा में भाजपा के 303 सांसदों में से 116 पर ऐसे आपराधिक मामले दर्ज हैं जिन पर उन्हें दो साल या उससे ज्यादा की सजा दोषी पाए जाने पर हो सकती है। इसी तरह कांग्रेस के 29 सांसदों पर भी ऐसे ही आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से ज्यादातर मामले आपराधिक मानहानि के मामले से ज्यादा कहीं ज्यादा गंभीर हैं।

अब कहा जा रहा है कि 2013 में राहुल गांधी अध्यादेश नहीं फाड़ते तो आज लोकसभा में बरकरार रहते। उस समय के कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने यह बात दोहराई भी है। दरअसल 2013 में केरल के लिली थॉमस लोकप्रहरी मामले में सुप्रीमकोर्ट ने फैसला दिया था कि अदालत से दो साल या ज्यादा की सजा मिलने के साथ ही सदस्यता चली जाएगी। बाद में अगर सजा के फैसले पर स्टे मिल जाता है तो सदस्यता बहाल हो जाएगी। नहीं तो छह साल तक चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। 

इस फैसले से सांसदों विधायकों को कुछ राहत देने के लिए मनमोहन सिंह सरकार अध्यादेश लेकर आई जिसे भाजपा का भी समर्थन मिला था। उसमें कहा गया कि दो साल या ज्यादा की सजा मिलने पर अगर 90 दिन के अंदर दोषी सांसद-विधायक की अपील अगर ऊपरी अदालत में सुनवाई के लिए मंजूर हो जाती है और सजा के फैसले पर रोक लग जाती है तब तक सांसद विधायक संसद में बैठ सकेंगे। अलबत्ता उन्हें तनख्वाह नहीं मिलेगी और उन्हें संसद के अंदर वोट डालने का अधिकार नहीं मिलेगा। कुल मिलाकर बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की थी जो राहुल गांधी को मंजूर नहीं थी। बड़ी बात है कि राहुल गांधी को अध्यादेश फाडऩे का कोई पछतावा नहीं है और वह सजा भुगतने को तैयार दिखते हैं। 

यहां तक कि उन्होंने बड़े गर्व के साथ ट्विटर अकाऊंट में निष्कासित सांसद के रूप में अपना नया परिचय दिया है। साफ है कि राहुल गांधी पीड़ित कार्ड खेल रहे हैं, सत्ता पक्ष को आगाह कर रहे हैं कि वह डरने वाले नहीं हैं और साथ ही साथ जनता की अदालत में अपना मुकद्दमा रख रहे हैं कि देखिए मुझे डिसक्वालीफाई कर दिया गया है और आप ही तय कीजिए क्या यह सही है। क्या अडानी कांड पर सवाल पूछने की सजा दी गई है। क्या अडानी और मोदी के रिश्तों पर सवाल पूछना गुनाह है। मोदी सरकार आखिर जांच कराने से क्यों कतरा रही है। मोदी जी क्या छुपा रहे हैं। 

इसी के साथ सवाल उठता है कि क्या अडानी कांड 2024 के चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बनेगा। क्या चुनाव मोदी बनाम राहुल होगा। इसकी पहली परीक्षा कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हो सकती है लेकिन पहले कपिल सिब्बल की बात पूरी कर ली जाए। उनका कहना है कि छोटे-छोटे मामलों में भी दो साल की अधिकतम सजा का प्रावधान है और राजनीति का अपराधीकरण गंभीर सजा वालों को संसद से दूर रखने पर ही हो सकेगा लिहाजा दो साल की जगह 7 साल से ज्यादा की सजा पर सदस्यता जाने का नया नियम बनाया जाना चाहिए। पहली नजर में देखा जाए तो इसमें दम नजर आता है। वैसे भी दुनिया के बहुत से देशों में मानहानि के मामलों में फौजदारी मुकद्दमा नहीं होता। दीवानी मुकद्दमा ही दायर किया जाता है जिसमें मुआवजे पर ज्यादा जोर होता है। सोशल मीडिया पर पक्ष विपक्ष के नेताओं के पुराने बयान सुनाए दिखाए जा रहे हैं जिनके सामने राहुल गांधी का बयान बड़ा ही मासूम नजर आता है। 

शायद यही वजह है कि राहुल गांधी ने माफी मांगने से इंकार किया और लोकसभा की सदस्यता जाने पर रोना धोना नहीं मचाया। वह जानते हैं कि देर सवेर अदालत से राहत पा ही जाएंगे और यह मौका तो इसका चुनावी लाभ उठाने का है। यहीं आकर लगता है कि भाजपा ने क्या कोई गलती कर दी है।  अब तक जो लोग राहुल गांधी के अडानी कांड पर पूछे गए सवालों को गंभीरता से नहीं ले रहे थे तो क्या यह लोग भी अब समझने लगे हैं कि हो न हो कुछ तो बात है कि सरकार बात नहीं कर रही है। ‘‘बेखुदी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।’’ 

राहुल भी जानते हैं कि भ्रष्टाचार के आरोपों में एक संख्या विशेष का महत्व होता है। जैसे 64 करोड़ का बोफोर्स घोटाला, एक लाख 76 हजार करोड़ का टू जी घोटाला, एक लाख 86 हजार करोड़ का कोलगेट घोटाला। उसी तरह वह बीस हजार करोड़ का फर्जी कम्पनियों के पैसों के अडानी कांड की बात करने लगे हैं। राहुल गांधी के लिए राहत की बात है कि विपक्ष इसे समझ रहा है। उद्धव ठाकरे ने बीस हजार करोड़ का जिक्र अपनी नासिक रैली में किया लेकिन राहुल गांधी को विपक्षी दलों की राज्यवार मजबूरियों को भी समझना होगा। उद्धव ठाकरे ने नासिक में ही राहुल को चेता दिया कि वीर सावरकर का अपमान सहन नहीं किया जाएगा और ऐसा करने पर विपक्षी एकता मेंं दरारें आ सकती हैं। 

अखिलेश यादव ने राहुल को सजा और अयोग्य ठहराए जाने की जल्दबाजी की आलोचना करने के दूसरे ही दिन फिर संकेत दे दिए कि रायबरेली और अमेठी में भाजपा को हराना उनका मकसद है और इसके लिए खुद के उम्मीदवार खड़े किए जा सकते हैं क्योंकि वह ही भाजपा को हराने की क्षमता रखते हैं। साफ है कि दोनों नेता साफ संकेत दे रहे हैं कि राज्यों में मजबूत दल को अपने हिसाब से चुनाव लडऩे दिया जाए और कांग्रेस राष्ट्रीय दल की धौंस नहीं दिखाए। खरगे जैसे नेताओं की समझ ज्यादा परिपक्व नजर आती है जिन्होंने सौ बार विपक्ष का शुक्रिया अदा किया। कुल मिलाकर कर्नाटक चुनाव इस हिसाब से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।-विजय विद्रोही
 

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