Story of Raja dashrath: महाराज दशरथ जिनकी सहायता देवता भी चाहते थे, पढ़ें पौराणिक कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 27 Mar, 2024 08:51 AM

story of raja dashrath

स्वयंभुव मनु के अवतार अयोध्या नरेश महाराज दशरथ ने पूर्वकाल में कठोर तपस्या से भगवान श्रीराम को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया था। वह परम तेजस्वी, वेदों के ज्ञाता, विशाल सेना के स्वामी, प्रजा का पुत्र के समान पालन करने वाले तथा...

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Raja dashrath ki katha: स्वयंभुव मनु के अवतार अयोध्या नरेश महाराज दशरथ ने पूर्वकाल में कठोर तपस्या से भगवान श्रीराम को पुत्र रूप में प्राप्त करने का वरदान प्राप्त किया था। वह परम तेजस्वी, वेदों के ज्ञाता, विशाल सेना के स्वामी, प्रजा का पुत्र के समान पालन करने वाले तथा सत्यप्रतिज्ञ थे। इनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से धर्मरत तथा धन-धान्य से संपन्न थी। देवता भी महाराज दशरथ की सहायता चाहते थे। देवासुर संग्राम में इन्होंने दैत्यों को पराजित किया था। इन्होंने अपने जीवन काल में अनेक यज्ञ भी किए। महाराज दशरथ की वृद्धावस्था आ गई, परन्तु इनको कोई पुत्र नहीं हुआ तो इन्होंने अपनी इस समस्या से गुरुदेव वशिष्ठ को अवगत कराया।

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गुरु की आज्ञा से ऋष्यशृंग बुलाए गए और उनके आचार्यत्व में पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन हुआ। यज्ञ पुरुष ने स्वयं प्रकट होकर खीर से भरा एक पात्र महाराज दशरथ को देते हुए कहा, ‘‘राजन! यह खीर अत्यंत श्रेष्ठ, आरोग्यवद्र्धक तथा पुत्रों को उत्पन्न करने वाली है। इसे तुम अपनी रानियों को खिला दो।’’

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महाराज दशरथ ने वह खीर कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा में बांट कर दे दी। समय आने पर कौशल्या के गर्भ से सनातन पुरुष भगवान श्रीराम का अवतार हुआ। कैकेयी ने भरत और सुमित्रा ने लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न को जन्म दिया। चारों भाई माता-पिता के लाड़-प्यार में बड़े हुए। यद्यपि महाराज को चारों ही पुत्र प्रिय थे, परन्तु श्रीराम पर इनका विशेष स्नेह था। वह श्रीराम को क्षण भर के लिए भी अपनी आंखों से ओझल नहीं करना चाहते थे।

जब विश्वामित्र जी यज्ञ की रक्षार्थ श्री राम-लक्ष्मण को मांगने आए तो वशिष्ठ जी के समझाने पर वह बड़ी कठिनाई से उन्हें भेजने के लिए तैयार हुए। अपनी वृद्धावस्था को देख कर महाराज दशरथ ने श्रीराम को युवराज बनाना चाहा। मंथरा की सलाह से कैकेयी ने अपने पुराने दो वरदान महाराज से मांगे- एक में भरत को राज्य और दूसरे में श्रीराम के लिए चौदह वर्षों का वनवास।

कैकेयी की बात सुनकर महाराज दशरथ स्तब्ध रह गए। थोड़ी देर के लिए तो इनकी चेतना ही लुप्त हो गई। होश आने पर इन्होंने कैकेयी को समझाया और कैकेयी से कहा, ‘‘भरत को तो मैं अभी बुलाकर राज्य दे देता हूं, परन्तु तुम राम को वन भेजने का आग्रह मत करो।’’

विधि के विधान एवं भाग्य की प्रबलता के कारण महाराज के विनय का कैकेयी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भगवान श्रीराम पिता के सत्य की रक्षा और आज्ञा पालन के लिए अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ वन चले गए। महाराज दशरथ के शोक का ठिकाना न रहा। जब तक श्रीराम रहे, तभी तक इन्होंने अपने प्राणों को रखा और उनका वियोग होते ही अपने प्राणों की आहुति दे डाली।

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जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु संवारा॥ (मानस 2/155/2)

महाराज दशरथ के जीवन के साथ उनकी मृत्यु भी सुधर गई। श्रीराम के वियोग में अपने प्राण देकर इन्होंने प्रेम का एक अनोखा आदर्श स्थापित किया। महाराज दशरथ के समान भाग्यशाली और कौन होगा, जिन्होंने अपने अंत समय में राम-राम पुकारते हुए अपने प्राणों का विसर्जन किया।

 

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