‘विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को बचाने का प्रयास हो

Edited By ,Updated: 25 Jan, 2021 03:44 AM

try to save  freedom of expression of ideas

18वीं सदी के प्रसिद्ध ब्रिटिश कवि पर्सी बी. शेली ने अपनी एक कविता में कहा था ‘Our sweetest songs are those that tell of saddest thought’। इसी पंक्ति को प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र ने कुछ इस प्रकार कहा था, ‘‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें

18वीं सदी के प्रसिद्ध ब्रिटिश कवि पर्सी बी. शेली ने अपनी एक कविता में कहा था ‘Our sweetest songs are those that tell of saddest thought’। इसी पंक्ति को प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र ने कुछ इस प्रकार कहा था, ‘‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं।’’ 

यह संभवत: किसी कलाकृति को लिखने या बनाने से पहले एक कलाकार या लेखक के आंतरिक दर्द की बात है परंतु उस दर्द का क्या जो एक कलाकृति की रचना करनेे के बाद किसी कलाकार को दिया जाए! इसलिए नहीं कि उसे अपने खराब काम के कारण असफलता का सामना करना पड़ रहा हो बल्कि इसलिए कि उसने कुछ नया बनाया, अच्छा बनाया। शायद यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के शीर्षक के अंतर्गत आएगा जब उसे यह बताया जाए कि ‘‘अपनी पुस्तक प्रकाशित मत करो या हम इसे जला देंगे। अपने चित्रों को प्रदर्शित न करें, नहीं तो हम आपकी प्रदर्शनी को नष्ट कर देंगे।’’ 

या फिल्म निर्माताओं से कहा जाए कि ‘‘इस दृश्य में संवाद बदलें और अगले दृश्य को काट दें या हम आपकी फिल्म को प्रदर्शित नहीं होने देंगे और यदि आप इसे दिखाते हैं तो हम सिनेमा हॉल पर हमला करेंगे।’’ या वर्तमान परिस्थितियों में अगर किसी फिल्म या टी.वी. धारावाहिक को ऑनलाइन पोर्टल्स पर स्ट्रीम किया जा रहा है, जिस तरह की आलोचनाओं का ‘नैटफ्लिक्स’ पर प्रदर्शित ‘ए सूटेबल ब्वॉय’ को सामना करना पड़ा जो लगभग 28 वर्ष पहले लिखित पुस्तक पर आधारित एक शो है। इन तमाम आलोचनाओं का ‘संदेश’ एक ही है, ‘‘हमारी भावनाओं को आहत करने के लिए कुछ भी न करें।’’ दूसरे शब्दों में, आपका जीवन और आपकी कला इसलिए सुरक्षित नहीं है क्योंकि वह हमें पसन्द नहीं है या हमारे पूर्वज्ञान, समझ अथवा विचार के अनुरूप नहीं है लेकिन रचनात्मक कल्पना राजनीति से या भीड़ से आदेश नहीं ले सकती। 

इसका एक उदाहरण हाल ही में ‘एमेजॉन प्राइम’ पर प्रदर्शित विशुद्ध रूप से काल्पनिक ‘तांडव’ नामक एक शो है जो वर्तमान राजनीतिक स्थितियों पर एक ऐतिहासिक या वृत्तचित्र होने का दावा तो नहीं करता परंतु तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में राजनीतिक विरोध और पुलिस कार्रवाई में घिर गया है तथा कथित रूप से हिन्दू भावनाओं को आहत करने के चलते ‘एमेजॉन प्राइम वीडियो’ के निर्माताओं के विरुद्ध एक एफ.आई.आर. भी दर्ज की गई है। किसी भी कलाकृति को नापसंद करना या उसके विरोध में सख्त नाराजगी या नापसंदी व्यक्त करना एक सामान्य बात है परन्तु इस कारण सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुंचाना या भड़काऊ भाषण देना आलोचना करने का एक सभ्य तरीका नहीं है, । 

ऐसे में यह देखना होगा कि कैसे ‘द स्टेट ऑफ आर्टिस्टिक फ्रीडम स्टडी’ के अनुसार भारत ने 2017 में सबसे अधिक फिल्मों को सैंसर करने वाले देशों की सूची में सबसे ऊपर पर रहने के लिए तुर्की, चीन, लेबनान, फ्रांस और अपने पड़ोसी पाकिस्तान को पीछे छोड़ दिया! स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय अभिव्यक्ति की वकालत करने वाले ‘फ्रीम्यूज’ नामक एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन ने एक अध्ययन में पाया है कि भारत में कला की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता काफी हद तक संकुचित हो गई है। इसके अनुसार, 2017 में फिल्म सैंसरशिप के 20 प्रतिशत मामले भारत से आए, 17 प्रतिशत मामलों के साथ संयुक्त अरब अमीरात दूसरे स्थान पर और तुर्की 9 प्रतिशत मामलों के साथ तीसरे स्थान पर था। ऐसे में वर्ष 2020 में आई रिपोर्ट के अनुसार भी भारत सातवें स्थान पर था फिर भी यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। 

19वीं सदी के सबसे प्रभावशाली दार्शनिकों और बुद्धिजीवियों में से एक ‘जॉन स्टुअर्ट मिल’ ने पहली बार और शायद अभी भी सबसे कुशल तरीके से ‘उदारवादी मुक्त भाषण और विचार’ की रक्षा की है। अपनी महान पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ में वह लिखते हैं :

‘‘भाषण की व्यापक स्वतंत्रता न केवल व्यक्तिगत खुशी के लिए बल्कि एक समृद्ध समाज के लिए एक पूर्व शर्त है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति के बिना मानव जाति को उन विचारों से वंचित रहना पड़ता है जिन्होंने इसके विकास में योगदान दिया होगा।’’ दूर क्या जाना, भारत में सद्गुरू कबीर और गोस्वामी तुलसी दास जी की वाणी में जो खुलापन, नयापन और तर्कशीलता पाई जाती है, वे यदि इस सदी में लिखते तो लिख न पाते। ‘कंकर-पाथर जोडि़ के मस्जिद लियो बनाय’ जैसे दोहे या फिर ‘पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़’... जैसे दोहे यकीनन किसी न किसी के धार्मिक विचारों को आहत कर जाते। 

निश्चित रूप से संविधान का अनुच्छेद 19 हमें बोलने की स्वतंत्रता देता है परंतु भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 का खंड (2) विधायिकाओं को निम्नलिखित शीर्षकों के तहत मुक्त भाषण पर कुछ प्रतिबंध लगाने में सक्षम भी करता है। जैसे कि देश की सुरक्षा, विदेशी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता, अदालत का अपमान, मानहानि आदि परंतु इन अधिनियमों को पुन: परिभाषित और स्पष्ट करने का समय आ गया है।

18वीं सदी के फ्रांस के बौद्धिक जागरण युग के महान लेखक, नाटककार और दार्शनिक वाल्टेयर ने कहा था, ‘‘आप जो कहते हैं, मैं उससे सहमत नहीं हो सकता लेकिन मैं इसे कहने के आपके अधिकार की रक्षा करूंगा।’’ शायद यही वह एक आधार है जिस पर पुलिस, सरकार और जनता को ध्यान देने की आवश्यकता है।

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