जीवन मिलता है केवल एक बार

Edited By ,Updated: 04 Feb, 2023 04:24 AM

life comes only once

अनंत काल से अर्थात् सृष्टि निर्माण तथा आदमी और औरत द्वारा संसार की रचना प्रक्रिया को शुरू करने से लेकर आज तक इस बात का निर्णय नहीं हो पाया है कि दोनों में कौन बड़ा, अधिक शक्तिशाली, ज्यादा समर्थ और समझदार है।

अनंत काल से अर्थात् सृष्टि निर्माण तथा आदमी और औरत द्वारा संसार की रचना प्रक्रिया को शुरू करने से लेकर आज तक इस बात का निर्णय नहीं हो पाया है कि दोनों में कौन बड़ा, अधिक शक्तिशाली, ज्यादा समर्थ और समझदार है। इसी के साथ यह भी तय नहीं हो सका है कि इनके बीच होने वाले संघर्ष, आपसी तनाव अथवा अटूट प्रेम या संबंध की बुनियाद क्या है? 

सोच का दायरा : दर्शन, व्यवहार, मनोविज्ञान और सांसारिक नजरिए से देखा जाए तो दोनों एक-दूसरे के पूरक, सहयोगी और अपना अलग अस्तित्व या हैसियत रखते हुए भी साथ निभाने के लिए बने हैं। लेकिन समस्या तब होती है जब एक पक्ष दूसरे पर अधिकार जमाता है, धौंस से काम लेता है, दूसरे को अपने अधीन समझता है और एक तरह से उसकी बात तक नहीं सुनता। 

मतलब यह कि स्वयं-भू हो जाता है अर्थात् चाहे महिला हो या पुरुष, उसकी कही बात पत्थर की लकीर है और उसने जो निर्णय लिया, वही अंतिम है। हकीकत है कि यह बात सब पर समान रूप से लागू होती है, चाहे व्यक्ति साधारण नागरिक हो, सत्ताधारी हो, मोनार्क हो या अपने धन और बल के आधार पर दूसरों को अपना गुलाम बनाने की मानसिकता रखता हो। मान लीजिए एक परिवार है, पति पत्नी माता-पिता, भाई-बहन और अलग-अलग उम्र के बच्चे हैं। घर का एक मुखिया है जिसका सभी आदर सम्मान करते हैं, उसकी कही बात का मान रखते हैं और एक प्रकार से आदर्श स्थिति बनाए रखते हैं।

इसे क्या कहा जाएगा; उस व्यक्ति की मनमानी, दबदबा, जिसे अपनी बात मनवाने में मजा आता है और जो यह समझने लगता है कि किसी को उसका विरोध करने का अधिकार नहीं है और यदि कोई अपनी बात कहने या कुछ बताने की कोशिश करता है तो वह बदतमीज, बददिमाग और बदजुबान है और उसे इसकी सजा मिलनी ही चाहिए। जैसे कि; परिवार में कोई उससे बात नहीं करेगा, यहां तक कि किसी तरह का रिश्ता रखने पर भी पाबंदी लगा दी जाती है, अकेलेपन का जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। वह हीनभावना से ग्रस्त रहे और जब तक वह झुके नहीं अर्थात् कभी भविष्य में ऐसा न करने का वायदा न कर ले, उसकी मुक्ति नहीं है। अधिकतर मामलों में यह कहावत लागू होती है कि बिना बात, राई का पहाड़ बन गया। लेकिन यह बात समझ में आने तक बहुत देर हो चुकी होती है, मनमुटाव अपनी चरम सीमा तक पहुंच जाता है और परिवार में बिखराव शुरू हो जाता है। 

यह भी कोई बात है! : एक उदाहरण से बात समझ में आएगी। पुरुष हो या महिला, अक्सर यह शिकायत करते पाए जाते हैं कि वे बहुत से ऐसे काम करते हैं जिनका उन्हें कोई मेहनताना नहीं मिलता। इनमें घर की साफ-सफाई, खाना बनाना, घर की जरूरतों के अनुसार खरीदारी करना, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, उनके स्कूल कालेज की जिम्मेदारियां उठाना और वे सभी काम जो कोई उनसे करने को तो नहीं कहता लेकिन वे करते हैं। इन सब कामों के अलावा पुरुष और महिला नौकरी करते हैं, खेतीबाड़ी, व्यापार या व्यवसाय करते हैं, कारखाने या उद्योग चलाते हैं तो उन्हें इसका वेतन या मुनाफा मिलता है और इस तरह दोनों अपनी-अपनी योग्यता के मुताबिक कमाई करते हैं और फिर मिलजुलकर अपनी गृहस्थी चलाते हैं। यहां तक कोई समस्या नहीं है लेकिन परेशानी तब होती है जब उन कामों का हिसाब लगाया जाने लगता है जो मुफ्त में किए जा रहे थे। 

यहां एक घटना का जिक्र करना ठीक होगा जो बिल और मेलिंडा गेट्स से संबंधित है। हुआ यह था कि मेलिंडा सुबह बच्चों को स्कूल छोडऩे जाती थी और बिल घर पर आराम से कॉफी पीते रहते थे। एक दिन बिल ने कहा कि वह बच्चों को स्कूल छोड़ देगा और उसके बाद वह रोज ही जाने लगा। काफी समय बाद एक दिन मेलिंडा बच्चों को छोडऩे गई तो उसने देखा कि बच्चों को स्कूल छोडऩे आने वालों में मर्द बहुत अधिक हैं जबकि पहले औरतें हुआ करती थीं। उसने अपनी एक सहेली से पूछा कि यह सब क्या है तो उसने कहा कि ये मर्द इसलिए यहां आते हैं क्योंकि इन्होंने सोचा कि जब बिल जैसा बहुत ही बिजी रहने वाला शख्स यह कर सकता है तो वह क्यों नहीं, और बस उसके बाद से उनकी संख्या बढ़ती गई। मतलब यह कि जिन कामों को करने से किसी को कोई पैसा नहीं मिलता, उन्हें मर्द या औरत कोई भी करे, उससे क्या फर्क पड़ता है, यह बात सोचने की है? 

पुरुष हो या महिला उन्हें अपनी भूमिकाएं बांटने की जरूरत नहीं है बल्कि आवश्यकता पडऩे पर उन्हें करने की सोच होनी चाहिए। जन्म से जो मिला चाहे वह परिवार, संस्कार या धर्म ही क्यों न हो, उसे स्वीकार किए बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती और कुएं के मेंढक की तरह गोल गोल घूमते रहने का भी कोई अर्थ नहीं है। परिवार हो या समाज, उसे अपने इशारों पर नचाने की सोच, समान या भेदभावपूर्ण व्यवहार, यह सब तब सही दिशा में जा सकता है जब हम इस बात के लिए तैयार हों कि जो सड़ और गल गया है, उससे निकलती बदबू में सांस तक लेना दूभर होने से पहले अपनी सोच की परिधि से बाहर निकल आएं। इसे बचाने में शक्ति या ऊर्जा का उपयोग न कर कुछ ऐसा करें जिससे लगे कि खुली हवा में जी रहे हैं, जीने का कोई मकसद है क्योंकि जीवन केवल एक बार के लिए मिला है।-पूरन चंद सरीन
 

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