Edited By ,Updated: 16 May, 2024 05:30 AM
नरेंद्र मोदी ने देश के मुसलमानों से अपील की है कि वे अपने व्यवहार पर आत्ममंथन करें। प्रधानमंत्री अगर लोकसभा चुनाव के बीच देश के दूसरे सबसे बड़े समुदाय से ऐसी अपील करते हैं तो इसे निश्चय ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए। विरोधी कह रहे हैं कि हार के डर...
नरेंद्र मोदी ने देश के मुसलमानों से अपील की है कि वे अपने व्यवहार पर आत्ममंथन करें। प्रधानमंत्री अगर लोकसभा चुनाव के बीच देश के दूसरे सबसे बड़े समुदाय से ऐसी अपील करते हैं तो इसे निश्चय ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए। विरोधी कह रहे हैं कि हार के डर से घबराकर मोदी ने परोक्ष रूप से मुसलमानों से वोट देने की अपील की है। प्रश्न है कि प्रधानमंत्री के भारतीय मुसलमानों पर दिए गए वक्तव्य को किस रूप में देखा जाए?
यह सच है, जैसा प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा है कि मैंने पहले कभी इन विषयों पर बातचीत नहीं की। मुसलमानों को लेकर सबसे ज्यादा आरोप भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी पर ही लगाए गए। अपने मुख्यमंत्रित्वकाल के आरंभ में अवश्य उन्होंने अपना पक्ष रखने की कोशिश की लेकिन बदलाव न दिखने पर इस विषय पर बोलना ही बंद कर दिया। यह भी सच है कि उन्होंने पहली बार मुसलमानों से आत्ममंथन करने को कहा है।
उन्होंने कहा कि आप यदि यह सोचते रहेंगे कि सत्ता में किसे बिठाएंगे और किसे उतारेंगे, उससे अपने बच्चों का भविष्य ही खराब करेंगे। कोई चाहे इसे किस रूप में भी देखे, स्वतंत्रता के बाद से पहले कांग्रेस और बाद में ज्यादातर पाॢटयों ने वोट के लिए मुसलमानों के बीच जनमत को विकृत किया। दुर्भाग्य से मुसलमान समाज के पढ़े-लिखे लोगों में से बड़े वर्ग ने कभी इसका मूल्यांकन नहीं किया कि स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस और उसके बाद अन्य कई पार्टियों ने उनके अंदर डर पैदा कर वोट तो लिया, पर उनके उत्थान, वास्तविक कल्याण या विकास के लिए जो करना चाहिए, वह नहीं किया गया। ऐसे-ऐसे मुद्दे पार्टियों और सरकारों ने उठाए और उन पर काम किया, जो भावनात्मक रूप से उनको छूते थे या उनके समाज में यथास्थिति को बनाए रखने वाले थे, जो उनके सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक विकास में बाधक थे और मजहबी रूप से सच नहीं।
इस चुनाव में भी लगभग यही हो रहा है। मुसलमानों के अंदर यह भय पैदा किया जा चुका है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में लौटी तो भारत में इस्लाम के लिए कयामत आ जाएगी, उनकी लाखों मस्जिदें गिरा दी जाएंगी, उनको नमाज पढऩे तक से वंचित किया जाएगा तथा वे अपनी इच्छा अनुसार इस्लामी मजहब का पालन भी नहीं कर सकेंगे। यह पहला चुनाव है जहां मुसलमानों के अगुवा माने जाने वाले व्यक्तियों के बड़े समूह ने भाजपा को वोट न देने को दीन और ईमान का विषय बना दिया है। फिर, प्रधानमंत्री ने मुस्लिम विरोधी होने के आरोप पर भी बातचीत की। उन्होंने कहा कि न हम इस्लाम के विरोधी हैं न मुसलमान के। हमारा यह काम ही नहीं है। उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि मुसलमान इस पर विचार करें कि सरकारी व्यवस्थाओं का लाभ उन्हें कांग्रेस के शासनकाल में क्यों नहीं मिला? अगर लाभ मिला होता तो सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद के नियंत्रण और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चलने वाली यू.पी.ए. सरकार को सच्चर समिति के माध्यम से मुसलमानों के हर क्षेत्र में पिछड़े होने की रिपोर्ट सामने नहीं लानी पड़ती। हालांकि सच्चर रिपोर्ट अतिवाद से भरी थी तथा तथ्यों के नाम से सामने रखे गए अनेक ङ्क्षबदू विचारों और कल्पनाओं वाले थे। बावजूद, उस समय तक की सरकारों ने मुसलमानों को एक वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया।
भारतीय मुसलमानों के अगुवा वर्ग की एप्रोच सही होती तो उनकी मानसिकता बदलती और नरेंद्र मोदी सरकार दुश्मन नहीं नजर आती। इस सरकार के कार्यकाल में पंथ, मजहब, जाति या रंग के आधार पर सरकारी नीतियों में किसी तरह के भेदभाव का एक भी प्रमाण नहीं है। सच यह है कि भारतीय मुसलमानों को हिंदुओं की तुलना में आबादी के प्रतिशत से ज्यादा लाभ सरकार की योजनाओं का मिला है।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि मुसलमान समाज दुनिया में बदल रहा है। यह बदलाव सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन आदि देशों में साफ दिखाई पड़ता है। खाड़ी के देशों में योग की ओर मुसलमानों का आकर्षण है लेकिन भारतीय मुसलमानों ने योग को ही इस्लाम विरुद्ध मान लिया। सऊदी अरब में योग सरकारी सिलेबस का विषय है। शरीयत के अनुसार चलने वाले शासन के मुल्कों में भी अनेक ऐसे हैं, जिन्होंने तीन तलाक को गैर-इस्लामी घोषित किया हुआ है। अनुच्छेद 370 का इस्लाम से क्या लेना-देना था? जम्मू-कश्मीर तो छोडि़ए, देश भर के मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग इसे लेकर छाती पीट रहा है। गो हत्या निषेध मुसलमान के विरुद्ध कदम कैसे हो गया? समान नागरिक संहिता में किसी मजहबी कर्मकांड पर रोक नहीं है। लंबे समय से मुसलमानों के दिमाग में बिठा दिया गया कि समान नागरिक संहिता इस्लाम के विरुद्ध है।
इस तरह के नैरेटिव से मुस्लिम समाज को बाहर आने की आवश्यकता है। क्या प्रधानमंत्री की अपील के बावजूद ऐसा लगता है कि भारतीय मुसलमान आत्ममंथन करेंगे और उन्हें वोट के रूप में देखने वाली पाॢटयां ऐसा करने देंगी? केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान बताते हैं कि राजीव गांधी के शासनकाल में शाहबानो मामले पर जब उन्होंने स्टैंड लिया तो उसे सही मानते हुए भी उन्हें कहा गया कि अगर एक समाज गटर में रहना चाहता है तो तुम अपनी राजनीतिक बलि क्यों चढ़ाना चाहते हो। शाहबानो पर उच्चतम न्यायालय के आदेश को राजीव गांधी सरकार द्वारा पलटना मुस्लिम तुष्टीकरण का शर्मनाक उदाहरण था।
मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि हमारे देश के बेईमान और पाखंडी नेताओं ने वोट के लिए सीधी एप्रोच यही बनाई कि उनके समाज के दोषों को दूर करने या उन्हें मुख्यधारा में लाने की जगह जहां जैसे हैं, वैसे ही छोड़ दो और उनके हितैषी होने का प्रदर्शन करते रहो। बस रोजा के समय बड़ी इफ्तार पार्टियां दे दो, बड़े मुस्लिम चेहरों द्वारा आयोजित इफ्तार में शामिल हो जाओ, सिर पर टोपी या गमछा डालकर नमाज अदा करने का नाटक करो आदि। क्या कभी मुसलमानों ने सोचा है कि इस तरह के व्यवहार से उन्हें क्या प्राप्त हुआ? कोई आपके लिए इफ्तार पार्टी न दे, आपके साथ नमाज अदा करने का नाटक न करे, आपकी टोपी न पहने लेकिन आपके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य की व्यवस्था करे, गरीब मुसलमानों को उचित आवास दे, उनके घरों में बिजली और पानी पहुंचाए, मदरसों का उन्नयन कर इस्लामी शिक्षा के साथ उनमें आज के दौर के अनुरूप पाठ्यक्रम और इसके लिए आवश्यक संसाधन प्रदान करे, इस्लाम के नाम पर गलत प्रथा से मुक्ति का कानून बनाए तो क्या उसे मुस्लिम विरोधी सरकार कहा जाएगा? इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई अपील और कही गई बातों पर मुस्लिम समुदाय को सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए। हालांकि राजनीति के कारण देश का वातावरण ऐसा नहीं है, जिसमें तत्काल इसका बहुत ज्यादा सकारात्मक असर होगा।-अवधेश कुमार