चिता, बेरी और मैं

Edited By ,Updated: 20 Nov, 2019 02:30 AM

pyre berry and i

तपती दोपहर के दौरान एक गांव के श्मशानघाट में जब मैंने एक झुलस रही बेरी की तरफ देखा तो मेरा दिल और दिमाग लहू से भर गया। मैंने सोचा कि इस बेरी के साथ बहुत जुल्म हो रहा है और यह बहुत वर्षों से हो रहा है। यह इससे छुटकारा नहीं पा रही। यह गलती मिस्त्रियों...

तपती दोपहर के दौरान एक गांव के श्मशानघाट में जब मैंने एक झुलस रही बेरी की तरफ देखा तो मेरा दिल और दिमाग लहू से भर गया। मैंने सोचा कि इस बेरी के साथ बहुत जुल्म हो रहा है और यह बहुत वर्षों से हो रहा है। यह इससे छुटकारा नहीं पा रही। यह गलती मिस्त्रियों की थी या फिर पंचायत की जिन्होंने इसके बिल्कुल पास मुर्दा फूंकने वाला स्थान बना दिया। यह भी हो सकता है कि यह स्थान बनने के बाद वहां पर उगी हो। जब कभी भी चिता जलती है तो सबसे पहले उसकी लपटें इसको अपनी चपेट में ले लेती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि कोई पुरानी दुश्मनी चली आ रही हो। चिता की लपटें इसके पत्तों को भी जला कर खाक कर देती हैं। 

यह बहुत जल-जल कर काली हो चुकी है। धुएं और लपटों ने इसका रंग ही बदल दिया। यह बहुत सब्र वाली लगती है। इसे कुछ जलने के सिवाय कुछ देखने को नहीं मिलता। बेरों का बूर तो कभी देखा ही नहीं। जलने के बाद जब यह फिर से पत्ते निकालती है तब-तब गांव में कोई शख्स मर जाता है। इसके पत्ते यौवन की ऋतु नहीं देखते। जब गांव में औरतों की रोने की आवाज आती है तो यह डर कर सहम जाती है और मन ही मन में कह उठती है, ‘‘आज फिर कोई मर गया, मैं भी मरूंगी, फिर से जलूंगी।’’ दूर से आती अर्थी को देखकर इसका दिल डोलने लग जाता है। जब भी मुर्दा रखा जाता है यह बेहोश होने लगती है। लकडिय़ों की बनती चिता को देखकर यह चीखती-चिल्लाती है और किसी अबला की तरह ही विलाप करने लगती है। 

जिस दिन मैंने इसको झुलसते हुए पहली बार देखा था तब मुझे इस पर बड़ा तरस आया था पर मैं कर भी क्या सकता था, सिवाय इस पर तरस करने के। लपटें इसको जला रही थीं। जब भी मुझे किसी अर्थी के साथ श्मशानघाट जाना पड़ता है तो सबसे पहले मेरी नजर इसी पर जा टिकती है। मुझे लगता है जैसे यह लपटों को कहती हो कि आज मत दिखाई देना, आज न मुझे जलाना, अभी कल-परसों तो मैं जलकर बुझी हूं। अभी कल ही मैंने नए पत्ते निकाले हैं। मेरे पत्तों को यौवन की सुबह तो देखने दो। मेरी ओर कोई नहीं देखता, मुझे मत जलाओ।

लपटें बहुत ही जालिम हैं, उसकी एक नहीं सुनतीं। ऊंची-ऊंची जलकर चिता की लपटें इसको आङ्क्षलगन कर लेती हैं। आगे से मैं बेरी को देखूंगा नहीं, यही सोचकर मैं श्मशानघाट से बाहर निकलता हूं मगर फिर जब कभी मुझे जाना पड़ता है तो श्मशानघाट के द्वार में दाखिल होने से पहले मेरी निगाह इस बेरी पर जा टिकती है जो उदास है, निराश है और जलने के बाद भी वहीं की वहीं खड़ी है।-मेरा डायरीनामा निन्दर घुगियाणवी
 

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