देश में स्वतंत्रता की ‘दूसरी जंग’ शुरू

Edited By ,Updated: 28 Feb, 2021 03:41 AM

second war of independence started in the country

जैसा कि हम सब उम्मीद छोड़ रहे थे, यहां पर ऐसे संकेत हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा अभी खोई नहीं है। यह विचार कि भारत पर विदेशियों का शासन था जिनके पास भारत पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं था। भारतीयों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित करने का...

जैसा कि हम सब उम्मीद छोड़ रहे थे, यहां पर ऐसे संकेत हैं कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा अभी खोई नहीं है। यह विचार कि भारत पर विदेशियों का शासन था जिनके पास भारत पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं था। भारतीयों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित करने का अधिकार भारत को बहुत देर से मिला। चूंकि आप मानते हैं कि अमरीका में स्वतंत्रता की घोषणा पर 4 जुलाई 1776 को हस्ताक्षर किए गए। 

100 वर्ष के बाद स्वतंत्रता और सम्प्रभु भारत का विचार भारत में अंकुरित हुआ। 1906 में कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी ने स्वराज की मांग की लेकिन यह सीमित स्व:शासन की मांग थी। 1916 में बाल गंगाधर तिलक  तथा एनी बेसैंट ने ‘होम रूल’ आंदोलन की शुरूआत की और ब्रिटिश साम्राज्य से एक प्रभुत्व का दर्जा देने की मांग कर डाली। 1929 में लाहौर कांग्रेस में कांग्रेस कार्य समिति ने पूर्ण स्वराज या पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की। 

स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत ने फ्रांस और संयुक्त राज्य अमरीका  से विचारों को उधार लिया। फ्रांसीसी क्रांति में आजादी, समानता और बंधुत्व और अमरीकी स्वतंत्रता की घोषणा में ‘सभी पुरुषों को समानता से बनाया गया है’ के विचार अपनाए। यहां पर प्रमुख शब्द स्वतंत्रता है। 

स्वतंत्रता पर हमला
स्वतंत्र भारत के इतिहास में इससे पहले देश की शक्तियों ने असहमति या विरोध या अवहेलना की हर आवाज को दबाने के लिए इतनी बेरहमी से कदम नहीं उठाया है। आपातकाल के दौरान (1975-77) मुख्य लक्ष्य राजनीतिक विरोध था। अब लक्ष्य असंतोष की हर आवाज है। चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, कलात्मक या फिर शैक्षणिक हो। 

सिंघू और टीकरी पर किसान कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। ये लोग राजनीतिक पार्टी के तौर पर भाजपा के खिलाफ नहीं हैं फिर भी उन्हें जांच एजैंसियों द्वारा टार्गेट किया जा रहा है। देश में दलितों पर हो रहे अपराधों के खिलाफ, मूल्य वृद्धि के खिलाफ, सूचना के खंडन के खिलाफ, प्रदूषण फैलाने वाले लोगों के खिलाफ, भ्रष्टाचारियों के खिलाफ, पुलिस की ज्यादतियों के खिलाफ एकाधिकार के खिलाफ, जातिवाद के खिलाफ, मजदूरों के अधिकारों के हनन के खिलाफ विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं। असहमति या विरोध की हर आवाज को भाजपा सरकार का विरोध माना जाता है और उसे दबाने की कोशिश की जाती है। 

सुश्री दिशा रवि कृषि कानूनों के विरोध का समर्थन कर रही थी। सभी खातों से वह राजनीतिक पक्षधर नहीं थी। फिर भी उसे राज्य के दुश्मन के रूप में चित्रित किया गया था। उससे पहले एक पत्रकार श्रीमान सिद्दीक कप्पन थे जिन्होंने हाथरस में बलात्कार और हत्या के शिकार पर एक कहानी लिखी। उन्हें स्थापित सरकार को उखाड़ फैंकने के लिए एक साजिशकत्र्ता के रूप में चित्रित किया गया था। नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने वाली छात्राओं और महिलाओं को टुकड़े-टुकड़े गैंग के रूप में चित्रित किया गया था जो भारत की सम्प्रभुता और अखंडता को तोडऩे का प्रयास कर रहा था। अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे कर्मचारियों का समर्थन नौदीप कौर ने किया तथा उन्हें दंगे और हत्या के प्रयास के आरोप में जेल में डाल दिया गया। 

एक निष्क्रिय दर्शक 
अदालत विशेष रूप से निचली न्यायपालिका एक निष्क्रिय दर्शक थी जो नियमित रूप से गिरफ्तारी को रोकती थी और लोगों को पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में भेज देती थी। देश के तय कानूनों का पालन नहीं किया गया। स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम बालचंद के मामले में जस्ट्सि कृष्णा अय्यर ने घोषणा की थी कि, ‘‘मूल नियम शायद जमानत के रूप में रखा जा सकता है, जेल नहीं।’’ 

अंडर रिमांड और अंडर ट्रायल कैदियों की गाथा स्वतंत्रता का अपमानजनक उल्लंघन है। एक या दो माह में कैदी की पेशी अदालत में होती है। अब निश्चित रूप से निम्र में से एक अवश्य होता होगा : जांच अधिकारी अनुपस्थित होगा या अभियोजक अनुपस्थित होगा या अभियोजन पक्ष गवाह नहीं बनेगा या चिकित्सा रिपोर्ट तैयार नहीं होगी। या फिर न्यायाधीश के पास समय नहीं था या न्यायाधीश अवकाश पर था। कैदी एक और तारीख और नाउम्मीद के साथ जेल के लिए फिर रवाना हो जाता है। 

उच्च अदालतों में भी स्थिति बेहतर नहीं है। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में हजारों जमानत की याचिकाएं लम्बित हैं और एक सुनवाई के बाद शायद ही कभी इसका निपटारा किया जाता है। मैंने पाया है कि मुख्य कारण जांच एजैंसी (पुलिस सी.बी.आई., ई.डी., एन.आई.ए. इत्यादि) का जबरदस्त विरोध है। 

अर्नब गोस्वामी के पास सबक है। सर्वोच्च न्यायालय (न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़) ने हमें याद दिलाया कि एक दिन के लिए स्वतंत्रता से वंचित करने से मतलब यह है कि एक दिन कई दिनों में बदल जाता है। मैं खुश हूं कि अनेकों न्यायाधीश अब जांच एजैंसियों के कड़े विरोध को बर्दाश्त नहीं कर रहे हैं तथा स्वतंत्रता के पक्ष में निर्णय दे रहे हैं। 

वारावारा राव के मामले में बाम्बे हाईकोर्ट ने चिकित्सीय आधारों पर 82 वर्षीय लेखक को जमानत दे डाली। दिशा रवि मामले में जज धर्मेन्द्र राणा ने लोकतंत्र की महत्ता को रेखांकित किया। जैसा कि अदालतें स्वतंत्रता को लेकर जागरूक हैं। मैं महसूस करता हूं कि यह स्वतंत्रता के लिए दूसरी लड़ाई शुरू हो चुकी है और जो जेलों में बंद हैं वह स्वतंत्रता की हवा में सांस लेने के योग्य हो जाएंगे।-पी. चिदम्बरम  

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