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जीता हुआ इलाका वापस नहीं करना चाहते थे शास्त्री जी

Edited By ,Updated: 05 Mar, 2020 04:12 AM

shastri did not want to return the won area

ताशकंद में कड़ाके की सर्दी के बीच लोग रूस की तरह ‘वोडका’ नहीं पीते हैं बल्कि कड़क काफी के घूंट का मजा लेते हैं। रूस की ‘वोडका’ संस्कृति से उजबेक बाहर निकल गया है-लेकिन उजबेक की नई पीढ़ी ताशकंद में मूॢत के रूप में खड़े लाल बहादुर शास्त्री को भी भूल...

ताशकंद में कड़ाके की सर्दी के बीच लोग रूस की तरह ‘वोडका’ नहीं पीते हैं बल्कि कड़क काफी के घूंट का मजा लेते हैं। रूस की ‘वोडका’ संस्कृति से उजबेक बाहर निकल गया है-लेकिन उजबेक की नई पीढ़ी ताशकंद में मूर्ति के रूप में खड़े लाल बहादुर शास्त्री को भी भूल गई है क्या? ऐसा सवाल उठता है। ताशकंद दौरे के दौरान मैं शास्त्री जी के स्मृति स्थल पर गया था। 

स्मृति स्थल की देखभाल अच्छे से की जा रही है। परंतु पाकिस्तान को टक्कर देने वाले वामनमूर्ति शास्त्री जी निश्चित तौर पर कौन हैं, इस बारे में वहां की नई पीढ़ी को कुछ भी जानकारी नहीं है। 54 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के साथ ‘ताशकंद समझौता’ हुआ और उसी रात शास्त्री जी की ताशकंद में मौत हो गई। शास्त्री जी का निधन संदिग्ध होने की बात कही गई और आज भी इस पर आशंका जताई जाती है लेकिन शास्त्री जी की मौत प्राकृतिक थी। ‘ताशकंद’ तब रूसी महासत्ता का हिस्सा था। 1965 के युद्ध में रूस के तत्कालीन अध्यक्ष एलेक्सी कोसिजिन ने तब मध्यस्थता की थी। पाकिस्तान के अध्यक्ष अयूब व हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री शास्त्री जी को ताशकंद में बुलाया। वहां पर शांति पर चर्चा हुई लेकिन उसके बाद शास्त्री जी की तिरंगे में लिपटी मृत देह ही हिंदुस्तान आई। 

वामनमूर्ति की जीत 
1965 का युद्ध पाकिस्तान ने हिंदुस्तान पर लादा था लेकिन उसे ‘वामनमूर्ति ’ लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में हिंदुस्तान ने जीत लिया। 26 सितम्बर 1965 को रामलीला मैदान पर विजय सभा हुई। उसमें शास्त्री जी आत्मविश्वास से बोले, ‘पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने कहा था कि वे दिल्ली तक आराम से चलते हुए पहुंच जाएंगे। वे इतने बड़े नेता हैं, बलशाली हैं, मैंने सोचा इतने बड़े आदमी को दिल्ली में पैदल चलकर आने की तकलीफ क्यों दें? हम ही लाहौर के लिए कूच करके उन्हें सलामी देते हैं।’ शास्त्री जी का ये आत्मविश्वास मतलब ङ्क्षहदुस्तानी नेतृत्व का आत्मविश्वास था। शास्त्री जी की वामनमूर्ति , उनकी आवाज की अयूब ने सरेआम खिल्ली उड़ाई थी। अयूब लोगों की परख उनके बाहरी स्वरूप से करते थे लेकिन छोटे कदवालों का हृदय भी फौलादी हो सकता है, ये उन्हें नहीं पता था। शास्त्री जी ने उन्हें ये दिखा दिया। 

अयूब का अनुमान चूक गया
अयूब पाक के अध्यक्ष और सेनाप्रमुख भी थे। उनका दिमाग फौजवाला था। चीन ने हिंदुस्तान को परास्त किया था। उस सदमे से ग्रस्त पंडित नेहरू का निधन हो गया। हिंदुस्तानी फौज का मनोबल क्षीण हुआ था। लडऩे की उम्मीद खत्म हो गई थी। दिल्ली में राजनीतिक नेतृत्व कमजोर हो गया था। अयूब का दिल्ली दौरा तय हुआ था लेकिन नेहरू के निधन से उन्होंने दौरा रद्द कर दिया। अब दिल्ली जाकर क्या लाभ? चर्चा आखिर किससे की जाए, ऐसा अयूब को लगता था। उसी दौरान शास्त्री जी ने उन्हें संदेश भेजा-आप क्यों आते हो, हम ही आ रहे हैं वहां। शास्त्री जी कैरो गए थे। एक दिन के लिए वे कराची में रुके। शास्त्री जी को हवाई अड्डे पर छोडऩे के लिए प्रै. अयूब आए थे। तब अपने सहयोगियों को इशारा करते हुए अयूब बड़बड़ाए, उनके साथ चर्चा करके कुछ लाभ नहीं है। ये बेहद कमजोर नेता हैं। शास्त्री जी की हिम्मत का अनुमान लगाने में प्रै. अयूब ने गलती की। कश्मीर पर हमले के बाद हिंदुस्तान अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार नहीं करेगा। अयूब का यह अनुमान भी गलत सिद्ध हुआ। यह उनकी दूसरी भूल थी। हिंदुस्तानी फौज लाहौर तक कब पहुंच गई, ये अयूब समझ ही नहीं पाए और वो महाशय हाथ मलते रह गए। 

उजबेकिस्तान से शास्त्री जी का संबंध पाकिस्तान से युद्ध के बाद ही बना और वह मृत्यु के बाद भी बरकरार रहा। युद्ध के बाद धुआं कम करने के लिए रूस के तत्कालीन अध्यक्ष कोसिजिन ने अगुवाई की। दो देशों में समझौता अथवा शांति समझौता हो, इसके लिए पाकिस्तान के अयूब व प्रधानमंत्री शास्त्री जी को ताशकंद में मुलाकात का न्यौता दिया। रूस तब पूरी तरह से हिंदुस्तान के समर्थन में था। दो देशों के बीच तनाव खत्म हो और तटस्थ जगह पर चर्चा हो, इसके लिए रूस ने ताशकंद का चयन किया। सामान्यत: ताशकंद समझौते में जो मुद्दे थे उनमें शास्त्री जी विचलित थे तो इन दो मुद्दों के कारण। उसमें एक था सम्पत्ति लौटाने की शर्त, जिसमें हमारी फौज द्वारा जीता गया ‘पीर पंजाल’ का इलाका भी शामिल था। शास्त्री जी को ये मंजूर नहीं था परंतु रूस के अध्यक्ष के सामने वे ज्यादा विरोध नहीं कर सके। 

प्राकृतिक मौत
शास्त्री जी के निधन पर कुछ लोगों ने रहस्य और संशय के बादल निर्माण किए। बीच में ‘ताशकंद डायरी’ नामक फिल्म इसी पर आई थी। शास्त्री जी के निधन के पीछे गांधी परिवार का अदृश्य हाथ दिखाने की कसरत इसमें थी। लेकिन शास्त्री जी की मौत प्राकृतिक थी। तनाव के कारण हृदयविकार का झटका आया और उसी में वे दुनिया को छोड़ गए। ताशकंद समझौते में पाकिस्तान का जीता हुआ हिस्सा छोडऩे का दबाव उन पर था। ये मैंने ऊपर कहा ही है। उसी तनाव में उन्होंने ‘शांति समझौते’ पर हस्ताक्षर किए, उसके बाद उसी तनाव में रात को सोने गए लेकिन 11 जनवरी 1966 की सुबह नींद से उठे ही नहीं। शास्त्री जी ने ताशकंद में ही आखिरी सांस ली। ताशकंद में ही शास्त्री जी का पोस्टमार्टम किया गया। उसमें भी उनकी मौत प्राकृतिक व हृदयविकार के कारण होने की बात स्पष्ट हुई।  जिस ताशकंद में उनका निधन हुआ वहां  उजबेक जनता ने शास्त्री जी की स्मृतियों को संजोकर रखा है। ताशंकद के शास्त्री स्ट्रीट स्थित चौक वाला उनका पुतला मुस्कुराता है।-संजय राउत

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