राहुल के बाद क्या होगी विपक्ष की दिशा

Edited By ,Updated: 27 Mar, 2023 05:12 AM

what will be the direction of opposition after rahul

लोकसभा से राहुल गांधी की सदस्यता आनन-फानन में खत्म करके भाजपा ने साफ कर दिया है कि वह विरोधियों से आर-पार की लड़ाई के लिए तैयार है। सवाल यह है कि अब कांग्रेस और गैर-भाजपा दल क्या करेंगे? कांग्रेस अब भी विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और अध्यक्ष पद...

लोकसभा से राहुल गांधी की सदस्यता आनन-फानन में खत्म करके भाजपा ने साफ कर दिया है कि वह विरोधियों से आर-पार की लड़ाई के लिए तैयार है। सवाल यह है कि अब कांग्रेस और गैर-भाजपा दल क्या करेंगे? कांग्रेस अब भी विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और अध्यक्ष पद छोडऩे के बाद भी राहुल गांधी कांग्रेस का चेहरा बने हुए हैं। 

कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पद यात्रा के बाद राहुल से कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ गई थीं। कई अन्य गैर-भाजपा पार्टियां भी राहुल की तरफ उम्मीद से देख रही थीं। राहुल के पास अभी गुजरात उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय का विकल्प है, लेकिन इस समय आक्रामक रुख लेकर चल रही भाजपा का अगला कदम क्या होगा, कहना मुश्किल है। आगे की लड़ाई इस बात पर भी निर्भर है कि गैर-भाजपा पार्टियां कितनी एकजुटता दिखा पाती हैं। 

गैर-भाजपा पार्टियों में एकता की एक झलक हाल की दो घटनाओं में दिखाई देती है। देश की 14 गैर-भाजपा पार्टियों ने सुप्रीमकोर्ट में एक याचिका दायर करके केंद्र सरकार की एजैंसियों का दुरुपयोग रोकने की मांग की है। कोर्ट इस मामले की सुनवाई 5 अप्रैल को करेगा। हाल में राहुल गांधी के नेतृत्व में 16 पार्टियों के करीब 200 सांसदों ने सरकार के खिलाफ मार्च निकाला। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता कि सारी पार्टियां भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने के लिए तैयार हैं। 

हाईकोर्ट या सुप्रीमकोर्ट से तुरंत राहत नहीं मिलने और जमानत रद्द होने पर राहुल को जेल भी जाना पड़ सकता है और वह अगला चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे। ऐसे में कांग्रेस को एक चमत्कारी नेता की जरूरत होगी। पार्टी के अध्यक्ष खरगे या किसी अन्य नेता की देशव्यापी पहचान नहीं है। 2024 के लोकसभा या उसके पहले होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी का नेतृत्व करना उनके बस में नहीं लगता। घूम-फिर कर नेतृत्व की उम्मीद गांधी परिवार पर ही टिक जाती है। सोनिया गांधी स्वाभाविक तौर पर नेता नजर आती हैं। उनकी खराब तबीयत को देखते हुए यह भी मुमकिन नहीं लगता है। 

आखिरी उम्मीद प्रियंका गांधी दिखाई देती हैं। सोनिया और प्रियंका का परिवार कई अन्य मुकद्दमोंं में फंसा हुआ है। उनके भी जेल जाने की नौबत आ जाए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। चमत्कारी नेतृत्व विहीन कांग्रेस के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह गैर-कांग्रेस पार्टियों का हिस्सा बन कर भाजपा से संघर्ष को तेज करे। 

भाजपा से त्रस्त विपक्ष : राज्यों में सत्तारूढ़ ज्यादातर विपक्षी पार्टियां सी.बी.आई. और ई.डी. जैसी केंद्र सरकार की एजैंसियों के कारण मुश्किल में हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के 2 पूर्व मंत्री जेल में हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भी केंद्रीय एजैंसियों के राडार पर हैं और उनकी बेटी से तथाकथित दिल्ली शराब घोटाले में पूछताछ चल रही है। दिल्ली के पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इस मामले में जेल जा चुके हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कई सहयोगी भ्रष्टाचार के मामले में जेल में हैं और कई नेताओं के खिलाफ जांच चल रही है। चंद्रशेखर राव और ममता अब तक कांग्रेस के साथ आने के लिए तैयार नहीं हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के रुख में थोड़ा बदलाव दिखाई दे रहा है। राहुल गांधी की सजा को उन्होंने भी गलत बताया है। 

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रैड्डी भी कांग्रेस से दूरी बना कर चलते हैं। अरविंद को छोड़ कर ये सभी मुख्यमंत्री पहले कांग्रेस में ही थे लेकिन क्षेत्रीय गणित के हिसाब से अब कांग्रेस को सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती के सामने भी केंद्रीय एजैंसियों का खतरा बना हुआ है। फिर भी वह कांग्रेस के साथ जाने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रही हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी कांग्रेस रास नहीं आ रही है। 

कौन है कांग्रेस के साथ  : कांग्रेस के पास कुल मिलाकर कुछ पुराने सहयोगी ही बचे हैं। तमिलनाडु में डी.एम.के., महाराष्ट्र में शरद पवार की एन.सी.पी. और शिव सेना के ठाकरे गुट के साथ बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जे.डी.यू. तथा लालू यादव का आर.जे.डी. कांग्रेस के साथ हैं। हाल में त्रिपुरा के विधानसभा चुनावों में सी.पी.एम. और कांग्रेस के बीच एक नया गठबंधन सामने आया। लेकिन केरल में दोनों पार्टियां मुख्य विरोधी हैं। 

सिर्फ इन सहयोगियों के बूते पर कांग्रेस के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे शक्तिशाली नेता से मुकाबला करना आसान नहीं है। यही चुनौती राज्यों में सत्ता पर काबिज क्षेत्रीय दलों के सामने भी है। गैर-भाजपा पार्टियों की स्थिति 1975 के एमरजैंसी जैसी होती जा रही है, जब अधिकतर गैर-कांग्रेसी नेता जेल में डाल दिए गए थे। एमरजैंसी खत्म होते ही विपक्ष की जबरदस्त एकता सामने आई और 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का सफाया हो गया। 

विपक्ष के सामने अब मिलकर लडऩे या अकेले-अकेले खत्म हो जाने का विकल्प बचा है। क्षेत्रीय और व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ कर ही वह भाजपा के लिए चुनौती बन सकते हैं। विपक्षी नेताओं की आपसी मुलाकात और साथ मिलकर छोटी-छोटी पहल से थोड़ी उम्मीद जरूर बनती है लेकिन विपक्ष अभी एकता से काफी दूर है।-शैलेश कुमार 
 

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