Edited By ,Updated: 23 May, 2015 12:45 PM
जिस प्रकार एक प्रज्वलित दीपक को चमकने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा जो स्वयं ज्ञान स्वरूप है, उसे और किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती, अपने स्वयं के ज्ञान के लिए।
जिस प्रकार एक प्रज्वलित दीपक को चमकने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा जो स्वयं ज्ञान स्वरूप है, उसे और किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती, अपने स्वयं के ज्ञान के लिए।
* सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो।
* व्यक्ति को सदा यह समझना चाहिए कि आत्मा एक राजा की तरह है जो शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि और भी प्रकृति से बना है, इन सबसे भिन्न है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरूप है।
* यह मोह से भरा हुआ संसार एक स्वप्र की ही तरह है, यह तब तक ही सत्य प्रतीत होता है, जब तक व्यक्ति अज्ञान रूपी निद्र में सो रहा होता है, परन्तु जाग जाने पर इसकी कोई सत्ता नहीं रहती।
* आत्मा अज्ञान के कारण ही सीमित प्रतीत होती है, परन्तु जब अज्ञान मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देता है।