Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Mar, 2023 11:40 AM

जैन धर्म ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत का पालन करने वाला धर्म है। भगवान महावीर का प्रकृति से गहरा संबंध रहा था। उन्होंने जंगल में
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Bhagwan Mahaveer ke Sandesh: जैन धर्म ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत का पालन करने वाला धर्म है। भगवान महावीर का प्रकृति से गहरा संबंध रहा था। उन्होंने जंगल में जीव-जंतु ही नहीं वरन् पेड़-पौधों के बीच रह कर अपनी साधना की थी तथा ऋजुपालिका नदी के किनारे एक शाल के पेड़ के नीचे ही उन्हें आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) की प्राप्ति हुई थी। जैन धर्म की पवित्र पुस्तकों (आगमों) में न केवल जीव-जंतु बल्कि पेड़-पौधों पर दया करने का उपदेश दिया गया है। पृथ्वी (मिट्टी), जल, वायु, वनस्पति और अग्नि सभी में जीवन है। इन सभी को हानि नहीं पहुंचानी चाहिए तथा इन्हें नष्ट होने से बचाना चाहिए। जैन धर्म में प्रकृति के उपभोग की बजाय उपयोग करने का उपदेश दिया गया है।
1100 रुपए मूल्य की जन्म कुंडली मुफ्त में पाएं। अपनी जन्म तिथि अपने नाम, जन्म के समय और जन्म के स्थान के साथ हमें 96189-89025 पर व्हाट्सएप करें
उपभोग से प्राकृतिक संसाधन नष्ट होते हैं जो आगे चलकर जल, वायु और प्रकृति के प्रदूषित होने का कारण बनते हैं। जैन दर्शन में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति को जीव माना गया है। ये सभी मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं तथा संतुलन बनाए रखने के लिए एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।

किसी एक तत्व के असंतुलन से समूचा पर्यावरण प्रभावित होता है। आज देश के सभी बड़े शहर प्रदूषित हो रहे हैं। उनके प्रदूषण से जन-जीवन पर संकट आ गया है। ऐसे में जैन धर्म का संदेश विशेष महत्व रखता है। वर्तमान अशांत, आतंकी, भ्रष्ट, हिंसक और प्रदूषित वातावरण में महावीर की अहिंसा ही शांति प्रदान कर सकती है। महावीर की अहिंसा केवल सीधे वध को ही हिंसा नहीं मानती है, अपितु मन में किसी के प्रति बुरा विचार भी हिंसा है। वर्तमान युग में प्रचलित नारा ‘समाजवाद’ तब तक सार्थक नहीं होगा, जब तक आर्थिक विषमता रहेगी। एक ओर अथाह पैसा, दूसरी ओर शून्य जैसा अभाव।
इस असमानता की खाई को केवल भगवान महावीर का ‘अपरिग्रह’ का सिद्धांत ही भर सकता है। अपरिग्रह का सिद्धांत कम साधनों में अधिक संतुष्टि पर बल देता है। यह आवश्यकता से ज्यादा रखने की सहमति नहीं देता है। भगवान महावीर ने मानवता के हित की बहुत-सी बातें बताई हैं। जिनमें प्रमुख बातें निम्न हैं, जिसका सार है :

दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा आप अपने साथ चाहते हैं। जिस प्रकार आप दुख पसंद नहीं करते, उसी तरह और लोग भी इसे पसंद नहीं करते। यह जानकर आपको उनके साथ वह नहीं करना चाहिए, जो आप उन्हें अपने साथ नहीं करने देना चाहते।
जियो और दूसरों को जीने दो। सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है। तू जिसे मारना चाहता है, (जिसको कष्ट व पीड़ा पहुंचना चाहता है) वह अन्य कोई तेरे समान ही चेतना वाला प्राणी है, ऐसा समझ। वास्तव में वह तू ही है।
ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए जो हित, मित और ग्राह्य हो अर्थात जो सुखद हो और दूसरों के लिए हानिकारक न हो। यदि सत्य बोलने से किसी को चोट पहुंचने अथवा किसी की मृत्यु होने की संभावना हो तो चुप रहना बेहतर है। सभी प्रकार के व्यवहार में ईमानदार रहें। किसी को धोखा न दें। दूसरों की संपत्ति को हड़पने अथवा हासिल करने के लिए अनैतिक साधनों का प्रयोग न करें।
अपने जीवन साथी के अलावा किसी अन्य के साथ शारीरिक संबंध न बनाएं। जीवन साथी के साथ संबंधों में संयम बरतें।
अपनी आवश्यकता से अधिक धन संचय न करें। आपका आवश्यकता से अधिक संग्रहित धन समाज के लिए है। इसे समाज के कल्याण के लिए अर्पित करें। यदि सोने और चांदी के कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत भी मिल जाएं तो भी लोभी मनुष्य को उससे संतोष नहीं होगा, क्योंकि इच्छाएं आकाश के समान अनंत हैं। अत: अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करें।

सांसारिक संपदा के मोह से बचें। तुम बाहर में मित्रों को क्यों ढूंढ़ते हो ? तुम स्वयं ही अपने मित्र हो और तुम स्वयं ही अपने शत्रु हो।
सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है। आपकी आत्मा से परे कोई भी शत्रु नहीं है। असली शत्रु आपके भीतर रहते हैं, वे शत्रु हैं क्रोध, घमंड, लालच, आसक्ति और नफरत। बाहरी दुश्मनों से लड़ने की अपेक्षा इन दुश्मनों से लड़ें। स्वयं पर विजय प्राप्त करना लाखों शत्रुओं पर विजय पाने से बेहतर है।
