अपने ‘दलित वोट’ को बचाए रखना भाजपा के लिए ‘अग्नि परीक्षा’

Edited By Punjab Kesari,Updated: 30 Apr, 2018 01:57 AM

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अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीडऩ अधिनियम के विषय में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध देशभर में दलित संगठनों द्वारा इस माह के प्रारंभ में जबरदस्त रोष प्रदर्शन किए गए और  भाजपा के कुछ दलित सांसदों ने भी  अपनी चिंताएं व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री को पत्र...

नेशनल डेस्कः अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीडऩ अधिनियम के विषय में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध देशभर में दलित संगठनों द्वारा इस माह के प्रारंभ में जबरदस्त रोष प्रदर्शन किए गए और  भाजपा के कुछ दलित सांसदों ने भी  अपनी चिंताएं व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री को पत्र लिखे जिससे भाजपा बैकफुट पर चली गई। मतदान प्राथमिकताओं के रुझानों के विश्लेषण से यह आभास होता है कि दलित राजनीति में चल रहे सागर मंथन से भाजपा का चिंतित होना अकारण नहीं है।

1996 से दलित वोटों में भाजपा  की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत के आसपास ही रुकी हुई थी। लेकिन 2014 में यह लगभग दोगुनी हो गई। भारतीय चुनावी इतिहास में पहली बार लगभग एक-चौथाई दलितों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया था। भाजपा को मिले दलित वोटों के बढ़े हुए हिस्से में अधिकतर मतदाता युवा तथा उदीयमान दलितों से संबंधित थे जो मोदी के आर्थिक एजेंडे से आकर्षित हुए थे। युवा दलितों में पार्टी के लिए समर्थन शेष दलितों की तुलना में 6 प्रतिशत प्वाइंट अधिक था। इसी प्रकार पढ़े-लिखे दलितों में भी भाजपा के लिए अधिक समर्थन था।

भाजपा के लिए दलित वोट जीवन मौत के समान
हैदराबाद यूनिवर्सिटी में दलित छात्र रोहित वेमुल्ला की आत्महत्या, गुजरात के उना जिले में दलित युवक की पिटाई और उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में गत वर्ष हुई जातिगत हिंसा के बाद भड़के रोष प्रदर्शनों में इस प्रकार पढ़े-लिखे दलित युवाओं ने निर्णायक भूमिका अदा की व सत्तारूढ़ पार्टी के लिए चिंता का विषय होना ही चाहिए। इस बात पर विवाद हो सकता है कि सरकार दलित कल्याण के विभिन्न कार्यक्रमों के बारे में जो दावे करती है क्या वे इस हद तक प्रभावी हो सकते हैं कि दलित युवाओं के बढ़ते आक्रोश पर अंकुश लग सके। यदि भाजपा 2014 वाली कारगुजारी को दोहराना चाहती है तो दलित वोट इसके लिए जीवन-मौत का सवाल है। यह इसलिए संभव हुआ कि पिछड़ी जातियों की तरह दलितों में भी चुनावी दौर में उपजातीय पहचान अक्सर बहुत मुखर हो जाती है। भाजपा ने जातिगत गणित को अपने पक्ष में भुगताने के लिए इन सामाजिक त्रुटियों को बहुत प्रभावी ढंग से प्रयुक्त किया था। इसने बहुजन समाज पार्टी को इतने जोर-शोर से ‘जाटवों की पार्टी’ के रूप में प्रचारित किया कि अन्य दलित समूह भाजपा के पक्ष में मुड़ गए।

कर्नाटक में बीजेपी को टक्कर दे पाएगी कांग्रेस
कर्नाटक चुनावों में एक बार वही राजनीति देखने को मिल रही है। कर्नाटक में दलित समर्थन को बचाए रखने की भाजपा की योग्यता  इस बात पर भी निर्भर करेगी कि विपक्ष  मतदाताओं को आंदोलित करने के लिए किस हद तक सफल होता है।  दो ध्रुवीय राजनीति वाले राज्यों में कांग्रेस भाजपा को क्या प्रभावी ढंग से टक्कर दे पाएगी, यह देखा जाना अभी बाकी है। इसलिए कर्नाटक चुनाव का नतीजा आने से पूर्व इस विषय में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए।

यदि यू.पी. में भाजपा से दलित समर्थक दूर होते हैं तो इसका लाभ स्वत: ही बसपा को मिलेगा क्योंकि अभी भी यू.पी. में जाटव दलितों में इसका अच्छा खासा प्रभाव है। विपक्ष की कमजोरियों के बावजूद  भी क्या भाजपा अपनी दलित वोट हिस्सेदारी को सुरक्षित रख पाएगी? इसकी अग्नि परीक्षा परीक्षा आने वाले महीनों में होगी। - के. संजय व जी. प्रणव  (साभार ‘लाइव मिंट’)

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