अलविदा 2020: कोविड-19 महामारी के दौरान भी इस साल नहीं थमा न्याय का पहिया

Edited By Anil dev,Updated: 24 Dec, 2020 11:53 AM

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वर्ष 2020 में न्यायपालिका ने कोविड-19 महामारी के कारण नागरिकों के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से निबटने और इससे सुरक्षा के बारे में अनेक निर्देश देते हुए कोरोनावायरस के खिलाफ लड़ाई को विश्व युद्ध बताया लेकिन इस दौरान उसने कई महत्वपूर्ण फैसले/आदेश सुनाए।

नेशनल डेस्क: वर्ष 2020 में न्यायपालिका ने कोविड-19 महामारी के कारण नागरिकों के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से निबटने और इससे सुरक्षा के बारे में अनेक निर्देश देते हुए कोरोनावायरस के खिलाफ लड़ाई को विश्व युद्ध बताया लेकिन इस दौरान उसने कई महत्वपूर्ण फैसले/आदेश सुनाए। इनमें निर्भया सामूहिक बलात्कार और हत्याकांड के चारों मुजरिमों की मौत की सजा पर अमल कराना, सशस्त्र बलों में महिला सैन्य अधिकारियों के लिये स्थाई कमीशन और हाथरस में दलित युवती से कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले की तेजी से जांच सुनिश्चित करना शामिल था। कोविड-19 महामारी के मद्देनजर देश में लाकडाउन होने के बाद भी न्यायपालिका ने न्याय का पहिया थमने नहीं दिया। उच्चतम न्यायालय ने मार्च महीने से ही वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई की। बाद में धीरे-धीरे उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में भी यही प्रक्रिया शुरू हुई। 

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न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि कोविड-19 महामारी के दौरान भी आवश्यक मामलों में नागरिकों का आसानी से न्याय प्राप्त करने का अधिकार बाधित नहीं हो। इस दौरान न्यायालय ने ई-फाइलिंग की व्यवस्था भी शुरू की, ताकि मामलों को सुचारू तरीके से सूचीबद्ध किया जाता रहे। इस दौरान, न्यायालय ने नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में शाहीनबाग में लंबे समय तक सार्वजनिक मार्ग अवरूद्ध रखे जाने के खिलाफ दायर याचिका में अपने फैसले में कहा कि नागरिकों को विरोध प्रदर्शन करने का मौलिक अधिकार है लेकिन ऐसा करते समय किसी भी स्थान पर अनिश्चितकाल तक धरना नहीं दिया जा सकता और न ही सार्वजनिक रास्तों को अवरूद्ध किया जा सकता है। न्यायालय ने कहा कि धरना प्रदर्शन पुलिस प्रशासन द्वारा निर्धारित स्थान पर ही किया जाये। तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमा पर किसानों के विरोध प्रदर्शन से उत्पन्न स्थिति पर भी न्यायालय ने यही कहा कि शांतिपूर्ण तरीके से रास्ते बाधित किये बगैर धरना देना उनका अधिकार है। न्यायालय ने संविधान में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की कई मामलों में रक्षा की और इस संबंध में कई महत्वपूर्ण आदेश दिए। इस दौरान न्यायालय ने जहां विनोद दुआ, अर्नब गोस्वामी और अमीश देवगन जैसे पत्रकारों को संरक्षण प्रदान किया और टिप्पणी की, भारत की आजादी उस समय सुरक्षित है जब तक पत्रकारों को बगैर किसी दबाव या भय के अपनी बात कहने औा रखने का अधिकार है।

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हालांकि, न्यायालय ने इस दौरान सोशल मीडिया पर निर्बाध तरीके से होने वाली टीका टिप्पणियों और फर्जी तथा गलत खबरों को लेकर चिंता भी व्यक्त की। इस दौरान सरकार ने भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बजाय सोशल मीडिया को नियंत्रित करने पर न्यायालय में जोर दिया। कोविड-19 महामारी की वजह से जम्मू कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त करने संबंधी संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकांश प्रावधान और अनुच्छेद 35ए हटाने की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं सहित अनेक महत्वपूर्ण मुकदमों की सुनवाई प्रभावित हुयी। न्यायालय ने नागरिकता संशोधन कानून पर केन्द्र का पक्ष सुने बगैर रोक लगाने से भी इंकार किया और कहा कि इस मामले में पांच सदस्यीय संविधान पीठ विचार करेगी। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के लिये सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण प्रदान करने संबंधी कानून की वैधानिकता का मामला भी संविधान पीठ के पास पहुंच गया, लेकिन इस पर भी सुनवाई नहीं हो सकी। इसी बीच, न्यायपालिका एक अभूतपूर्व विवाद से भी रूबरू हुआ, जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस जगनमोहन रेड्डी ने उच्चतम न्यायालय के पीठासीन दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश एन वी रमन के खिलाफ गंभीर आरोप लगाते हुये प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे को एक लंबा चौड़ा पत्र लिख दिया। न्यायमूर्ति बोबडे के सेवानिवृत्त होने पर न्यायमूर्ति रमन की ही देश के नये प्रधान न्यायाधीश बनने की संभावना है। 

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इस वर्ष न्यायालय की अवमानना के मामले भी सुर्खियों में रहे लेकिन सबसे ज्यादा चर्चित रहा न्यायपालिका के बारे में दो विवादास्पद ट्वीट करने के कारण अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ चला अवमानना का मामला। शीर्ष अदालत ने उन्हें अवमानना का दोषी ठहराते हुये उन पर एक रुपए का सांकेतिक जुर्माना या तीन महीने की साधारण कैद और तीन साल तक वकालत पर प्रतिबंध लगाने संबंधी व्यवस्था दी। प्रशांत भूषण ने जुर्माने की एक रुपए की राशि का न्यायालय की रजिस्ट्री में भुगतान करने के बाद इस फैसले पर पुनर्विचार याचिकायें दायर की हैं। इसके अलावा उन्होंने शीर्ष अदालत की अवमानना के मामले में अपील के अधिकार को लेकर भी एक याचिका दायर कर रखी है। उच्चतम न्यायालय ने जहां कोविड-19 महामारी की वजह से देश में लाकडाउन लागू हो जाने के कारण महानगरों से बड़ी संख्या में कामगारों के पलायन से उत्पन्न स्थिति से निबटने तथा इन कामगारों को उनके पैतृक निवास स्थान तक पहुंचाने की व्यवस्था करने के लिये केन्द्र और राज्य सरकारों को सख्त निर्देश दिये, वहीं कोरोनावायरस से संक्रमित मरीजों का इलाज कर रहे स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा के लिये आवश्यक पीपीई किट तथा दूसरी सुविधायें उपलब्ध कराने के लिये भी हस्तक्षेप किया। न्यायालय ने कोविड-19 संक्रमण की जांच की मनमानी दरों पर काबू पाने तथा सुरक्षा के लिये मास्क और सैनिटाइजर आदि उपलब्ध कराने के बारे में भी कई महत्वपूर्ण निर्देश दिये।

अस्पतालों में कोविड-19 की वजह से जान गंवाने वाले व्यक्तियों के शवों के अनादर के मामले का भी न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लिया और केन्द्र तथा राज्य सरकारों को विस्तृत निर्देश देते हुये कोविड-19 के खिलाफ संघर्ष को विश्व युद्ध की संज्ञा दी। इस दौरान, बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु के मामले ने भी महाराष्ट्र और बिहार की राजनीति को प्रभावित किया। यह मामला शीर्ष अदालत पहुंचा जहां उसने राजपूत के पिता द्वारा अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती और अन्य के खिलाफ बिहार के पटना में दर्ज कराई गयी प्राथमिकी की जांच केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंपी। जांच ब्यूरो की जांच हालांकि अभी जारी है लेकिन इसी बीच इसकी प्रगति रिपोर्ट को लेकर एक नयी याचिका न्यायालय में दायर की गयी है। कानपुर के बिखरू गांव में आठ पुलिसकर्मियों की सनसनीखेज तरीके से गोली मार कर हत्या के मामले में वांछित विकास दुबे की मध्य प्रदेश के उज्जैन से गिरफ्तारी के बाद कानपुर लाते समय रास्ते में हुयी मुठभेड़ में मौत की घटना की सच्चाई का पता लगाने लिये न्यायालय ने शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश डॉ बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग गठित किया जिसकी जांच अभी जारी है। 


 

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