शहरों का हुलिया बिगडऩे से पुलिसगिरी का काम प्रभावित हुआ

Edited By Punjab Kesari,Updated: 11 Sep, 2017 01:17 AM

due to erosion of cities police work was affected

भारतीय शहर गत 30 वर्षों के दौरान बहुत अधिक बदल गए हैं और इससे पुलिस का कामकाज प्रभावित हुआ...

भारतीय शहर गत 30 वर्षों के दौरान बहुत अधिक बदल गए हैं और इससे पुलिस का कामकाज प्रभावित हुआ है। मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि शहर कितने बड़े हो गए हैं या उनकी आबादी कितनी बढ़ गई है तथा वे अधिकतर लोगों के लिए जीने योग्य नहीं रह गए। हालांकि यह तीनों बातें सच हैं लेकिन मेरा इशारा इस तरफ है कि शहरों को मूल रूप में किस तरह डिजाइन किया गया था और उनका हुलिया कितना बिगड़ गया है। 

बेशक भारत एक बहुत प्राचीन देश है। फिर भी इसके अधिकतर शहर नए हैं। हमारे सबसे बड़े शहर मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई 3 शताब्दी से भी कम पूर्व अंग्रेजों द्वारा बसाए गए थे। अहमदाबाद, हैदराबाद और सूरत जैसे कुछ शहर इनकी तुलना में 200 वर्ष अधिक पुराने हैं। यहां तक कि पुरानी दिल्ली यानी कि शाहजहानाबाद भी मात्र 400 वर्ष पूर्व बसाया गया था। केवल काशी ही पुराना शहर होने का दावा कर सकता है तो भी इसका अधिकतर हिस्सा वास्तव में नवनिर्मित है। गंगा के घाट अपेक्षाकृत नए हैं और शहर के किसी भी ढांचे के बारे में वैध रूप में यह दावा नहीं किया जा सकता कि वह 500 या अधिक वर्षों से कायम हैं। 

इसकी तुलना रोम से करें जहां पैंथियान नामक इमारत 2000 वर्षों से अस्तित्व में है और अभी तक इसका बाल बांका नहीं हुआ। रोम के लोग पुरातन समय से यादगारी स्थलों के आसपास रहते आए हैं और उस शहर में जनजीवन की निरन्तरता लगातार बनी रही है, हालांकि वहां भी साइकिलें, कारें व रैस्टोरैंट जैसी नई चीजें जीवन में आई हैं। यदि इन तीनों चीजों को निकाल दिया जाए तो रोम के किसी भी मोहल्ले के बारे में यही लगेगा कि अनेक शताब्दियों से वहां कुछ बदला ही नहीं है। भारत में तो सब कुछ उलटा-पुलटा है। हमारे शहरों में मुश्किल से ही कोई ऐसा मोहल्ला होगा जहां हर समय कोई न कोई बिल्डिंग न बन रही हो। बहुत से स्थान तो उन स्थानीय लोगों के लिए भी पहचानने मुश्किल हो जाते हैं जो मात्र कुछ वर्षों बाद ही वापस लौटते हैं।

कुछ समय पूर्व मैं सूरत गया था। इस शहर में मैंने अपनी जिंदगी का अधिकतर हिस्सा गुजारा है लेकिन वहां भी मुझे अपना पुश्तैनी घर ढूंढने के लिए जी.पी.एस. की सहायता लेनी पड़ी। ऐसे में मैं यह क्यों कहता हूं कि शहरों में आए इस बदलाव ने पुलिस के कामकाज के तरीके को प्रभावित किया है? भारत में अपराध से निपटने का परम्परागत तरीका स्थानीय थाना द्वारा प्रयुक्त किया गया था, जो सभी आपराधिक तत्वों की ‘हिस्ट्रीशीट’ बनाकर रखता था। उनकी तस्वीरें थाने के नोटिस बोर्ड पर चिपकाई जाती थीं।

इससे नए पुलिस कर्मियों को इलाके तथा नियमित रूप में हवालात की हवा खाने वाले लोगों की पहचान करने में आसानी रहती थी। लेकिन आज के भारतीय शहरों में किसी सागर मंथन की तरह जीवन में हलचल होती रहती है। लोग लगातार अपने कामधंधे और शहरों के साथ अपने किराए के मकान भी नियमित रूप में बदलते रहते हैं। यानी कि शहरी इलाकों में कोई भी किसी का स्थायी पड़ोसी नहीं होता। लोग भी बदलते रहते हैं और इमारतें भी। सितम की बात तो यह है कि जीवन में इतना बदलाव आ जाने के बाद भी पुलिसगिरी का ढर्रा नहीं बदला है।

मध्यवर्गीय घरों में चोरी-चकारी के मामले हल करने के लिए पुलिस नौकरों को पकड़ कर थाने ले आती है और उन्हें तब तक पीटा जाता है जब तक कोई न कोई नौकर जुर्म की स्वीकारोक्ति नहीं कर लेता। किसी भी अपराध, यहां तक कि हत्या की भी कोई विधिवत जांच-पड़ताल नहीं होती। जो लोग गौरी लंकेश के हत्या स्थल पर सबसे पहले पहुंचे उन्होंने नोट किया कि वहां पर किसी का आना-जाना पहले की तरह जारी था। ऐसी स्थिति में फोरैंसिक प्रमाण या साक्ष्य कितनी देर तक बचे रह सकते हैं? इसी के समानांतर एक अन्य घटनाक्रम से भी पुलिस का कामकाज प्रभावित हुआ है और वह है पुलिस के ‘खबरी’ या मुखबिर का गायब होना।

पुलिस का मुखबिर केवल वही व्यक्ति हो सकता है जो अपराध स्थल के आसपास मौजूद रहा हो। यानी कि ऐसा व्यक्ति जो छोटा-मोटा गैर-कानूनी काम करता है और इस कारण पुलिस उससे सूचना हासिल करने के लिए उसे डरा-धमका सकती है या फिर उसे कोई लालच दे सकती है। आप या मेरे जैसे लोग पुलिस के मुखबिर नहीं बन सकते क्योंकि हमारा उन लोगों से कोई सम्पर्क नहीं होता जो अपराध करते हैं। बाबरी ढांचा विध्वंस तथा मुम्बई व सूरत में दंगों और फिर इनकी प्रतिक्रिया में हुए बम विस्फोटों के बाद पुलिस के पास मुखबिर नहीं रह गए थे। अधिकतर मुखबिर मुस्लिम थे और साम्प्रदायिक विद्वेष के चलते पुलिसगिरी का पुराना माडल धराशायी हो गया। उसके बाद जैसा रिपोर्टों से सिद्ध होता है आतंक के किसी भी मामले की जांच-पड़ताल पूरी नहीं हो रही।

आधुनिक फोरैंसिक ढंगों से जांच-पड़ताल करने की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं जबकि पुलिसगिरी का पुराना माडल अब कोई सार्थक परिणाम दिखाने के योग्य नहीं रह गया। 1996 में मुम्बई सैशन कोर्ट में जब मैं एक रिपोर्टर था तो श्याम केसवाणी ने मुझसे सम्पर्क किया। वह इकबाल मिर्ची के वकील थे जो कथित रूप में नशीले पदार्थों का व्यापारी था और भारत सरकार इंगलैंड से उसका प्रत्यार्पण करवाना चाहती थी। सी.बी.आई. ने इस संबंध में पैरवी करने के लिए 4 लोगों का एक दल लंदन बो स्ट्रीट मैजिस्ट्रेट की अदालत में भेजा था। 

केसवाणी ने मुझे आरोप पत्र की एक प्रति दी जो लगभग 200 पृष्ठों की थी। मैंने इसे पूरी तरह पढ़ा और पूरी फाइल में उसके मुवक्किल के नाम का उल्लेख केवल एक जगह पर आया था और वह भी अंतिम पृष्ठ पर। वहां एक लाइन में लिखा हुआ था ‘‘इस मामले में भी वांछित इकबाल मेमन उर्फ मिर्ची’’। यही एकमात्र साक्ष्य था जो भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया था। जैसा कि होना ही था इंगलैंड की अदालत ने उसका प्रत्यार्पण नहीं किया और वह मजे से इंगलैंड में ही रहता रहा। इस मामले में मैं कहूंगा कि उसका प्रत्यार्पण न होने के लिए हमारी पुलिस दोषी नहीं। पुलिस तो कठोर परिश्रम कर रही है लेकिन मिर्ची अभी भी उसी व्यवस्था के अंतर्गत कार्यरत है जो अंग्रेजों ने केवल आस-पड़ोस में अमन-कानून की स्थिति बनाए रखने के लिए तैयार की थी न कि जांच-परख के माध्यम से आपराधिक मामलों को हल करने के लिए। 

जापान में पुलिस और अदालतें 95 प्रतिशत से भी अधिक मामलों में अपराधियों को सजा दिलाने में सफल होती हैं। यानी कि यदि वहां की पुलिस किसी व्यक्ति को अपराध करते हुए पकड़ लेती है तो अदालत उसे दोषी सिद्ध करेगी ही। वहां भी इस प्रणाली के आलोचक मौजूद हैं क्योंकि यह प्रणाली भी भारत की तरह ही अक्सर यातनाओं के माध्यम से इकबालिया बयान हासिल करती है और इन्हीं के आधार पर केस का निपटारा होता है। यानी कि वहां की दंड व्यवस्था में भारत वाली सभी खामियां मौजूद हैं, फिर भी उनकी कारगुजारी हमसे कहीं अधिक संतोषजनक है और भारत में मुश्किल से 50 प्रतिशत अपराधियों को ही सजा मिल पाती है। भारत में अपराध को अंजाम देने वाले लोगों में से अधिकतर बचकर निकल जाते हैं। 

यहां तक कि गंभीर मामलों में भी ऐसा होता है। यही कारण है कि यदि गौरी लंकेश के कातिल तथा उनके वित्त पोषक कभी भी कटघरे में खड़े न किए जा सकें तो मुझे कोई हैरानी नहीं होगी। वास्तव में यह विफलता व्यक्तियों की नहीं बल्कि व्यवस्था की है। हम में से कुछ एक  यह मान लेते हैं कि कुछ व्यक्तिगत मामलों में यह व्यवस्था उल्लेखनीय काम करेगी। उनका ऐसा मत वास्तविकता पर नहीं बल्कि कोरे आशावाद पर आधारित होता है।

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