बिहारः टिक पाएगी 'बड़े भाई, छोटे भाई' की जुगलबंदी

Edited By ,Updated: 31 Jul, 2015 03:54 AM

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लालू व नीतीश जब जनता दल सरकार के दौरान साथ थे तो नीतीश लालू प्रसाद को बड़ै भाई साहब बोलते थे। यह सिलसिला उस वक्त भी जारी रहा जब लालू सत्ता से बाहर थे और नीतीश कुमार बिहार की कुर्सी पर भाजपा की मदद से विराजमान थे।

पटना (एम. के. प्रमोद): लालू व नीतीश जब जनता दल सरकार के दौरान साथ थे तो नीतीश लालू प्रसाद को बड़ै भाई साहब बोलते थे। यह सिलसिला उस वक्त भी जारी रहा जब लालू सत्ता से बाहर थे और नीतीश कुमार बिहार की कुर्सी पर भाजपा की मदद से विराजमान थे। नीतीश उस वक्त भी लालू को बड़े भाई साहब कहकर ही कटाक्ष करते थे। संयोगवश मौजूदा दौर में भी नीतीश कुमार, लालू प्रसाद को बड़े भाई ही बोल रहे हैं।


हालांकि नीतीश के इस बड़े भाई साहब की परिभाषा समय के साथ बदलती रही है। जब लालू की बिहार में अहमियत थी तो नीतीश उनकी ताकत की अहसास के चलते उन्हें भाई साहब बोलते थे। जब नीतीश खुद बिहार की सत्ता को संभाल रहे थे तो उन्हें नीचा दिखाने के लिए भाई साहब बोलते थे और अब नीतीश कुमार को चार्ल्स डारविन की योग्यतम की उत्तरजीविता (सर्वाइल अॉफ द फिटेस्ट) सिद्धांत का अहसास है। इसलिए वह लालू प्रसाद को बड़ा भाई बोल रहे हैं।


2014 का लोकसभा चुनाव तो इन दोनों बिहारी राजनीतिक तमाशाबीनों के लिए मानो कयामत लेकर ही आई। एक ओर जहां यूपीए को देश के मतदाताओं ने अलविदा कह दिया वहीं नीतीश कुमार को भी एनडीए का सत्ता में आना अच्छा इसलिए नहीं लगा कि जिस व्यक्ति से उन्हें एेसी नफरत थी कि पार्टी को भोज में आमंत्रित करने के बाद नीतीश ने आमंत्रण को इसलिए वापस ले लिया कि आमंत्रितों की टीम में नरेंद्र मोदी शामिल थे।


फिर वही व्यक्ति अगर देश का प्रधानमंत्री ही हो जाए तो फर्क जरूर पड़ता है। इसी नफरत के कारण उन्होंने एक गलती भी कर डाली मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर। यह उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया थी। हालांकि ज्यादा दिनों तक उन्हें कुर्सी से अलग रहना गंवारा नहीं था। जिस जीतन राम माझी को उन्होंने अपनी जगह बिठाया वही माझी उनकी आंखों की किरकिड़ी बन गए और आज तो वही मांझी उनके खिलाफ ताल भी ठोक रहे हैं। 


लेकिन पटना विश्वविद्यालय के छात्र रहे इन दोनों राजनीतिक पुरोधाओं (नीतीश व लालू) में शुरू से ही कुछ अंतर रहे हैं। एक की उच्चतर पढ़ाई इसी विश्वविद्यालय के बी.  एन. कालेज में हुई तो दूसरा बिहार कालेज अॉफ इंजीनियरिंग के छात्रावास से अपनी राजनीति की शुरुआत की जबकि दोनों के रुहानी पिता भी एक ही महान हस्ती जयप्रकाशनारायण थे। लालू प्रसाद को छात्रजीवन में वाकपट्टुता व मजकिया लहजे से लगाव था जबकि नीतीश कुमार को शुरू से ही साफ कपड़ों, स्वच्छ माहौल व किताबों से।


इसे संयोग कहें या कुसंयोग जब बिहार में लालू की तूती बोलती थी तो इसकी नकारात्मक शोहरत उनके साले साधु यादव को मिली। कहना गैरजरूरी है कि नीतीश कुमार के बेटे का नाम भी आम लोगों की जानकारी में नहीं है। यानी दोनों व्यक्तित्वों में मूल अंतर है। एक तरफ जहां लालू को समाज के पिछड़े वर्गों को सवर्णों के खिलाफ आवाज देने वाले के रूप में जाना जाता है तो नीतीश को बिहार के विकास पुरुष के रूप में। लेकिन फिर भी आज दोनों साथ हैं। 


दिल्ली में बदलते राजनीतिक समीकरण ने हमेशा से ही तीसरे विकल्प को आगे लाया है जो उस वक्त भी हुआ जब भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में तो उभरी लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार 13 दिनों से ज्यादा टिक नहीं पाई और एचडी देवगोड़ा प्रधानमंत्री बन गए। इस बार भी यही हुआ दिल्ली में कुर्सी पर बैठने वाले व्यक्ति में बदलाव के साथ ही देश की राजनीतिक फिजा बदलने लगी और कई राजनीतिक पुरोधाओं को लगने लगा कि अब वजूद बचाना मुश्किल है। इसी वजूद की रक्षा ने दो दुश्मनों (बड़े भाई और छोटे भाई) को लाकर एक साथ खड़ा कर दिया।


लेकिन यहां एक शब्द की चर्चा की जरूरत है जिसे लालू ने नीतीश से गला मिलाने के ठीक बाद ही कह दिया था। भाजपा को रोकने के लिए उन्होंने विषपाण कर लिया। उस वक्त भी लालू ने यह प्रतिक्रिया के रूप में बोला था और पार्टी सूत्रों से ही मिल रही जानकारी से भी पता चलता है कि ये दोनों नेता अभी भी एक दूसरे से बात करना पसंद नहीं करते। फिर इसे मजबूरी नहीं कहें तो क्या कहें कि लालू प्रसाद को विष पीना पड़ा। जो कुछ भी हो राजनीतिक समझ रखने वाले लोगों ने तो पहले ही कहना शुरू कर दिया था कि अब लालू प्रसाद को किसी भी तरह अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित करना है क्योंकि खुद की राजनीति के लिए तो वह न्यायालय के फैसले पर निर्भर करते हैं। शायद लालू की यही कमजोरी न चाहते हुए भी उन्हें नीतीश कुमार के करीब ला रही है।


लालू द्वारा अपने संतानों को राजनीति से जोड़ने की बात को उस वक्त भी बल मिला था जब उन्होंने पाटलिपुत्र संसदीय सीट के लिए रामकृपाल यादव की जगह अपनी बेटी मिसा भारती को आगे किया और नाराजगी में रामकृपाल ने पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। 


इन दोनों की राजनीतिक दूरी की बात रह रहकर इनके क्रिया कलापों से झलक ही जाती है। उदाहरण के तौर पर नीतीश द्वारा किए गए एक ट्विट लिया जा सकता है। नीतीश कुमार ने अपनी दिली इच्छा इस प्रकार व्यक्त की थी, जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग, चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग। यानी इस विष और भुजंग (सांप) से इन दोनों में कोई भी दूर नहीं हैं। फिर इनके हठबंधन को भी यही दोनों जानेंगे क्योंकि मतदाताओं को तो उनकी यह बात पल्ले नहीं पड़ने वाली है। उनकी यह दूरी बिहार में चल चुनावी गतिविधियों से भी झलकती है। चुनावी बैनरों से लालू नदारद हैं। मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में इन बैनरों में सिर्फ नीतीश कुमार ही नजर आते हैं। 


अगर बिहार में पार्टियों की राजनीतिक ताकत पर गौर करें तो 243 सीटों की विधानसभा में जदयू के पास 115 सीटें हैं, वहीं भाजपा 91 विधायकों के दूसरे स्थान पर है। 22 विधानसभा सदस्यों के साथ राजद का स्थान तीसरा है और सितारों की तरह टिमटिमाते हुए लोजपा के पास महज तीन विधायक ही हैं। अब सूबे में जातीय आधार पर मतदाताओं की संख्या व किसी खास जाति के खास पार्टी के साथ जुड़ान का अध्ययन भी जरूरी है।


एक आंकड़े के मुताबिक राज्य में यादव मतदाताओं की संख्या 14 फीसदी है। वहीं मुस्लिम मतदाता 16 फीसदी की हैसियत रखते हैं। कोयरी व कुर्मी जिससे नीतीश आते हैं, की संख्या सात फीसदी है। आर्थक रूप से पिछड़े मतदाता का सामर्थ्य 30 फीसदी की है और दलित जिस पर जीतन राम मांझी अपना हक जता रहे हैं, की संख्या 16 फीसदी है। साथ ही सवर्ण जिसे भाजपा का परंपरागत वोट माना जाता है 15 फीसदी के साथ चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाएंगे। आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों के झुकाव पर अनिश्चित की छाया है।


अगर इस आंकड़े को चुनावी सफलता का आधार मान लिया जाए तो नीतीश कुमार की स्थिति लचर नजर आती है, लेकिन नीतीश तो अपने को विकास पुरुष कहते हैं।      

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