क्या कश्मीरियों का ‘असली उद्देश्य’ पाकिस्तान में शामिल होना है

Edited By ,Updated: 05 Aug, 2015 02:03 AM

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कश्मीर इतना बदल गया है कि पहचान में नहीं आता। पांच साल से कम हुए हैं जब मैं पिछली बार श्रीनगर गया था...

(कुलदीप नैयर) कश्मीर इतना बदल गया है कि पहचान में नहीं आता। पांच साल से कम हुए  हैं जब मैं पिछली बार श्रीनगर गया था। इस बीच घाटी साफ तौर पर भारत विरोधी हो गई है। इसका मतलब यह नहीं है कि यह पाकिस्तान समर्थक हो गया है, भले ही श्रीनगर के भीतर कुछ हरे झंडे लहराते हैं। इसका असली मतलब है अलगाव, जो पहले भी महसूस होता था, अब नाराजगी में बदल गया है।

फिर भी, सूरज की तरह चमकने वाले इलाके जैसे डल झील और उसका किनारा पहले की तरह ही सामान्य है। पर्यटक हवाई अड्डे से सीधा इन जगहों पर पहुंच जाते हैं और इससे बेखबर होते हैं कि भीतरी इलाके उन उग्रवादियों के गढ़ हैं जो अभी भी हथगोले फैंकते हैं। मैं श्रीनगर में था जब हिंसा भड़की और शहर के भीतर कुछ हथगोले फैंके गए। मैं कश्मीरी पत्रकारों के एक संगठन के बुलावे पर श्रीनगर गया था। दिल्ली से कुछ और पत्रकारों को भी  बुलाया गया था। अचरज की बात थी कि जम्मू का कोई पत्रकार मौजूद नहीं था। निश्चित तौर पर किसी को बुलाया नहीं गया था।
 
कश्मीरियों का विरोध, जो कमोबेश शांतिपूर्ण है, स्वर और लहजे में इस्लामी है लेकिन ऐसा लगता है कि यह बात रखने का तरीका है, इसका तत्व नहीं। तत्व यही है कि कश्मीरी अपना अलग देश चाहते हैं। भारत में ज्यादातर लोगों को यह संदेह है कि आजाद कश्मीर सिर्फ दिखाने वाली बात है, कश्मीरियों का असली मकसद पाकिस्तान में शामिल होना है। लेकिन मैं इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हूं। आजादी का विचार सपने की तरह लगता है और इसने कश्मीरियों के दिल पर कब्जा कर लिया है। अगर यह कभी सच हो गया तो पाकिस्तान में मिलने का जोरदार समर्थन करने वाले भी अपना एजैंडा छोड़ कर आजादी मांगने वालों के साथ हो जाएंगे।
 
ये घटनाक्रम मुझे कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना के सोचने के तरीके की याद दिलाते हैं। उन्होंने पाकिस्तान की मांग इस सौदेबाजी के लिए उठाई थी कि एक हिन्दू-बहुल देश में मुसलमानों को ज्यादा से ज्यादा सहूलियत दिला सकें लेकिन जब उन्होंने  इस मांग के लिए मुसलमानों में जोरदार समर्थन देखा तो उन्होंने मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग को अपना लिया। शुरू में उन्हें पूरा विश्वास नहीं था, बाद में  वह इसके एकमात्र प्रवक्ता बन गए।
 
इसलिए कश्मीरियों की असली आकांक्षा को लेकर कोई शक नहीं होना चाहिए। मैं लोगों के गुस्से से भरे चेहरे देख सकता था जब मैंने अपने भाषण में कहा कि अगर कभी आजाद कश्मीर की मांग मान ली जाती है तो भारत के मुसलमानों को काफी मुश्किलें होंगी। हिन्दू यह दलील देंगे कि अगर 70 साल  भारत में रहने के बाद भी कश्मीरी मुसलमान आजादी चाहते थे तो भारत के करीब 16 करोड़ मुसलमानों की वफादारी का क्या भरोसा है?
 
सम्मेलन में इस दलील पर ध्यान भी नहीं दिया गया कि कश्मीर को एक अलग देश, जहां 98 प्रतिशत मुसलमान होंगे, बनाकर भारत अपनी सैकुलर व्यवस्था को जोखिम में नहीं डाल सकता है। ‘‘आपके मुसलमान आपकी समस्या हैं’’ कमोबेश यही जवाबी दलील थी। मुझे इसी तरह की प्रतिक्रिया की याद आती है जो पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार ने पाकिस्तान के बनने के बाद उस समय दी थी जब मैंने उनसे कहा था कि भारत के मुसलमान, जिनकी संख्या पाकिस्तान के मुसलमानों से ज्यादा थी, पाकिस्तान बनने की कीमत चुका रहे हैं। उन्होंने कहा था कि उन्हें एक मुस्लिम देश  पाकिस्तान को शक्ल देने के लिए त्याग करना पड़ा।
 
मुझे जिस बात ने सबसे ज्यादा निराश किया वह थी कश्मीर में बीच की स्थिति के लिए कोई जगह नहीं रह जाना, जो कुछ साल पहले तक मौजूद थी। रवैये में इतनी कठोरता आ गई है कि मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच सामाजिक संबंध भी तोड़ दिए गए हैं। अपने व्यक्तिगत उदाहरण का जिक्र करने का मुझे अफसोस है। अतीत में, यासीन मलिक मुझे खाने पर बुलाया करते थे और टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से लेकर अपने घर ले जाते थे।
 
सच है कि वह ‘अलगाववादी’ हो गए हैं लेकिन मैंने बेकार में उनके बुलावे का इंकार किया। मैं नहीं मानता कि श्रीनगर में मेरी मौजूदगी की जानकारी उन्हें नहीं थी। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, जिसके वे प्रमुख हैं, ने यह जानने के लिए कि भारत से कब कौन आता है, हवाई अड्डे पर अपने आदमी तैनात कर रखे हैं। यासीन मलिक को अलगाववादियों की ओर से जानकारी मिलती है।
 
मैंने यासीन का आमरण अनशन इस शर्त पर खत्म करवाया था कि सुरक्षा बलों की ओर से मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों की जांच मैं खुद करूंगा। एमनैस्टी इंटरनैशनल की जगह मेरी देखरेख में जांच के लिए वह राजी थे। हमने एक रिपोर्ट तैयार की और पाया कि यासीन के ज्यादातर आरोप सही हैं। पाकिस्तान के मीडिया ने रिपोर्ट को खूब छापा जिससे भारत सरकार को शॄमदगी झेलनी पड़ी थी।
 
ठीक है, यासीन कहते हैं कि वह भारतीय नहीं हैं लेकिन हमारे संबंध राष्ट्रीयता के आधार पर नहीं हैं। क्या कड़वाहट व्यक्तिगत संबंध को भी खत्म कर सकती है? क्या मैं यह समझूं कि मैंने कुछ बातें गलत समझ ली थीं और यह है कि राजनीतिक जरूरतों के आगे व्यक्तिगत संबंधों का कोई मतलब नहीं होने के कारण कश्मीर हमारे पीछे रह गया।
 
राजनीतिक उद्देश्यों के लिए  व्यक्तिगत संबंधों को पीछे धकेल देने का एक और उदाहरण देने के लिए एक और कश्मीरी नेता हैं शबीर शाह जो आज एक बदले हुए व्यक्ति हैं। वह मेरे चेले (शिष्य) की तरह थे। वह उस समय भारत-समर्थक थे। अब वह कट्टर विरोधी बन गए हैं। फिर भी, मैं नहीं जानता कि व्यक्तिगत संबंध क्यों खत्म हों। क्या शबीर के विचारों में बदलाव के लिए मुझे यह कीमत देनी है?
 
इसमें कोई शक नहीं है कि कश्मीर पर ध्यान देने की जरूरत है, खासकर उन लोगों के लिए जो सैकुलर और लोकतांत्रिक भारत में यकीन करते हैं। किसी भी तरह के विरोध से उन्हें अपने विश्वास से भटकना नहीं चाहिए। अगर वे बदलते हैं तो इसका मतलब होगा कि उनका पहले का विचार सिर्फ दिखावा था।
 
यह  पूरे भारत पर लागू होता है।  हम लोग उस दौर में हैं जब हमें आजादी दिलाने वाले महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के विचारों को ही चुनौती मिल रही है। इस बात से मुझे तकलीफ होती है कि कुछ लोग महात्मा गांधी की हत्या करने  वाले नत्थू राम गोडसे के विचारों की सराहना करने लगे हैं। भारत अपने स्वभाव पर सवाल उठाने लगेगा तो मुस्लिम बहुल कश्मीर असुरक्षित महसूस करेगा। एक कश्मीरी मुसलमान इंजीनियर, जो मुझे हवाई अड्डे तक छोडऩे आया था, ने बताया कि किस तरह बेंगलूर जैसी उदार जगहों पर भी उसे संदेह से देखा गया और पुलिस ने उसे परेशान किया।
 
पार्टियों ने राजनीति को जाति और धर्म की पहचान में सीमित कर दिया है। लोगों को उदार संगठनों और नेताओं के जरिए आवाज उठानी चाहिए और यह पक्का करना चाहिए कि जाति और धर्म का जहर फैले नहीं । अगर राष्ट्र विफल होता है तो कश्मीर और देश के कई हिस्से धर्म के कीचड़ में तड़पने लगेंगे। देश के लिए यह परीक्षा का समय है। 
 
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