भ्रामक विज्ञापनों से करें परहेज

Edited By ,Updated: 29 Apr, 2024 02:54 AM

avoid misleading advertisements

1989 में जब मैंने देश की पहली हिन्दी वीडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी की तो उसमें तमाम खोजी रिपोर्ट्स के अलावा एक स्लॉट भ्रामक विज्ञापनों को भी कटघरे में खड़े करने वाला था।

1989 में जब मैंने देश की पहली हिन्दी वीडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी की तो उसमें तमाम खोजी रिपोर्ट्स के अलावा एक स्लॉट भ्रामक विज्ञापनों को भी कटघरे में खड़े करने वाला था। यह वह दौर था जब प्रभावशाली विज्ञापन सिनेमा हाल के पर्दों पर दिखाए जाते थे या दूरदर्शन के कार्यक्रमों के बीच में। उस दौर में इन कमॢशयल विज्ञापनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने का प्रचलन नहीं था। इस दिशा में देश के कुछ जागरूक नागरिकों को बड़ी कामयाबी तब मिली जब उन्होंने सिगरेट बनाने वाली कंपनियों को मजबूर कर दिया कि वह सिगरेट की डिब्बी पर ये छापें ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’। 

चूंकि ज्यादातर विज्ञापन प्रिंट मीडिया में छपते थे और मीडिया कोई भी हो बिना विज्ञापनों की मदद के चल ही नहीं पाता। इसलिए मीडिया में भ्रामक विज्ञापनों के विरुद्ध प्रश्न खड़े करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। उस दौर में जिन विज्ञापनों पर हमने सीधा लेकिन तथ्यात्मक हमला किया उसकी कुछ रिपोर्ट्स थीं, ‘नमक में आयोडीन का धंधा’, ‘नूडल्स  खाने के खतरे’, ‘झागदार डिटर्जैंट का कमाल’, ‘प्यारी मारुति-बेचारी मारुति’ आदि। जाहिर है कि हमारी इन रिपोर्ट्स से मुंबई के विज्ञापन जगत में हड़कंप मच गया और हमें बड़ी विज्ञापन कंपनियों से प्रलोभन दिए जाने लगे, जिसे हमने अस्वीकार कर दिया क्योंकि हमारी नीति थी कि हम जनहित में ऐसे विज्ञापन बना कर प्रसारित करें जिनमें किसी कंपनी के ब्रांड का प्रमोशन न हो बल्कि ऐसी वस्तुओं का प्रचार हो जो आम जनता के लिए उपयोगी हैं। 

इस पूरे ऐतिहासिक घटनाक्रम का बाबा रामदेव के संदर्भ में यहां उल्लेख करना इसलिए जरूरी था ताकि यह तथ्य रेखांकित किया जा सके कि देश में झूठे दावों पर आधारित भ्रामक विज्ञापनों की शुरू से भरमार रही है। जिन्हें न तो मीडिया ने कभी चुनौती दी और न ही कार्यपालिका, न्यायपालिका या विधायिका ने। लोकतंत्र के ये चारों स्तंभ आम जनता को भ्रमित करने वाले ढेरों विज्ञापनों को देख कर भी आंखें मींचे रहे और आज भी यही स्थिति है। बाबा रामदेव के समर्थन में सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने ऐसे विज्ञापनों की सूची प्रसारित की है जिनके दावे भ्रामक हैं। जैसे त्वचा का रंग साफ करने वाली क्रीम या फलों के रसों के नाम पर बिकने वाले रासायनिक पेय या सॉफ्ट ड्रिंक पीकर बलशाली बनने का दावा या बच्चों के स्वास्थ्य को पोषित करने वाले बाल आहार, आदि। 

मेरे इस लेख का उद्देश्य न तो बाबा रामदेव और आचार्य बालाकृष्ण के उन दावों का समर्थन करना है जो आजकल सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। न ही ऐसे भ्रामक दावों के लिए बाबा रामदेव और आचार्य बालाकृष्ण को कटघरे में खड़ा करना है। इसलिए नहीं कि इन दोनों ही से मेरे नि:स्वार्थ गहरे आत्मीय संबंध हैं बल्कि इसलिए कि ऐसी गलती देश की तमाम बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने उत्पादनों को लेकर दशकों से करती आई हैं। तो फिर पतंजलि को ही कटघरे में खड़ा क्यों किया जाए? एक ही जैसे अपराध को नापने के दो अलग मापदंड कैसे हो सकते हैं?

‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय’ की भावना से बाबा रामदेव के सार्वजनिक जीवन के उन पक्षों को रेखांकित करना चाहता हूं जिनके कारण, मेरी नजर में आज बाबा रामदेव विवादों में घिरे हैं। इस क्रम में सबसे पहला विवाद का कारण है, उनका संन्यासी भेस में हो कर व्यापार करना। चूंकि बाबा रामदेव ने योग और भारतीय संस्कृति के बैनर तले अपनी सार्वजनिक यात्रा शुरू की थी और आज उनका पतंजलि साबुन, शैम्पू, बिस्कुट, कॉर्नफ्लैक्स जैसे तमाम आधुनिक उत्पाद बना कर बेच रहा है, जिनका योग और वैदिक संस्कृति से लेना देना नहीं है। 

अगर बाबा रामदेव की व्यापारिक गतिविधियां बहुत छोटे स्तर पर सीमित रहतीं तो वे किसी की आंख में न खटकते। पर उनका आॢथक साम्राज्य दिन दुगुनी और रात चौगुनी गति से बढ़ा है। इसलिए वे ज्यादा निगाह में आ गए हैं। साधु संन्यासियों को राजनीति से दूर इसलिए रहना चाहिए क्योंकि राजनीति वह काल कोठरी है जिसमें, ‘कैसो ही सयानों जाए-काजल का दाग भाई लागे रे लागे’। बाबा रामदेव ने अपने आंदोलन की शुरूआत तो भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध की थी पर एक ही राजनीतिक दल से जुड़ कर वे अपनी निष्पक्षता खो बैठे। इसीलिए वे आलोचना के शिकार बने। 

आंदोलन की शुरूआत में बाबा ने अपने साथ देश के तमाम क्रांतिकारियों और सामाजिक कार्यकत्र्ताओं को भी जोड़ा था। इससे उनकी विश्वसनीयता भी बढ़ी और जनता का उन पर विश्वास भी बढ़ा। पर केंद्र में अपने चहेते दल के सत्ता में आने के बाद बाबा उन सारे मुद्दों और क्रांतिकारिता को भी भूल गए। शुद्ध व्यापार में जुट गए। इससे उनका व्यापक वैचारिक आधार भी समाप्त हो गया। अगर वे ऐसा न करते और धन कमाने के साथ जनहित के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों और प्रकल्पों को उनकी आवश्यकता अनुसार थोड़ी-थोड़ी  आॢथक मदद भी करते रहते तो उनका जनाधार भी बना रहता और योग्य व 
जुझारू समर्थकों की फौज भी उनके साथ खड़ी रहती। 

जहां तक बाबा की आॢथक गतिविधियों से संबंधित विवाद हैं या उनके उत्पादों की गुणवत्ता से संबंधित सवाल हैं उन पर मैं यहां टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। मुझे लगता है कि आयु, क्षमता और ऊर्जा को देखते हुए बाबा रामदेव में इस देश का भला करने की आज भी असीम संभावनाएं हैं अगर वे अपने तौर-तरीकोंं में वांछित बदलाव कर सकें। -विनीत नारायण

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