एक ‘राष्ट्रीय योद्धा’ का बलिदान

Edited By ,Updated: 12 Feb, 2016 12:47 AM

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आखिर हनुमनथप्पा सूर्यलोक सिधार गए। वे उन 10 जवानों में थे जो बर्फीले चक्रवात में फंसकर दब गए। 6 दिन बाद उन्हें जीवित पाया गया

(तरुण विजय): आखिर हनुमनथप्पा सूर्यलोक सिधार गए। वे उन 10 जवानों में थे जो बर्फीले चक्रवात में फंसकर दब गए। 6 दिन बाद उन्हें जीवित पाया गया तो पूरे राष्ट्र ने खुशी मनाई और संभवत: जो संवेदना एवं भावनाएं बड़े-बड़े राष्ट्रनायकों के लिए व्यक्त नहीं होतीं वे करोड़ों भारतीयों ने हनुमनथप्पा के लिए व्यक्त कीं। शायद ही कोई ऐसा विद्यालय, दफ्तर या संस्थान होगा और विरला ही कोई ऐसा घर होगा जहां सबने मन से हनुमनथप्पा के लिए प्रार्थनाएं न की हों। अचानक देश को एक नया वीरनायक, वीरयोद्धा और अपना अत्यंतप्रिय दोस्त मिल गया था जिसके लिए हर कोई मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में प्रार्थना कर रहा था। यह एक चमत्कार ही था। हनुमनथप्पा सिर्फ सैनिक के नाते नहीं बल्कि अदम्य साहस और जीवट दिखाते हुए मृत्यु को चुनौती देने वाले भारतीय के नाते हमारे दिलों में हिमालय से भी ऊंचे स्थान पर प्रतिष्ठित हुए हैं।

 
ऐसा कैसे संभव हुआ? आमतौर पर कहा जाता है कि समाज में धीरे-धीरे सैनिकों के प्रति सम्मान का यह भाव नहीं दिखता जो पहले पाया जाता  था। जब सैनिक छुट्टी पर घर आते हैं तो उनके पास समय कम और समस्याएं ज्यादा होती हैं, लेकिन शासन-प्रशासन में शायद ही कोई उनकी विशेष मदद करता हो। 
 
देखने में आता है कि खाकी वर्दी धारी पुलिस का सिपाही अपने इलाके में ज्यादा रौब और काम कराने में चुस्ती दिखाता है लेकिन सीमा पर तैनात सैनिक जब कुछ दिनों के लिए घर आता है तो बच्चों के स्कूल में प्रवेश, मां, बहन, पत्नी की समस्याएं, उनकी चिकित्सा, बूढ़े होते पिता के कामकाज, इन सबका समाधान निकालना उसके जिम्मे होता है। वह तंगहाली में रहता है। उसे दफ्तर के बाबुओं और अफसरों के पास जाना पड़ता है। लेकिन आमतौर पर यही सुनने में आता है कि उसकी मदद कम ही होती है या बहुत कठिनाई झेलकर होती है। अगर वह सीमा पर शहीद हो जाता है तो उसके परिवार की दुखद स्थिति का अंदाजा लगाना संभव नहीं है। जब शहीद सैनिक की पाॢथव देह उसके गांव लाई जाती है, तो वहां के नेता, मुख्यमंत्री या अधिकारी शायद ही कभी उसके सम्मान के लिए आते हों। 
 
शहीद की पत्नी और परिवार के प्रति संवेदना व्यक्त करने तक का समय न तो हमारे मुख्यमंत्रियों को मिलता है न बाकी नेताओं को। वे अपने निजी सचिव या मातहत अधिकारियों को फूल देकर भेज देते हैं और अपने कत्र्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जिस विद्यालय में वह शहीद सैनिक पढ़ा होता है उस विद्यालय तक में उसका जीवन परिचय नहीं बताया जाता।
 
पिछले वर्ष देहरादून के निवासी कर्नल गुलाटी की कश्मीर में शहादत हुई। आज से ठीक एक साल पहले यानी 11 फरवरी 2015 को। उनकी पाॢथव देह को जब अग्नि दी जा रही थी तब केवल मित्र और रिश्तेदार ही थे। उनका एक बेटा है सक्षम। 12 वर्ष की आयु। वह मानसिक रूप से विशेष सक्षम वर्ग में आता है। ऐसे बच्चों के लिए न तो पर्याप्त संख्या में विद्यालय हैं और न ही सामान्य विद्यालयों में उनके लिए विशेष परामर्शदाता एवं सहायक होते हैं। 
 
कर्नल गुलाटी की 32 वर्षीय पत्नी पर दुख और संकट का पहाड़ टूट पड़ा। सेना ने पूरी सहायता की और दिल्ली में उन्हें आवास तथा पर्याप्त आॢथक सहायता भी प्रदान की। लेकिन अकेले बच्चे के साथ जीवन जीना कितना कठिन होता है। अच्छे से अच्छे विद्यालय में जहां उस बच्चे के लिए विशेष शिक्षा की व्यवस्था हो सकती थी, उस शहीद सैनिक के बेटे को प्रवेश नहीं मिला। सब जगह या तो बहुत बड़ी मात्रा में डोनेशन का प्रावधान था या सिफारिशें चलती थीं। ये दोनों ही श्रीमती गुलाटी के पास नहीं थे। लगातार दुख झेलने के कारण वह स्वयं डिप्रैशन की शिकार हो गई- न कहीं जाना, न किसी से बात करना केवल दवा और बेटे के प्रति ममता के सहारे जीवन बिता रही है।
 
वे लोग जो आज हनुमनथप्पा की शहादत पर दुख और संवेदनाएं व्यक्त कर रहे हैं, उन्हें शहीद सैनिकों के प्रति ही नहीं बल्कि जो सैनिक मुस्तैदी से सरहद पर देश की रक्षा कर रहे हैं, उनके प्रति भी अपना दृष्टिकोण सम्मान एवं संवेदना का ही रखना चाहिए। अक्सर रेलगाडिय़ों में हम देखते हैं कि सेना के जवान शायद जल्दी में बर्थ आरक्षित न होने के कारण अपने बक्से पर बैठे हुए ही सफर करते हैं। कितने यात्री ऐसे होते होंगे जो अपनी बर्थ पर थोड़ा सिकुड़ कर उस सैनिक को भी अपने साथ बिठा लें और सम्मान के साथ ले चलें? केवल वीरता के गीत गाना और शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए ट्विटर या फेसबुक पर अपनी भावनाएं व्यक्त करना ही पर्याप्त नहीं। 
 
आज सेना के तीनों अंगों में अफसरों की कमी क्यों दिखती है? क्योंकि लगभग सभी नेताओं के बच्चे सेना में नहीं जाना चाहते। वे केवल मोटी कमाई के धंधों में करियर ढूंढते हैं। धनी और प्रभावशाली लोग अपने बच्चों को सिविल अधिकारी, एम.बी.ए., डाक्टर या अन्य व्यवसायों में भेजते हैं। सैक्युलर एवं वामपंथी प्रभाव के कारण सैनिक के रूप में जीवन बिताना हमारे समाज और घरों में सर्वोच्च स्थान नहीं पाता। पहले सैनिक अधिकारी बनना समाज और रिश्तेदारों में बहुत इज्जत तथा रौब की बात मानी जाती थी, आज इस भावना में कमी देखी जाती है। इसीलिए सेना को बार-बार भर्ती के लिए विज्ञापन देने पड़ते हैं। 
 
हमारी शिक्षा पद्धति में ऐसा परिवर्तन किस प्रकार लाया जाए कि नई पीढ़ी में सेना के प्रति सम्मान बढ़ता जाए। पिछले दिनों मोदी सरकार ने परमवीर चक्र विजेताओं पर एक पुस्तक का प्रकाशन किया जिसका स्वागत होना चाहिए, लेकिन विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में वीर सैनिकों के जीवन चरित्र एवं उनकी पराक्रम गाथाएं शामिल कर सेना के प्रति श्रेष्ठता और श्रद्धा का भाव पैदा करना हनुमनथप्पा जैसे वीर सैनिकों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।   

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