कांग्रेस की नई समस्या ‘पैसे की कमी’

Edited By ,Updated: 13 Jan, 2015 04:57 AM

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वर्तमान ग्रेट इंडियन पालिटिकल सर्कस में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता मोदी दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए ‘आप’ के छुटभैये नेता केजरीवाल के सामने खड़े हैं और दोनों ही बड़े-बड़े वायदे कर रहे हैं ...

(पूनम आई. कौशिश) वर्तमान ग्रेट इंडियन पालिटिकल सर्कस में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता मोदी दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए ‘आप’ के छुटभैये नेता केजरीवाल के सामने खड़े हैं और दोनों ही बड़े-बड़े वायदे कर रहे हैं किन्तु भारतीय राजनीति की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने वास्तव में हार मान ली है और इसके सामने वास्तव में एक समस्या है। इसके पास पैसों की कमी है। एक अनाधिकारिक संदेश में कांग्रेस अध्यक्षा ने उन चीजों की सूची पदाधिकारियों को भेजी है जो उन्हें नहीं करनी हैं। इनमें बैठकों में चाय-बिस्कुट का प्रावधान न किया जाए। पैट्रोल भत्ते में कटौती की गई है। हवाई यात्रा के लिए बिल्कुल मना किया गया है और यदि अपरिहार्य हो तो इकोनॉमी क्लास में यात्रा की जाए या रेलगाड़ी से यात्रा की जाए। राज्यों और स्थानीय चुनावों के लिए चुनाव खर्च में भी कमी की गई है। कुल मिलाकर उनका संदेश है कि मितव्ययता बरतो अर्थात एक कंजूस की तरह खर्च करो।

यह राजनीति की अजीब वास्तविकता है। जहां पर पैसा प्रदूषित और भ्रष्ट राजनीति और राजनेताओं को आगे बढ़ाता है। हाल ही में सम्पन्न 4 राज्य विधानसभाओं के चुनावों से मेरे भारत महान की कटु सच्चाई धन बल का प्रभाव स्पष्ट हो गया है कि मनी है तो पावर है किन्तु महाराष्ट्र, हरियाणा, आंध्र प्रदेश और झारखंड के सम्पन्न राज्यों में कांग्रेस की करारी हार के बाद उसे नकदी मिलना बंद हो गया है। यही नहीं बल्कि उसे एक कटु राजनीतिक सच्चाई का भी सामना करना पड़ रहा है कि जो पार्टी चुनाव हारती है और जिसका भविष्य उज्ज्वल नहीं होता है, उसे पैसा नहीं मिलता है।

इससे एक मूल प्रश्र उठता है कि कोई व्यक्ति किसी पार्टी या नेता पर पैसा क्यों लगाए? क्या यह चंदा परमार्थ के लिए दिया जाता है? क्या यह चंदा अपनी पसंद की पार्टी या विचारधारा को दिया जाता है? किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है। यह पूर्णत: एक व्यापार और लेनदेन है। जो व्यक्ति किसी पार्टी को पैसा देता है बदले में वह उससे अपना काम करवाता है। इसीलिए व्यवसायियों और उद्योगपतियों को किंगमेकर और गद्दी के पीछे की ताकत तथा राजनीतिक बीमा कहा जाता है। विशेषकर कुछ चुनिंदा शीर्ष औद्योगिक घराने सत्ता के गलियारों में अपने प्रभाव और राजनीतिक बीमा की बात करते रहते हैं।

एक उद्योगपति के अनुसार, ‘‘कोई भी किसी पार्टी के साथ इसलिए नहीं दिखना चाहता कि कहीं वह गलत पार्टी के साथ खड़ा न हो जाए और उससे उसका बुरा हो जाए। उस स्थिति में जो पार्टी चुनाव जीतती है वह उसकी कम्पनी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर सकती।’’ इसलिए केन्द्र या राज्यों में जो पार्टी सत्तारूढ़ होती है उसे ढेर सारा चंदा मिलता है। 2014 के आम चुनावों के बाद निर्वाचन आयोग के समक्ष दायर शपथ-पत्रों से स्पष्ट होता है कि अनेक औद्योगिक घरानों ने भााजपा को उदारतापूर्वक चंदा दिया और वह इस आशा में दिया कि मोदी भारत की राजगद्दी पर विराजमान होंगे। एक इस्पात उद्योगपति ने 50 करोड़ रुपए का और एक अन्य आप्रवासी उद्योगपति ने 50 मिलियन डालर का चंदा दिया। यह बताता है कि सत्तारूढ़ पार्टी को औद्योगिक घरानों से उदारतापूर्वक दान मिलता है और बदले में वे औद्योगिक घराने भी लाभान्वित होते हैं। स्मरणीय है कि चंदा देने के बाद वेदान्ता ने सरकारी क्षेत्र की कंपनी भारत एल्यूमीनियम कंपनी का अधिग्रहण किया और एक अन्य उद्योगपति को राजमार्ग निर्माण का ठेका दिया गया। एक अन्य उद्योगपति ने कांग्रेस को 3 करोड़ का चंदा दिया और कुछ माह के भीतर उसे पार्टी में शामिल कर दिया गया किन्तु उसने भाजपा को सबसे अधिक चंदा दिया और इस प्रकार उसने दोनों पार्टियों को खुश करने का प्रयास किया।

राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले एक घाघ उद्योगपति के शब्दों में, ‘‘कुछ अपवादों को छोड़कर कार्पोरेट जगत/ उद्योगपति राजनीतिक लहर को देखकर तथा राजनीतिक दृष्टि से गलत पक्ष से सुरक्षित दूरी बनाकर चंदा देते हैं।’’ निर्वाचन आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2004-05 में भाजपा को 155 करोड़ रुपए का चंदा मिला जबकि 2007-08 में वह कम होकर 137 करोड़ रुपए रह गया था। इसी तरह 2002-03 में कांग्रेस को केवल 53 करोड़ चंदा मिला था जबकि 2007-08 में बढ़कर यह 265 करोड़ रुपए हो गया था। 2002-03 में बसपा को केवल 11 करोड़ रुपए चंदा मिला जबकि 2007-08 में बढ़कर यह 55.6 करोड़ हो गया। यह बताता है कि हमारी राजनीति में उद्योग घराने किस तरह पैठ बना रहे हैं, जिसके खतरनाक परिणाम होंगे।

वर्ष 2003-04 के चंदे के आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि किस प्रकार सत्तारूढ़ पार्टी को अन्य पार्टियों से अधिक चंदा मिलता है। उस दौरान कांग्रेस को आधिकारिक रूप से केवल 2.81 करोड़ रुपए का चंदा मिला जबकि भाजपा को केवल 11.69 करोड़ रुपए का चंदा मिला। यह पैसा छोटे-छोटे ट्रस्टों के नाम से दिया जाता है और कई बार उद्योग घरानों द्वारा सीधे दिया जाता है।

यह बताता है कि उद्योग जगत और राजनीति के बीच किस तरह के संबंध हैं। नेहरू के जमाने में उद्योगपतियों ने कांग्रेस को चंदा दिया और अर्थव्यवस्था के राज्य द्वारा विनियमन की नीतियों को प्रभावित किया तथा परमिट प्राप्त किए। इंदिरा गांधी ने चालाकी से कम्पनी कानून में संशोधन कर चंदा देने पर रोक लगाई। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि केवल सत्तारूढ़ पार्टी को परोक्ष रूप से पैसा मिले। लाइसैंस और परमिटों को चाट और मूंगफली की तरह बेचा गया जिसके कारण कुख्यात ब्रीफकेस राजनीति की शुरूआत हुई और काला धन कांग्रेस के खजाने में आने लगा।

राजीव गांधी ने नेहरू का अनुसरण किया और कम्पनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने की अनुमति दी। नरसिम्हा राव का कार्यकाल भी हवाला घोटाले में फंसा रहा और यह बताता है कि राजनीति में किस प्रकार काला धन आता है। गठबंधन के युग में उद्योगपतियों ने राष्ट्रीय स्तर पर 1-2 पार्टियों को चंदा देने की बजाय प्रत्येक राज्य में प्रमुख पार्टी को चंदा दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि अपने हितों को साधने के लिए यदि कोई कम्पनी किसी राज्य में किसी एक पार्टी को चंदा देती तो दूसरे राज्य में उसकी प्रतिद्वंद्वी पार्टी को चंदा देती है।

यही नहीं, जाति और पंथ का वोट बैंक की राजनीति का आधार बनने के कारण पार्टियों को वोट खरीदने तथा रैलियों के लिए भीड़ जुटाने के लिए भी पैसों की जरूरत पडऩे लगी। यह बात सभी जानते हैं कि ऐसी रैलियों की दर प्रति व्यक्ति 200 रुपए और खाने के पैकेट होते हैं। पैसे का उपयोग मतदान केन्द्रों पर कब्जा करने, मतदाताओं को मतदान केन्द्र तक पहुंचाने, चुनावी कार्यकत्र्ताओं का मनोरंजन करने आदि के लिए भी किया जाता है। इसीलिए अधिकतर पार्टियां और उनके नेता अपना अधिकतर समय पैसा बनाने में बिताते हैं।

आज स्थिति यह बन गई है कि अधिकतर राजनेता राजनीति को एक ऐसा व्यवसाय मानते हैं जिससे लोक पद या सरकारी शक्ति मिलती है। वे राजनीतिक दलों में इसलिए शामिल होते हैं ताकि वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकें और उसके बाद न केवल पार्टी के लिए अपितु अपने लिए और अपने चुनावी खर्च के लिए पैसा जुटाते हैं।

हाल ही के वर्षों में सरकार द्वारा पार्टी फंड- गैर चुनाव और चुनाव के दौरान पार्टी फंड के वितरण और व्यय को विनियमित करने के लिए कानून लाने का प्रयास किया गया साथ ही यह भी प्रयास किया गया कि पाॢटयां अपने खातों को नियमित रूप से बनाए रखें और उनकी लेखा परीक्षा करें ताकि इसमें पारदर्शिता आए किन्तु व्यवसायियों और उद्योगपतियों की तरह राजनेता भी नियंत्रण और विनियमन के विचार से ही बिदक जाते हैं। इसीलिए कोई भी पार्टी चाहे वह विपक्ष में रहते हुए इसके बारे में कुछ भी क्यों न कहे किन्तु उसने कभी भी पार्टी फंड में काले धन के प्रवाह को रोकने और अपने खातों की लेखा परीक्षा कराने का ईमानदारी से प्रयास नहीं किया है और इसका कारण स्पष्ट है।

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