भवन लोकतंत्र का, भावना राजतंत्र की

Edited By ,Updated: 30 May, 2023 05:11 AM

building of democracy spirit of monarchy

‘‘सवाल भवन का नहीं भावना का है।’’ जब मुझसे संसद के नए भवन पर प्रतिक्रिया मांगी गई तो बरबस मेरे मुख से यह बात निकली। सवाल यह नहीं है कि भारतीय संसद को एक नए भवन की जरूरत थी या नहीं।

‘‘सवाल भवन का नहीं भावना का है।’’ जब मुझसे संसद के नए भवन पर प्रतिक्रिया मांगी गई तो बरबस मेरे मुख से यह बात निकली। सवाल यह नहीं है कि भारतीय संसद को एक नए भवन की जरूरत थी या नहीं। कई सांसदों ने कहा है कि पिछली इमारत अब काम लायक नहीं बची थी और नए जमाने की जरूरत के मुताबिक उपयुक्त नहीं थी। मैं अब भी किफायती मिजाज का हूं, हमेशा फिजूलखर्च से बचने की सोचता हूं। मुझे तो लगता था कि पुरानी इमारत की मुरम्मत और नवीनीकरण हो सकता था। 

यूं भी गरीब-गुरबा के इस लोकतंत्र की प्रतीक कोई भव्य इमारत हो, यह बात जंचती नहीं। लेकिन मैंने तो कभी यह इमारत इस्तेमाल नहीं की, हो सकता है जो वहां रोज जाते हैं, उन सांसदों की बात सही हो। हो सकता है नया भवन ही एकमात्र विकल्प हो। संभव है कि यह भवन पिछले से बेहतर हो। बेशक यह बेहतर सुविधाओं और तकनीक से लैस होगा लेकिन यह असली सवाल नहीं है। सवाल है कि यह नया भवन किस भाव का प्रतिनिधित्व करता है। 

सरकारी और दरबारी लोगों की मानें तो संसद का यह नया भवन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की ताकत का भव्य प्रतीक है। जाहिर है विपक्षी दल इस दावे की खिल्ली उड़ाते हैं। पिछले 9 वर्ष में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जो भी उपलब्धियां रही हों, उनके समर्थक भी यह कहने में संकोच करेंगे कि उन्होंने लोकतांत्रिक मर्यादा और संसदीय परंपराओं का सम्मान किया है। उनके कार्यकाल में संसद के सत्र छोटे हुए, बिना बहस के पास हुए कानूनों की संख्या बढ़ी है। पहली बार राज्यसभा में बिना वोटिंग करवा कानून पास किए गए। पहली बार बजट और वित्त विधेयक की आड़ में सामान्य कानून को ऊपरी सदन से बाईपास करवाया गया। पहली बार विपक्ष के नेताओं के बोलते वक्त कैमरा बंद करवाया गया, उनका माइक भी बंद हुआ। पहली बार सत्ताधारी दल ने हो-हल्ला कर संसद की कार्रवाई बंद करवाई। पहली बार विपक्ष के बड़े सांसद की सदस्यता निरस्त करवाने का खेल खेला गया। यह लाजिमी है कि जिस संसद की गरिमा घट रही हो, उसके लिए भव्य भवन का निर्माण सवाल खड़े करेगा। 

भवन के उद्घाटन से जुड़े विवाद को किसी रोशनी में देखना चाहिए। तकनीकी रूप से यह अनिवार्य नहीं कि उद्घाटन राष्ट्रपति के हाथों ही होता। वैसे यह भी कहीं नहीं लिखा कि 26 जनवरी की परेड की सलामी राष्ट्रपति ही ले। यह सब लोकतंत्र की परिपाटियां हैं और निस्संदेह इस बार उस मर्यादा का उल्लंघन हुआ है। यह संभव है कि विपक्ष ने उद्घाटन समारोह का बायकाट करने का मन पहले से बना लिया हो और यह तकनीकी आपत्ति की हो लेकिन यह भी सच है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस आयोजन का इस्तेमाल अपनी व्यक्तिगत छवि निर्माण के लिए करना चाहते थे और उस फोटो में किसी को आड़े नहीं आने देना चाहते थे, महामहिम राष्ट्रपति को भी नहीं। कल तक देश की जिस पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति को पूरे देश की आन, बान, शान का प्रतीक बताया जा रहा था, उसे ऐतिहासिक अवसर से किनारे कर देना यह सवाल खड़ा करता है कि कहीं इस सरकार को भारत के गणतांत्रिक चरित्र से परेशानी तो नहीं है? 

किसी समारोह से जुड़े अनेक प्रतीक सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा करते हैं। इसे विनायक दामोदर सावरकर के जन्मदिन 28 मई के दिन आयोजित करना एक गहरा इशारा है। ज्ञात रहे कि सावरकर लोकतंत्र के हिमायती नहीं थे, वह हिटलर और मुसोलिनी के प्रशंसक थे। इस अवसर पर धर्मगुरुओं की उपस्थिति और मुख्यत: एक धार्मिक समुदाय की रस्म का इस्तेमाल होना भारत के पंथ निरपेक्ष चरित्र से मेल नहीं खाता। सेंगोल रूपी राजदंड को म्यूजियम से निकाल कर उसका मिथक बनाकर उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में सौंपना कहीं न कहीं इस समारोह को राज्याभिषेक का स्वरूप देता है, लोकतंत्र नहीं राजतंत्र की छवि बनाता है। 

अगर 28 मई की परिघटना का भाव समझने में कोई संदेह की गुंजाइश थी तो उसे सड़क पर महिला पहलवानों के साथ हुई बदसलूकी ने पूरा कर दिया। असहमति की अभिव्यक्ति लोकतंत्र के प्राण हैं। लोकतंत्र के मंदिर के उद्घाटन अवसर पर असहमति को कुचलना  उस मंदिर को मैला करता है। यह बदसलूकी किसी भी नागरिक के साथ नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक ओलिम्पियन खिलाडिय़ों के साथ करना सत्ता की निरंकुशता का परिचायक है और वह भी एक ऐसे नेता को बचाने के लिए, जिस पर नाबालिग लड़कियों द्वारा यौन शोषण के गंभीर आरोप लगे हों। महिला पहलवानों को पुलिस द्वारा घसीटने की छवियों ने दुनिया भर में भारतीय लोकतंत्र के नाम को कलंकित किया है। 

इतिहास गवाह है कि अहंकारी तानाशाह विराट स्मारक और भव्य भवन बनाने के शौकीन होते हैं। जो संसद सिर्फ रबर स्टैंप होती है, उनके भवन भी अक्सर बहुत भव्य होते हैं। लेकिन इतिहास यह भी दिखाता है कि अंतत: लोक भावना सत्ताधारियों की भावना से ज्यादा मजबूत साबित होती है। अगर भारतीय लोकतंत्र ने अंग्रेजों के बनाए संसद भवन को लोकतंत्र की भावना से ओत-प्रोत कर दिया तो यह भरोसा भी रखना चाहिए कि संसद के इस नए भवन पर आज के सत्ताधारियों की भावना बहुत देर हावी नहीं रहेगी। निरंकुश सत्ता के इरादों पर लोकतंत्र की जीत होगी।-योगेन्द्र यादव

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