क्या प्रियंका कांग्रेस का ‘पुनरुद्धार’ कर पाएंगी

Edited By ,Updated: 29 Jan, 2019 03:20 AM

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अंतत: आधिकारिक रूप से प्रियंका वाड्रा ने कांग्रेस में प्रवेश कर लिया है और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का कांग्रेस महासचिव बनाया गया है। उनके पार्टी में प्रवेश से कांग्रेस में एक नई जान आई है। हालांकि हाल ही में कांग्रेस ने 3 राज्यों में जीत दर्ज की...

अंतत: आधिकारिक रूप से प्रियंका वाड्रा ने कांग्रेस में प्रवेश कर लिया है और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का कांग्रेस महासचिव बनाया गया है। उनके पार्टी में प्रवेश से कांग्रेस में एक नई जान आई है। हालांकि हाल ही में कांग्रेस ने 3 राज्यों में जीत दर्ज की थी।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के कार्यकत्र्ताओं के हौसले बुलंद हैं क्योंकि कांग्रेस ने 440 वोल्ट का झटका अर्थात ब्रह्मास्त्र चला दिया है यानी प्रियंका ने सक्रिय राजनीति में प्रवेश कर लिया है। अब तक प्रियंका राजनीति में प्रवेश के लिए अनिच्छा जाहिर करती रही हैं और वह अपनी मां सोनिया के निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली और भाई राहुल के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी में चुनाव प्रचार की प्रभारी रही हैं किंतु अब वह राजनीतिक मोर्चे पर लडऩे के लिए तैयार हैं। 

2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के बाद वह कांग्रेस की रणनीतिक बैठकों में भाग लेती रही हैं। उम्मीदवारों के चयन तथा चुनाव प्रचार में राहुल की मदद करती रही हैं। कांग्रेस के युवा नेताओं और वरिष्ठ नेताओं के बीच मतभेदों को कम करने में मदद करती रही हैं और पार्टी को चुनावों में ध्यान केन्द्रित करने में अपनी ऊर्जा लगाती रही हैं। पार्टी ने 47 वर्षीय प्रियंका को सक्रिय राजनीति में उतारा है जो नेहरू-गांधी परिवार की राजनीति में आखिरी सेवक हैं और उनको राजनीति में लाने का कारण यह है कि विभिन्न रायशुमारी में उत्तर प्रदेश में मतदाताओं का कांग्रेस के प्रति मोह भंग दिखाया जा रहा था तथा सपा-बसपा के गठबंधन और मोदी की भाजपा में मुकाबले के बीच कांग्रेस का राज्य में सफाया होने के आसार थे और अब आशा की जा रही है कि वह मरणासन्न पार्टी में नई जान डालेंगी। 

राजनीतिक विश्वसनीयता
इससे प्रश्न उठता है कि प्रियंका की राजनीतिक विश्वसनीयता क्या है। क्या वह देरी से राजनीति में आई हैं? क्या उनके पास राजनीतिक विषमताओं का मुकाबला करने और अपने पति राबर्ट वाड्रा से जुड़े व्यक्तिगत विवादों का मुकाबला करने का साहस है? क्या वह अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह राजनीति में तूफान लाएंगी जो लाबेलची नरसंहार के बाद हाथी पर सवार होकर लोगों से पूछती थी ‘‘लोग कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं देश बचाओ।’’ क्या वंशवाद कांग्रेस के लिए रामबाण और देश के लिए बुरा है? पार्टी कब तक इस परिवार की पृष्ठभूिम और बलिदानों पर निर्भर रह सकती है? प्रियंका की विरासत समृद्ध है। 

नेहरू-गांधी परिवार ने देश को उनके नाना नेहरू, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव के रूप में तीन प्रधानमंत्री दिए और उनकी मां सोनिया 10 वर्ष के यू.पी.ए. शासन में पार्टी अध्यक्षा रहीं और उन्हें ही असली ताकत माना जाता रहा। इसके अलावा प्रियंका की शक्ल अपनी दादी इंदिरा गांधी से मिलती है और कांग्रेसी नेता मानते हैं कि वह पार्टी का पुनरुद्धार कर सकती हैं और भाजपा द्वारा अगड़ी जाति में गरीब लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण कोटा देने के बाद पार्टी में नई जान फूंक सकती हैं और नेहरू-गांधी परिवार की अगुवाई कर सकती हैं। 

इंदिरा की तरह उनके विचारों में स्पष्टता है और उनमें आत्मविश्वास है। साथ ही वह आसानी से जनता से जुड़ जाती हैं। वह पहले ही मोदी पर कटाक्ष कर रही हैं कि देश को चलाने के लिए 56 इंच का सीना नहीं अपितु एक बड़े हृदय की आवश्यकता होती है। गांधी परिवार के एक निष्ठावान नेता के अनुसार वह स्वाभाविक रूप से नेता हैं जो भीड़ को खींच सकती हैं जबकि राहुल गांधी सौम्य हैं।

गत वर्षों में अनेक बार सोनिया ने कांग्रेसी नेताओं द्वारा प्रियंका को पार्टी में शामिल करने की मांग को खारिज किया। कारण स्पष्ट था कि उनकी बेटी का व्यक्तित्व करिश्माई है और वह राजनीति की दृष्टि से भी कुशल दिखती हैं। वह आसानी से मीडिया की नजरों में भी आ जाती हैं और राजनीतिक दृष्टि से राहुल और अपने प्रतिद्वंद्वियों को धूल चटा सकती हैं। राजनीतिक दृष्टि से उनमें सक्रिय राजनीति के अनुभव का अभाव है। उससे पूर्व वह रायबरेली और अमेठी में चुनाव प्रबंधक ही रही हैं। प्रियंका के प्रवेश से पार्टी पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह समय ही बताएगा किंतु फिलहाल पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थिति कांग्रेस के अनुकूल नहीं है। 

मतदाताओं को संदेश
2009 में पार्टी ने उत्तर प्रदेश से 21 सीटें जीती थीं जिनमें से 15 सीटें पूर्वी उत्तर प्रदेश से थीं किंतु 2014 में अमेठी और रायबरेली के अलावा पार्टी कोई सीट नहीं जीत पाई। तथापि प्रियंका के राजनीति में प्रवेश से 3 बातें स्पष्ट हैं। उनके प्रवेश से उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को संदेश दिया गया है कि राज्य में पार्टी हाशिए पर नहीं है। उत्तर प्रदेश देश का राजनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य है जहां से लोकसभा के लिए 80 सदस्य चुनकर आते हैं। राज्य में बुआ मायावती और भतीजा अखिलेश के गठबंधन में उन्हें स्थान नहीं दिया गया और भाजपा की स्थिति भी मजबूत है और अब पार्टी राज्य में इतनी गंभीर है कि उसने अपना तुरुप का पत्ता चलने का निर्णय कर दिया है। पार्टी ने उत्तर प्रदेश से बाहर की जनता को यह संदेश दिया है कि एक अन्य गांधी के राजनीति में प्रवेश से राहुल की जिम्मेदारी बढ़ गई है। 

तीसरा, राहुल और प्रियंका दोनों मिलकर महिलाओं और युवाओं से जुड़ सकते हैं और राज्य के लिए नए विचार दे सकते हैं। किंतु क्या राहुल द्वारा अपनी बहन को आधिकारिक रूप से राजनीति में प्रवेश दिलाने से उत्तर प्रदेश में जटिल राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव आएगा? यह तो समय ही बताएगा, किंतु राज्य में बुआ-भतीजे के गठबंधन के मद्देनजर पार्टी की स्थिति अच्छी नहीं है। प्रियंका के राजनीति में प्रवेश से न केवल पार्टी कार्यकत्र्ताओं के हौसले बुलंद होंगे अपितु पार्टी नेतृत्व पर नेहरू-गांधी परिवार की पकड़ भी मजबूत होगी और वह पार्टी के भविष्य के बारे में अपनी भूमिका निभा सकेंगी। किंतु यदि वह राहुल पर भारी पड़ीं और सत्ता का केन्द्र रहीं तो यह पार्टी के लिए विनाशकारी होगा क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती हैं और इस खेल में प्रियंका जीत जाएंगी। अब देखना यह है कि क्या वह भीड़ को खींच सकती हैं जो लोगों का दृष्टिकोण बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। 

कार्यकत्र्ताओं को बड़ी उम्मीदें
उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के अनुसार देखना यह है कि क्या वह मतदाताओं के मन पर छा जाती हैं या नहीं। उनकी उपस्थिति से कांग्रेसी उम्मीदवारों को लाभ होगा। हम अल्पसंख्यकों, अगड़ी जातियों, गैर-जाटव दलितों, गैर-यादव, अन्य पिछड़े वर्गों के लिए विकल्प बनना चाहते हैं क्योंकि हम यह वोट बैंक भाजपा, सपा और बसपा के लिए हार चुके हैं और प्रियंका हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। प्रियंका से पार्टी कार्यकत्र्ताओं को बड़ी उम्मीदें हैं। इसलिए उनका लक्ष्य स्पष्ट है और उनकी नेतृत्व क्षमता का आकलन चुनावी जीत से ही होगा और उनकी चुनौती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2014 के चुनावों में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश से केवल दो सीटें जीती थीं तथा मोदी विरोध कोई विचारधारा या एक चुनावी विकल्प नहीं बन सकता क्योंकि अब कांग्रेस के पास राज्य में निष्ठावान मतदाता नहीं रह गए हैं। 

प्रियंका के राजनीति में प्रवेश से पार्टी में बदलाव आ सकता है क्योंकि अभी तक दोनों भाई-बहन में अच्छे संबंध हैं और वह राहुल की मदद करने में कभी कसर नहीं छोड़ेंगी क्योंकि उन्हें राहुल पर भारी नहीं पडऩा चाहिए। साथ ही प्रियंका न तो इंदिरा हैं और न ही सोनिया जिन्होंने कांग्रेस में नई जान डाली थी। फिलहाल तो कम से कम ऐसा नहीं है। उनकी बौद्धिक क्षमता का भी अभी परीक्षण नहीं हुआ है हालांकि वह अपने परिवार के गढ़ में सफल रही हैं। एक नए भारत में जहां पर 50 प्रतिशत से अधिक मतदाता 18 से 35 वर्ष के हैं, अच्छी जीवन शैली महत्वपूर्ण है न कि किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व। 

यही नहीं, प्रियंका अपने पति के विवादास्पद जमीन सौदों और गलत तरीके से अर्जित सम्पदा का बचाव करती रही हैं। कोई भी व्यक्ति परिवार का नाम लेकर चुनाव जीत सकता है लेकिन कितने चुनाव और कब तक। उन्हें यह साबित करना होगा कि वह ऐसी नेता हैं जो पार्टी में नई जान डाल सकती हैं। प्रियंका को यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि राजनीति अंशकालीन व्यवसाय नहीं है न ही यह 5 साल में आने वाली घटना है। साथ ही चुनावों में जीत मतों से होती है न कि मीडिया में छाने से। चुनावी सफलता या विफलता ही राजनीतिक वैधता का परीक्षण है। वह कांग्रेस के दूरस्थ क्षितिज में एक इंद्रधनुष हैं किंतु वह एक जुआ हैं जिसमें सफल भी हुआ जा सकता है और विफल भी।-पूनम आई. कौशिश

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