क्या भाजपा ‘महागठबंधन’ को चुनौती दे सकेगी

Edited By Pardeep,Updated: 08 Aug, 2018 03:57 AM

can the bjp challenge the great alliance

क्या भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर विपक्षी महागठबंधन के खिलाफ तोड़ मिल गया है? अगर पिछले 10 दिनों की राजनीतिक घटनाओं पर नजर डालें तो इसका जवाब हां में ही मिलता है। संसद में नए बने पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलवा दिया गया है?...

क्या भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर विपक्षी महागठबंधन के खिलाफ तोड़ मिल गया है? अगर पिछले 10 दिनों की राजनीतिक घटनाओं पर नजर डालें तो इसका जवाब हां में ही मिलता है। संसद में नए बने पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलवा दिया गया है? एस.सी./एस.टी. एक्ट की धार को पहले जैसा करने के विधेयक पर बात अंतिम मोड़ पर पहुंचती नजर आ रही है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से भी कह दिया है कि वह एस.सी./एस.टी. को नौकरियों में 23 फीसदी आरक्षण देने के पक्ष में है। 

असम में नागरिकों की पहचान को लेकर जारी की गई नई सूची पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष को आक्रामक अंदाज में घेर रहे हैं। यहां तक कि मीडिया में सूत्रों के हवाले से आ रहा है कि मोदी सरकार आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के प्रति संजीदा है और अगले शीतकालीन सत्र में संविधान संशोधन विधेयक लाया जा सकता है। यहां तक कि मुगलसराय रेलवे जंक्शन का नाम दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन हो गया है। 

ऊपर जिन बातों का जिक्र किया गया है उन पर अमल होने की सूरत में भाजपा क्या वास्तव में विपक्षी महागठबंधन को चुनौती दे सकती है? यह एक बड़ा सवाल है। भाजपा ने तय कर लिया है कि उसे नए सिरे से कुछ बड़े क्षेत्रीय दलों का समर्थन मिलने वाला नहीं है, कम से कम चुनाव से पहले तो किसी अन्य असरदायक दल का राजग में शामिल होना मुश्किल नजर आ रहा है। तेलंगाना की सत्तारूढ़ टी.आर.एस. ने भी चुनाव परिणाम आने के बाद जरूरत पडऩे पर समर्थन करने के संकेत दिए हैं लेकिन भाजपा भी जानती है कि चुनाव परिणाम आने के बाद कुछ भी हो सकता है। ऐसे में जब कोई नया दल साथ नहीं आ रहा हो तो अपने वोट बैंक में इजाफा ही विकल्प है। भाजपा इसी पर अमल कर रही है। वह जान गई है कि दलित, आदिवासी और ओ.बी.सी. का साथ ही सत्ता  के नजदीक तक पहुंचा सकता है। यहां भी वह महादलितों और महापिछड़ों तक पहुंचने के प्रयास कर रही है। 

ओ.बी.सी. आयोग को संवैधानिक दर्जा देने संबंधी बिल को भाजपा ने जिस तरह से विपक्ष के कुछ संशोधनों के साथ पारित करवाया, उससे साफ है कि मोदी सरकार समय नहीं गंवाना चाहती। मूल बिल कहता था कि किसी जाति को ओ.बी.सी. में रखने या नहीं रखने के मामले में राज्य के गवर्नर का पक्ष लिया जाएगा लेकिन विपक्ष का कहना था कि इससे  राज्य सरकार का इकबाल कम होता है। मोदी सरकार ने इस तर्क को मानते हुए गवर्नर की जगह राज्य सरकार के परामर्श की बात मान ली। विपक्ष चाहता था कि आयोग 5 सदस्यीय हो जिसमें एक महिला जरूर हो। इसे भी मान लिया गया। हालांकि एक सदस्य अल्पसंख्यक वर्ग से रखने की मांग नामंजूर कर दी गई। (यह भी भाजपा की उग्र हिन्दुत्व की नीति के अनुकूल ही है)। 

इस समय हरियाणा में जाट, आंध्र प्रदेश में कापू, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार और राजस्थान में गुर्जर आरक्षण मांग रहे हैं। ये सभी मुख्य प्रभावशाली जातियां हैं और इनका वोट भाजपा के लिए निहायत जरूरी है। राज्य सरकारें ऐसी जातियों को अलग से आरक्षण का लाभ देती हैं तो राज्य विशेष में आरक्षण 50 फीसदी की रेखा को पार कर जाता है और फैसला कोर्ट में जाकर लटक जाता है। इसका खमियाजा सत्तारूढ़ दल को भी भुगतना पड़ता है और इस समय महाराष्ट्र, हरियाणा, गुजरात और राजस्थान में भाजपा सरकारें हैं। 

भाजपा समझ रही थी कि लोकसभा चुनावों में जाट, मराठा, पाटीदार आरक्षण बड़ा मुद्दा  बन सकता है, लिहाजा उसने ओ.बी.सी. आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर समस्या की जड़ पर ही चोट की है। अब देश की संसद तय करेगी कि किस जाति को ओ.बी.सी. में रखना या ओ.बी.सी. की सूची से निकाल देना है। संवैधानिक दर्जा देने पर आयोग के फैसले को अदालती चुनौती देना भी कठिन रहेगा। कुल मिलाकर भाजपा ने लोकसभा चुनावों से पहले मराठों, जाटों और पाटीदारों के गुस्से को काबू में लाने की कोशिश की है। 

एस.सी./एस.टी. अत्याचार निवारण कानून में शिकायत होते ही गिरफ्तारी होने पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। कोर्ट का कहना था कि यह नैचुरल जस्टिस के खिलाफ है और शिकायत होने  पर एस.पी. स्तर का अधिकारी जांच कर एक हफ्ते में अपनी रिपोर्ट दे जिसके आधार पर गिरफ्तारी हो या न हो लेकिन इस पर देश भर में भारी हो-हल्ला मचा। यहां तक कि राजग के साथी रामविलास पासवान और रामदास अठावले ने ही अपनी विरोध की  आवाज बुलंद की। मोदी सरकार पहले तो कोर्ट के संशोधित आदेश का इंतजार करती रही। उसे लगा कि कोर्ट ने ही  अपने पुराने आदेश को पलट दिया तो दलित आदिवासी की नाराजगी भी दूर हो जाएगी और सवर्ण जातियों का गुस्सा भी भाजपा को झेलना नहीं पड़ेगा। (यही वर्ग एस.सी./एस.टी. एक्ट में तुरंत गिरफ्तारी के मुद्दे पर कुछ लचीलापन चाहता था)। 

लेकिन जब कोर्ट में बात बनी नहीं और अपनों का ही दबाव पड़ा तो भाजपा भी समझ गई कि विपक्ष को एक बड़ा मुद्दा देने से अच्छा यही है कि खुद बिल लाया जाए। कहा जा रहा है कि अध्यादेश का रास्ता राष्ट्रपति भवन में अटक सकता था, लिहाजा एक्ट में ही संशोधन का बिल लाया जाएगा। इसी के साथ जोड़कर देखें कि मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में प्रमोशन में आरक्षण की जबरदस्त वकालत करके भी संकेत दे दिए हैं कि उसके लिए बदली हुई परिस्थितियों में दलित और आदिवासी वोट कितना महत्व रखते हैं। एक वक्त था जब प्रमोशन में भी आरक्षण को दोहरा आरक्षण बताकर इसका विरोध किया जाता था लेकिन अब खुद ही सरकार अपने एडवोकेट जनरल के माध्यम से कहलवा रही है कि एस.सी. या एस.टी. होना ही अपने आप में पिछड़ापन है और इस वर्ग को 23 फीसदी आरक्षण प्रमोशन में भी मिलना चाहिए। यह बदला हुआ रुख भी बता रहा है कि भाजपा किस तरह दलित आदिवासियों की राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पाॢटयों के वोटबैंक में सेंध लगाने को उत्सुक है। 

दलित आदिवासी देश की करीब 150 लोकसभा सीटों पर अपना असर रखते हैं। इसमें अगर ओ.बी.सी. को भी जोड़ दिया जाए तो आंकड़ा आसानी से अढ़ाई सौ के पार जाता है लेकिन भाजपा कोई कसर नहीं छोडऩा चाहती। वह इस विशाल वोट बैंक के साथ-साथ चुनाव को हिन्दू-मुस्लिम में बदलना चाहती है। यही वजह है कि असम में नैशनल सिटीजन रजिस्टर के बहाने अमित शाह राहुल गांधी से लेकर ममता बनर्जी पर बरस रहे हैं। हैरानी की बात है कि देश के गृह मंत्री इस रजिस्टर को सिर्फ ड्राफ्ट भर बता रहे हैं जबकि अमित शाह संसद के अंदर चालीस लाख लोगों को घुसपैठिया करार दे रहे हैं। 

भाजपा भी जानती है कि अवैध रूप से आए लोगों को उनके मूल देश में वापस भेजने का काम लगभग असंभव है लेकिन वह लोकसभा चुनाव असम के बहाने हिन्दू-मुस्लिम करना चाहती है। कांग्रेस को अब जाकर समझ में आया है और वह सिटीजन रजिस्टर को अपना बच्चा बताकर क्रियान्वयन की कमियों को निशाने पर ले रही है लेकिन भाजपा के नेता जिस तरह से पूरे देश में सिटीजन  रजिस्टर लागू करने की बात कर रहे हैं, उससे साफ है कि असम भाजपा की चुनावी रणनीति के पहले पन्ने पर दर्ज हो गया है।-विजय विद्रोही

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