Edited By Punjab Kesari,Updated: 30 Sep, 2017 11:17 PM
सिन्हा बाप-बेटे का विवाद आजकल सुर्खियों में छाया हुआ है। दोनों विपरीत कारणों से अपने-अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। एक सिन्हा को नौकरी .....
सिन्हा बाप-बेटे का विवाद आजकल सुर्खियों में छाया हुआ है। दोनों विपरीत कारणों से अपने-अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। एक सिन्हा को नौकरी चाहिए जबकि दूसरे सिन्हा को अपनी नौकरी बचानी है। वैसे पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा तथा उनके बेटे वर्तमान मंत्री जयंत सिन्हा दोनों ही अपनी-अपनी जगह अत्यधिक प्रतिभाशाली हैं। इसलिए दोनों ही शायद यह जानते हैं कि वे क्या बोल रहे हैं?
वरिष्ठ सिन्हा यानी यशवंत सिन्हा द्वारा अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति के बारे में अपने विचार इंडियन एक्सप्रैस के स्तंभ के माध्यम से प्रस्तुत किए गए जबकि जयंत ने टाइम्स ऑफ इंडिया का चयन किया। दोनों के विचार का ध्यानाकर्षण का केन्द्र बनना तय था। दोनों के विषय-वस्तु, फोकस तथा रेखांकन के बावजूद कुछ सांझा धरातल तलाश करना संभव है। सांझी बात यह है कि अर्थव्यवस्था बहुत दबाव में है। फिर भी जयंत सिन्हा अपने स्तंभ में यह रेखांकित करते हैं कि ‘अच्छे दिन’ शायद बहुत दूर नहीं रह गए हैं। 80 वर्षीय यशवंत सिन्हा तब भयावह हद तक गलत दिशा में चले गए जब उन्होंने अपने व्यक्तिगत कुंठाओं और विवादों का आश्रय लेते हुए हाल ही की आर्थिक निर्णय प्रक्रिया की कुछ बहुत ही न्यायपूर्ण आलोचना को बेकार सिद्ध करने का प्रयास किया।
अचानक घोषित और बहुत नुक्सदार ढंग से निष्पादित हुई नोटबंदी तथा इसके ऐन पीछे-पीछे अधकचरे ढंग से लागू किया गया जी.एस.टी. देश के लिए विशेष तौर पर पीड़ादायक था। कोई भी समझदार व्यक्ति इस तथ्य से इंकार नहीं करेगा कि दोनों ही सुधारों के पीछे इरादे बहुत नेक थे और इनके प्रभाव भी बहुत दूरगामी हैं, फिर भी इनकी परिकल्पना और तैयारी बेहतर ढंग से की जानी चाहिए थी। लेकिन यदि यशवंत सिन्हा खुद को निर्णयकारों की स्थिति में रख कर देखें तो उन्हें यह तत्काल यह समझ लग जाएगी कि जब 30 से अधिक रसोइए एक ही पकवान तैयार करने में जुटे हों तो यह ज्यादा स्वादिष्ट नहीं बन सकता। यह बात सही है कि अपने वर्तमान स्वरूप में जी.एस.टी. ‘एक राष्ट्र एक टैक्स’ के अपने लक्ष्य के आसपास भी नहीं पहुंचता, फिर भी कोई भी टैक्स सुधार न करने से बेहतर है कि अधकचरे टैक्स सुधार से ही शुरूआत कर ली जाए।
यह सही है कि अनेक क्षेत्रों में अनेक ढंगों से लागू होने वाले इस टैक्स का निष्पादन करने और इसको समझने में हजार अड़चनें आ रही हैं और हजारों सिरदर्द पैदा हो रहे हैं लेकिन यह सुझाव देना कि हमें तब तक इंतजार करना चाहिए था जब तक 29 राज्यों और 7 केन्द्र शासित प्रदेशों से संबंधित उपरोक्त सभी ‘रसोइए’ पूरी तरह एकमत होकर जी.एस.टी. का चाकचौबंद और सोलह कला सम्पूर्ण संस्करण तैयार नहीं कर लेते, बुद्धुओं के बहिश्त में रहने के तुल्य है। एक बार इसको लागू कर दिया जाता है तो यह उम्मीद की जानी चाहिए कि धीरे-धीरे इसके अप्रिय प्रावधान दुरुस्त कर दिए जाएंगे और निष्पादन की प्रक्रिया को अधिक सुखद व तेज रफ्तार बना लिया जाएगा जिससे इसके अनुपालन में कोई खास समस्या नहीं आएगी।
जो लोग टैक्स अदा करना चाहते हैं उन्हें जी.एस.टी. नैटवर्क की खामियों से पैदा होने वाले अनावश्यक वित्तीय एवं भावनात्मक तनाव में से गुजरने को मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। वैसे जिन करोड़ों और छोटे और मध्यम दर्जे के लोगों ने जिंदगी भर कभी कोई टैक्स अदा करने की जरूरत महसूस नहीं की जब उन्हें हर महीने दोहरी और तिहरी परतों में रिटर्न भर कर जमा करवानी पड़ती है तो उनके लिए यह बहुत ही पीड़ादायक और अन्यायपूर्ण अनुभव होता है। यह सही है कि हम सभी को ईमानदार नागरिक बनाने के लिए यह परियोजना बहुत प्रशंसनीय है लेकिन एक शासक सदैव अपनी जनता की जन्मजात प्रकृति और प्रवृत्तियों को समझने वाली सामान्य बुद्धि पर अपनी आदर्शवादिता की चाशनी चढ़ाने का प्रयास करेगा। फिलहाल जो लोग जी.एस.टी. के घटिया निष्पादन के विरुद्ध सबसे अधिक शोर मचा रहे हैं वे ही भाजपा के कट्टर समर्थक हैं।
‘हमें किसी की परवाह नहीं’ जैसे मोदी सरकार के रवैये ने (खासतौर पर टैक्सटाइल, दुग्ध उत्पाद और यहां तक कि वस्त्र निर्यात जैसे क्षेत्रों में कार्यरत) विभिन्न व्यापारी संगठनों के आक्रोश को फैलने का मौका दे दिया। इस समस्या की ओर अधिकारियों का तुरन्त ध्यान जाना चाहिए। यदि राजस्व में अस्थायी तौर पर कमी भी आए या जी.एस.टी. की अवधारणा में कुछ कमजोरी भी आए तो भी लोगों की वास्तविक ङ्क्षचताओं का समाधान करने के लिए वांछित बदलाव किए जाने चाहिएं। इस मुद्दे को यदि सरकार वकार का सवाल बना देती है तो इससे सत्तारूढ़ पार्टी का जनाधार और भी बिखराव की ओर बढ़ेगा।
ऐसा आभास होता है कि सरकार यह मान कर चल रही है कि ‘सब चोर हैं’ और वे सरकारी खजाने में टैक्स अदा करने से बचने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। वैसे इस बात को सिरे से नकारना आसान नहीं। फिर भी सरकार की इस मान्यता ने एक झटके से ऐसी जाली कम्पनियों को काली सूची में डालने का मार्ग प्रशस्त किया है जो केवल धन शोधन के अवैध कारोबार में संलिप्त थीं। वैसे इनके सभी निदेशक जालसाजियों के दोषी नहीं हैं। सार्वजनिक नीति निर्धारण के प्रति इस प्रकार की अंधाधुंध पहुंच अकारण ही सरकार के नए दुश्मन पैदा कर रही है। टैक्स के मामले में ईमानदारी लाने के एकमात्र लक्ष्य को साकार करते हुए भी यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि निर्दोष लोगों को टैक्स अधिकारियों की छापामारी के कारण परेशानियां न झेलनी पड़ें। टैक्स विभागों की नौकरशाही में भी काली भेड़ों की कोई कमी नहीं।
जहां तक इस आलोचना की बात है कि जी.डी.पी. अंतिम तिमाही में भी 5.7 से ऊपर नहीं जा सकी, इस बारे में कोई भी अर्थशास्त्री आपको बता सकता है कि इसके लिए पूरी तरह नोटबंदी और जी.एस.टी. ही जिम्मेदार नहीं। इसमें से कुछ गिरावट के लिए निश्चय ही ग्लोबल कारण जिम्मेदार हैं। वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें धीरे-धीरे फिर से ऊपर चढ़ रही हैं। कुछ विदेशी वित्तीय कोष बाम्बे स्टाक एक्सचेंज में से पैसा निकाल रहे हैं। मानसून भी मौसम विभाग के आकलन से नीचे ही रही है। पंजाब की कपास पट्टी के किसान अभी भी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत हासिल कर रहे हैं। आमतौर पर मूल्य स्थिरता के बावजूद खाद्य पदार्थों की महंगाई ने फिर से बढऩा शुरू कर दिया। संगठित क्षेत्र में रोजगार के ताजा मौकों की कमी सीधे तौर पर उस वित्तीय अराजकता तथा छुटभैया पूंजीवाद से जुड़ी हुई है जो यू.पी.ए. के 10 वर्ष के शासन दौरान बे-लगाम होकर दनदनाता रहा है।