युवाओं के सपने साकार करने की नीति बनाए सरकार

Edited By ,Updated: 09 Feb, 2019 04:28 AM

government formulates policy of realizing the dreams of youth

आमतौर से 14-15 वर्ष की उम्र अर्थात जब 8वीं-9वीं कक्षा में होते हैं तो विद्यार्थी अपने भविष्य के सपने बुनने लगते हैं कि हम यह बनेंगे, वो बनेंगे और इसके लिए जो चीजें करनी जरूरी हैं, वे करने भी लगते हैं। अब होता यह है कि अधिकांश बच्चे, जो यौवन की दहलीज...

आमतौर से 14-15 वर्ष की उम्र अर्थात जब 8वीं-9वीं कक्षा में होते हैं तो विद्यार्थी अपने भविष्य के सपने बुनने लगते हैं कि हम यह बनेंगे, वो बनेंगे और इसके लिए जो चीजें करनी जरूरी हैं, वे करने भी लगते हैं। अब होता यह है कि अधिकांश बच्चे, जो यौवन की दहलीज पर कदम रखने ही वाले होते हैं, उनके सपने बिखरने शुरू हो जाते हैं और वे जो मिल जाए या जैसा चल रहा है उसे स्वीकार कर लेते हैं। इसका कारण यह है कि उनके सपनों को न कोई समझता है और न ही कोई ऐसी व्यवस्था है, जिससे वह उन्हें साकार करने में मदद ले सकें। 

अब जरा इस हकीकत को समझिए कि हमारे देश में 8वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों का प्रतिशत बहुत अधिक है। इसकी वजह यही है कि जब उन्हें लगता है कि जो करना चाहते हैं, वह संभव ही नहीं तो फिर आगे पढ़ाई जारी रखें या न रखें, क्या फर्क पड़ता है? इसमें माता-पिता की भी ज्यादा नहीं चलती बल्कि वे यह सोचने लगते हैं कि जब बच्चे का मन पढ़ाई में है ही नहीं तो उसे किसी कामधंधे, रोजगार में ही लगा दिया जाए, जिसमें कुछ पैसे तो घर में आएंगे। इस तरह बचपन से ही सपनों के मरने की शुरूआत हो जाती है। 

इसी तरह 9वीं से 11वीं-12वीं कक्षाओं में पढऩे वाले बच्चे कुछ ज्यादा महत्वाकांक्षी सपने देखने लगते हैं। किसी के मन में वैज्ञानिक बनने की कल्पना होती है तो कोई उद्योगपति बनना चाहता है, कोई खेलकूद को व्यवसाय के रूप में देखता है। दुर्भाग्य यह है कि उनके इन सपनों का न कोई मोल समझता है और न कोई ध्यान देता है बल्कि ज्यादातर तो बच्चों की मनगढंत कहानियां और अपेक्षाएं समझकर उनका तिरस्कार भी कर देते हैं। ऐसी हालत में वे पढ़ाई-लिखाई में आगे कोई रुचि न होने के कारण या उन्हें उसमें अपना कोई भविष्य न दिखाई देने की वजह से जो काम-धंधा, रोजगार मिल जाए वह कर लेते हैं और जैसे-तैसे जिंदगी की गाड़ी ढोने के लिए तैयार हो जाते हैं। विडम्बना यह है कि इनमें से ज्यादातर विद्यार्थी निराशा और अवसाद के शिकार भी हो जाते हैं और उनके लिए जीवन एक बोझ की तरह हो जाता है। 

विद्यार्थी जीवन में छात्र-छात्राएं साधारणतया अपने आसपास के वातावरण, पारिवारिक परिस्थिति और अपनी सीमाओं के अन्दर समा सकने वाले सपने ही देखते हैं। जैसे कि ग्रामीण क्षेत्रों में किसान का बेटा पढ़-लिखकर अपने खेत की फसल कैसे बेहतर हो, उसके बारे में सोचने लगता है। घर में जो पशुधन है उससे ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने के बारे में सोचता है। 

खेतीबाड़ी के नए तरीकों, उन्नत बीज और मशीनों के इस्तेमाल के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल करने की कोशिश करता है। इसी तरह बहुत से बच्चे सपना देखने लगते हैं कि पढ़-लिखकर कहीं अच्छी सी नौकरी करेंगे या अपना कोई रोजगार करेंगे और उसके लिए जो भी जरूरी परीक्षाएं होती हैं, तैयारी करनी है, वह सब करेंगे। आधुनिक टैक्नोलॉजी और इंटरनैट के युग में जब दुनिया एक मोबाइल तक में सिमट चुकी है तो उससे वह ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाने की कोशिश करता है। अपने सपनों को साकार करने के लिए वह यह योजना भी बनाता है कि कोई मशीन, ऐसा उपकरण या कोई ऐसी तकनीक बनाए, जिससे न केवल अपने परिवार, बल्कि समाज को भी फायदा पहुंचे। इसे उसके मन की कल्पना और व्यावहारिक रूप से जुगाड़ कहा जा सकता है। 

मन की बात
अब हम यहीं पर सरकार से अगर यह अपेक्षा करें कि वह कोई ऐसी नीति या योजना बनाए जिससे इन विद्यार्थियों के सपनों के मुताबिक उनकी सोच को व्यावहारिक रूप दिया जा सके तो कतई गलत नहीं होगा। इसके लिए सरकार प्रत्येक स्कूल में यह घोषणा कर दे कि 13 से 18 वर्ष के विद्यार्थियों के सपनों को साकार करने के लिए सरकार पूरी मदद करेगी। इसके लिए स्कूलों में बाकायदा प्रशिक्षण, निरीक्षण और सपने की उपयोगिता का आंकलन करने की पूरी व्यवस्था होगी। प्रतियोगिता के माध्यम से सभी सपनों की जांच-परख होगी और जो सर्वश्रेष्ठ 5 या 10 सपने होंगे उनकी पूर्ति का पूरा इंतजाम सरकार करेगी। अनुमान लगाइए कि देश के 20 लाख स्कूलों में से अगर प्रतिवर्ष  प्रत्येक स्कूल से केवल दस प्रतिभाएं भी सामने आती हैं तो हमारे सामने करोड़ों सपने होंगे। यदि इनमें से 10 प्रतिशत सपनेे भी सच हो जाते हैं तो सोचिए देश कितनी तेजी से तरक्की कर सकता है। 

युवाओं का संसार
अब हम स्कूलों से निकलकर कालेज, विश्वविद्यालय, संस्थानों और प्रयोगशालाओं में पढऩे वाले विद्यार्थियों के सपनों पर आते हैं। इनके सपने कुछ ज्यादा बड़े होते हैं। ये कोई नई टैक्नोलॉजी, नई एप्लीकेशन, नई खोज, नई व्यापारिक गतिविधि जैसी बातों के बारे में सोचते हैं कि अगर मौका मिले और जरूरी संसाधन उन्हें उपलब्ध करा दिए जाएं तो वे न केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यापार के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन कर सकते हैं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था बदल सकते हैं जिससे सामाजिक जीवन बेहतर हो सकता है तथा दुनिया में हम विदेशी टैक्नोलॉजी पर आत्मनिर्भरता कम कर सकते हैं और स्वावलम्बी देश का ओहदा हासिल कर सकते हैं। 

पिछले दिनों विज्ञान प्रसार के लिए स्टार्टअप इंडिया को लेकर एक फिल्म बनाने के दौरान विभिन्न वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं को देखने का अवसर मिला। इनमें उन युवा वैज्ञानिकों के लिए ऐसे इनक्युबेशन सैंटर स्थापित किए गए हैं जिनमें प्रयोगशाला से संबंधित सभी तरह की सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरने के बाद यदि युवा वैज्ञानिक चुना जाता है तो उसके लिए सब कुछ बिना धन खर्च किए उपलब्ध रहता है, जहां वह एक निश्चित अवधि में टैक्नोलॉजी विकसित कर सकता है। यह एक बहुत ही महत्वाकांक्षी और बेहतरीन योजना है लेकिन इसके अन्तर्गत इतने कम सैंटर हैं कि युवा वैज्ञानिकों को अपना धैर्य खोने की हद तक इंतजार करना पड़ता है और कभी-कभी तो इतनी देर हो जाती है कि उस सपने की उपयोगिता ही नहीं रह जाती और कोई दूसरा देश हमसे बाजी मार ले जाता है। 

इस संबंध में सरकार यह घोषणा कर जाती है कि वह प्रत्येक जिले में ऐसे सैंटर स्थापित करेगी जिनमें युवा सोच के युवा जोश को साकार करने के लिए हर वह सुविधा उसकी ओर से बिना एक भी पैसा लगाए प्रदान की जाएगी, जो अनुसंधान और क्रियान्वयन के लिए जरूरी है। इन युवा वैज्ञानिकों द्वारा विकसित टैक्नोलॉजी को युवा उद्योगपतियों तक पहुंचा दिया जाए तो अनुमान लगाइए कि जब युवा अनुसंधानकत्र्ताओं के लाखों सपने साकार होने लगेंगे तो देश व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में किन ऊंचाइयों को छू सकता है। 

युवा और उद्योग
हमारे देश में कोई व्यापार करने, उद्योग लगाने या संस्थान खड़ा करने के लिए बहुत अधिक पूंजी और मानव संसाधनों की जरूरत होती है। इसके अतिरिक्त सरकार और बैंकों द्वारा ऋण आदि की सहायता प्राप्त करना भी पहाड़ पर चढऩे की तरह मुश्किल होता है। 

विडम्बना यह है कि सरकार और औद्योगिक प्राधिकरणों द्वारा औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना की घोषणा ज्यादातर राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से की जाती है न कि वैज्ञानिक ढंग से और सामाजिक तथा राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिहाज से। इससे होता यह है कि इन घोषित क्षेत्रों में बरसों तक कोई विकास नहीं होता, वहां जरूरी सुविधाएं तक नहीं पहुंचाई जातीं और जिन उद्योगपतियों ने वैज्ञानिकों के सहयोग से आधुनिक टैक्नोलॉजी के आधार पर इन क्षेत्रों में भूमि खरीदने के लिए पैसा लगाया, वे उन क्षेत्रों का विकास न होने के कारण हाथ पर हाथ धरे रहते हैं और कोसते रहते हैं कि उन्होंने बेकार ही वहां पैसा लगाया। 

अब अगर किसी ने एक या दो वर्ष में अपनी यूनिट चालू करने की योजना बनाई तो वह तो अधर में लटक गया क्योंकि 2 साल क्या, कुछ मामलों में तो 5-10 साल बीत जाते हैं और औद्योगिक क्षेत्रों में कोई डिवैल्पमैंट ही नहीं होती। इसी प्रकार जो खोज, अनुसंधान, टैक्नोलॉजी आज विकसित हुई है उसके अनुरूप व्यापार और उद्योग ही स्थापित नहीं होंगे तो वह तो कुछ ही समय में पुरानी पड़ जाएगी और हम दूसरे विकासशील देशों की दौड़ में फिर पिछड़े के पिछड़े ही रह जाएंगे। इसमें दूसरा खतरा यह है कि समय पर योजनाएं पूरी न होने से नई वैज्ञानिक सोच बनने, नए सपने बुनने और तरक्की की नई इबारत लिखने के मंसूबे धरे के धरे रह जाएंगे। 

इस विकट परिस्थिति से निपटने के लिए सरकार यह तय कर सकती है कि वह एक पारदर्शी प्रक्रिया के अनुसार यह बताएगी कि कौन-सा उद्योग कहां लगना है और उसके लिए कौन-सी वैज्ञानिक सोच का इस्तेमाल होगा। उद्योगपति को वहां सभी तरह की सुविधाएं समय पर कार्यक्रम के अनुसार मिलेंगी और यदि नहीं मिलती हैं तो उसे उसके निवेश का दोगुना हर्जाने के रूप में मिलेगा। यदि यह व्यवस्था हो जाए तो कुछ ही समय में हमारा औद्योगिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल जाएगा। उससे करोड़ों रोजगार पैदा होंगे और अर्थव्यवस्था दिन दूनी रात चौगुनी गति से मजबूती की तरफ बढ़ेगी। पाठक अपनी राय को उन दलों तक अपनी आवाज के रूप में पहुंचाएं जो हम पर शासन करने का दम्भ भरते हैं और हमारे वोट पर अपना अधिकार समझते हैं।-पूरन चंद सरीन

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