हेट स्पीच :  सुप्रीम कोर्ट की चिंता व इशारों को समझें

Edited By ,Updated: 01 Apr, 2023 04:59 AM

hate speech understand the concern and gestures of the supreme court

देश में बढ़ती नफरत को लेकर सर्वोच्च अदालत की बार-बार की टिप्पणियां अपने में काफी अहम हैं। सुप्रीमकोर्ट की ङ्क्षचता साफ-साफ टी.वी. डिबेट्स और दूसरे पब्लिक प्लेटफॉम्र्स के जरिए बेतुके और संवेदनशील मुद्दों पर असंवेदनशीलता की तरफ इशारा भी है।

देश में बढ़ती नफरत को लेकर सर्वोच्च अदालत की बार-बार की टिप्पणियां अपने में काफी अहम हैं। सुप्रीमकोर्ट की ङ्क्षचता साफ-साफ टी.वी. डिबेट्स और दूसरे पब्लिक प्लेटफॉम्र्स के जरिए बेतुके और संवेदनशील मुद्दों पर असंवेदनशीलता की तरफ इशारा भी है। 

धार्मिक मामलों पर हो रही लगातार बयानबाजी से देश के माहौल पर पड़ रहे बुरे असर को लेकर पहले भी अदालतों और पक्षकारों ने अपनी-अपनी तरह की ङ्क्षचताएं जाहिर की हैं। जिन बातों को रोकने का जिम्मा राज्यों का है उसको लेकर सुप्रीमकोर्ट को चिन्ता करना चिन्तित करता है। 

सुप्रीमकोर्ट की गंभीरता और अमूमन दिखने वाली हकीकत भी यही है कि यदि राजनीति और धर्म को अलग कर दिया जाए तो नफरती बयानबाजी खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगी। हेट स्पीच को लेकर सुप्रीमकोर्ट के सख्त तेवर इतने तल्ख शायद ही कभी पहले दिखे हों। यकीनन राज्य का जिम्मा है कि जहां भी हेट स्पीच का मामला आए सख्ती से रोके तथा कार्रवाई करे। केवल एफ.आई.आर. तक सीमित नहीं रहे। लेकिन जो दिखता है उससे नहीं लगता  कि नसीहतों के बाद भी कुछ अमल हुआ और आगे हो पाएगा? 

हमारे यहां जब-तब स्वार्थ या लाभ की राजनीति की खातिर हेट स्पीच की घटनाओं से सामाजिक सामंजस्य बिगाडऩा लगभग आम सा हो चुका है। भारतीय राजनीति में जातिवाद तथा धर्म एक बड़ा कारक है। हमेशा देखा जाता है कि राजनीतिक ध्रुवीकरण के चलते किसी विशेष समुदाय या जाति के तुष्टीकरण या निशाने के लिए ही अक्सर नफरती भाषा या हेट स्पीच या फिर ईशनिंदा कुछ भी कहें, की जाती है। सामान्यत: ईशनिंदा किसी धर्म या मजहब की आस्था का मजाक बनाना होता है जिसमें धर्म प्रतीकों, चिह्नों, पवित्र वस्तुओं का अपमान करना, ईश्वर के सम्मान में कमी या पवित्र या अदृश्य मानी जाने वाली किसी चीज के प्रति नफरती भाव या अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना होता है। 

एक कड़वी सच्चाई भी कि बयान किसी के लिए नफरती हो सकता है तो किसी के लिए अभिव्यक्ति की आजादी। बस इसी महीन पेंच को लेकर तर्क-कुतर्क होते रहते हैं। लेकिन यह भी देखना चाहिए कि अपनी बात कहने की स्वतंत्रता की हद भी है और एकता व शांति भंग करने वाले बयानों पर पाबंदी भी। ऐसी बात, हरकत, भाव-भंगिमा, बोलकर, लिखकर, चित्रों, कार्टूनों के जरिए भड़की हिंसा के अलावा धार्मिक भावना आहत करना, किसी समूह, समुदाय के बीच धर्म, नस्ल, जन्मस्थान और भाषा के आधार पर विद्वेष पैदा करने की आशंका या कुचेष्टा है जो हेट स्पीच के दायरे में है। एक सच्चाई यह भी है कि इसमें सहनशीलता की परीक्षा होती है। जनप्रतिनिधि और जनसामान्य किसी की बात को सहन कर पाते हैं और किसी की नहीं। बस यही फर्क है जिसके लोग अपने-अपने मायने लगा बैठते हैं कि बोलने की आजादी सबको है। माना कि लब बोलने को आजाद हैं लेकिन कैसे बोल के लिए? समाज को जोडऩे या तोडऩे वाले? उत्तर साफ है। 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 और इसके विभिन्न भाग मुख्यत: प्रतिबन्धों के साथ 6 तरह की स्वतंत्रता जिसमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एकत्र होने की स्वतंत्रता, संघों, यूनियनों, सहकारी समितियों को बनाने की स्वतंत्रता, स्वतंत्र रूप से आने-जाने की स्वतंत्रता, निवास की स्वतंत्रता, पेशे की स्वतंत्रता देता है। हालांकि विधि आयोग की 267वीं रिपोर्ट में हेट स्पीच को एक ऐसे अभिभाषण के रूप में परिभाषित किया गया है जिससे नस्ल, जाति, लिंग, लैंगिक अभिविन्यास, धार्मिक विश्वास इत्यादि के विरुद्ध घृणा तथा हिंसा को बढ़ाने का प्रयास किया गया हो। लेकिन साइबर उत्पीडऩ के मामले में जांच करने वाली एजैंसियों को दिए गए मैनुअल में पुलिस अनुसंधान तथा विकास ब्यूरो द्वारा हेट स्पीच को व्यक्ति या समूह के नस्ल, जाति, ङ्क्षलग, यौन, विकलांगता, धर्म के आधार पर उसके विरुद्ध अपमानजनक अभिव्यक्ति, धमकी या बदनामी करने के प्रयास के रूप में परिभाषित किया गया है। 

सुप्रीमकोर्ट का नफरत भरे भाषणों को गंभीर करार देने का हालिया वाकया नया नहीं है। अभी महीना भर पहले भी हेट स्पीच से भरे टॉक शो और रिपोर्ट प्रसारित करने पर टी.वी. चैनलों को जमकर फटकार लगी। जस्टिस के.एम. जोसेफ और जस्टिस बी.वी. नागरत्ना की पीठ का यह सवाल कि अब हम कहां पहुंच गए हैं? गंभीर है। ये कहना कि कभी हमारे पास नेहरू, वाजपेयी जैसे वक्ता थे जिन्हें सुनने दूर-दराज से लोग आते थे। अब लोगों की भीड़ फालतू तत्वों को सुनने आती है। राज्यों से पूछना चाहिए कि समाज में हेट स्पीच के अपराध को कम करने के लिए एक तंत्र क्यों नहीं विकसित कर सकते? 

राजनेता धर्म का उपयोग करते हैं, धर्म और राजनीति जुड़ गए हैं। इन्हें अलग करने की जरूरत है। राज्य नपुंसक हैं। वो समय पर काम नहीं करते। ऐसे मसलों पर चुप्पी साध लेने से राज्यों के होने का मतलब ही क्या? यकीनन राजनीति का धर्म के साथ घालमेल खतरनाक है। सुप्रीमकोर्ट की फटकारों से यदि देश में दरारें पटने लग जातीं और पुराना भाईचार लौट आता तो कितना अच्छा होता। काश कानून बनाने वाले कानून का अनुपालन कराने वाली देश की सर्वोच्च संस्था के दर्द और इशारों को समझ पाते।-ऋतुपर्ण दवे 

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