डा. अम्बेदकर जैसे महापुरुषों को केवल ‘प्रतीक’ बना देने से काम नहीं चलेगा

Edited By Pardeep,Updated: 24 Apr, 2018 02:51 AM

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ज्यों -ज्यों लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, त्यों-त्यों सभी राजनीतिक दल अम्बेदकर पर अपना अधिकार जमाने की कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि सभी राजनीतिक दल महापुरुषों के आदर्शों को आत्मसात न करके उन्हें मात्र प्रतीक के तौर...

ज्यों -ज्यों लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, त्यों-त्यों सभी राजनीतिक दल अम्बेदकर पर अपना अधिकार जमाने की कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि सभी राजनीतिक दल महापुरुषों के आदर्शों को आत्मसात न करके उन्हें मात्र प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल कर वोट बैंक की राजनीति करने लगते हैं। इस समय भी सभी दल महापुरुषों को अपने रंग में रंगने की शर्मनाक कोशिश कर रहे हैं। 

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के बदायूं जनपद में कुंवरगांव थाना क्षेत्र के दुगरैया गांव में जब अम्बेदकर की प्रतिमा को कुछ शरारती तत्वों ने क्षतिग्रस्त कर दिया तो प्रशासन ने उसके स्थान पर नई प्रतिमा स्थापित कर दी। लेकिन यह नई प्रतिमा भगवा रंग में होने की वजह से चर्चा में आ गई। इसके बाद अम्बेदकर की इस प्रतिमा को नीले रंग से रंगा गया। पिछले कुछ दिनों में कई जगहों पर अम्बेदकर की प्रतिमा को तोड़े जाने की खबरें भी प्रकाश में आईं। विडम्बना यह है कि इस दौर में जिस तरह से प्रतीकों की राजनीति हो रही है, उसने महापुरुषों को मात्र मूर्तियों तक ही सीमित कर दिया है। 

इस नए माहौल में न तो राजनीतिक दलों को महापुरुषों के आदर्शों की चिन्ता है और न ही इन दलों के पीछे चलने वाली भीड़ में महापुरुषों द्वारा बताए गए रास्ते पर चलने की हिम्मत है। दरअसल डा. अम्बेदकर ने इस सत्य को बहुत पहले ही समझ लिया था कि जब तक दलित वर्ग अपनी शक्ति को पहचान कर सत्ता का भागीदार नहीं बनेगा, उसकी उपेक्षा होती रहेगी। यही कारण था कि उन्होंने दलितों के आरक्षण की वकालत की। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस दौर में सत्ता का भागीदार बने दलित नेताओं को वास्तव में अम्बेदकर के विचारों एवं आदर्शों की चिन्ता है? आज हर राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए अम्बेदकर के नाम का इस्तेमाल कर रहा है। यही कारण है कि आज भी आम दलित को शोषण का शिकार बनाया जा रहा है। यह विडम्बना ही है कि आज राजनीतिक दल अम्बेदकर के नाम का इस्तेमाल अपने उत्थान के लिए कर रहे हैं, न कि दलितोत्थान के लिए। 

सवाल यह है कि आजादी के बाद राजनेताओं ने अम्बेदकर-अम्बेदकर चिल्लाने और अम्बेदकर के नाम पर विभिन्न परियोजनाओं का नामकरण करने के अलावा किया ही क्या है? क्या आजादी के बाद हमारे राजनेता अम्बेदकर के आदर्शों को आत्मसात कर पाए हैं? क्या केवल अम्बेदकर के नाम पर पार्क बना देने, उनकी मूर्तियां स्थापित कर देने और उनके विचारों को विचार-गोष्ठियों में दोहरा देने मात्र से ही हम इस दौर में अम्बेदकर को प्रासंगिक बना सकते हैं? शायद नहीं। बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित कर पानी की तरह पैसा बहा देना अम्बेदकर का सपना नहीं था। 

करोड़ों रुपए का हार पहन कर भव्य पंडाल में दलितों और अपने अनुयायियों के लिए महाभोज आयोजित करना भी बाबा साहिब की प्राथमिकताओं में नहीं था। क्या ऐसे आयोजनों से वास्तव में दलितों का स्वाभिमान जाग सकता है? शायद स्वादिष्ट भोज का आनंद लेते हुए कुछ समय के लिए उनका स्वाभिमान जाग जाए, लेकिन गांव में बैठे हुए उस दलित के स्वाभिमान का क्या होगा जिसे एक जून की रोटी भी नसीब नहीं है। हमारे राजनेता कुछ हजार या लाख लोगों को भव्य भोज देने की अपेक्षा गांव के आखिरी आदमी को दो जून की रोटी देने के बारे में कब सोचेंगे? अम्बेदकर ने दलितों के जिस स्वाभिमान की बात की थी वह वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित नहीं था। 

इस दौर में सबसे दुखद यही है कि वोट बैंक की राजनीति के तहत दलितों के स्वाभिमान को जगाने की बात हो रही है। आज के राजनेता जब दलितों के साथ खाना खाते हैं और दलितों के घर में ही रात गुजारते हैं तो दलितों का स्वाभिमान जागने लगता है, लेकिन जैसे ही राजनेता अपने महलों में वापस लौटते हैं दलितों की जिन्दगी पुराने ढर्रे पर लौटने लगती है। अनेक आश्वासनों के बाद जब दोबारा दलितों को पुरानी समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है तो उन्हें स्वयं महसूस होने लगता है कि यह वोट बैंक का छलावा है। राजनेताओं द्वारा दलितों का स्वाभिमान जगाने की इस खोखली प्रक्रिया से दलित अपना पुराना स्वाभिमान भी खो देते हैं। 

दरअसल यह दलितों को उठाने की नहीं बल्कि गिराने की कुटिल चाल है। जो दलित सत्ता के पिछलग्गू बन राजनेताओं की इस चाल का हिस्सा बन जाते हैं, उनका स्वाभिमान अभिमान में बदल जाता है और दूसरे दलितों के प्रति उनका व्यवहार भी शोषणकारी हो जाता है जबकि आम दलित का स्वाभिमान अपने पुराने स्तर से भी नीचे गिर जाता है। इन नारों एवं अभियानों में एक आम दलित के हाथ कुछ नहीं लगता। अम्बेदकर ने दलितों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए शुरू में मात्र 10 वर्षों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे राजनेताओं ने आरक्षण की इस व्यवस्था को भी वोट बैंक का हथियार बना लिया। 

अम्बेदकर ने जाति प्रथा का गंभीरता से अध्ययन किया था। अम्बेदकर अभावों और जाति प्रथा के साथ जुड़े कलंक से जूझते हुए ही पले थे। उन्होंने इस अन्यायपूर्ण सामाजिक विषमता के विरुद्ध विद्रोह किया और पूरी शक्ति से इसे मिटाने का प्रयत्न किया। सवाल यह है कि आज हर क्षेत्र में जागरूकता आने के बाद भी क्या जाति प्रथा मिट सकी है? इस दौर में भी दलितों पर अत्याचार करके क्या हम जाति प्रथा की तीव्रता को बढ़ा नहीं रहे हैं? राजनेताओं ने जाति प्रथा को और अधिक बढ़ाया है। किसी संसदीय क्षेत्र में उम्मीदवार की जाति के लोगों की संख्या देखकर ही टिकट बंटवारा किया जाता है। जाति प्रथा की तीव्रता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि हरियाणा में खाप पंचायत के आदेश पर ही दलितों के घर जला दिए जाते हैं। 

लेकिन इन सब विसंगतियों पर राजनेताओं का ध्यान क्यों जाएगा? दलितोत्थान के बारे में सोचने की फुर्सत तो तब होगी जब उन्हें अपने उत्थान की योजनाओं से फुर्सत मिले। अब अम्बेदकर जैसे महापुरुषों को केवल प्रतीक बना देने से काम नहीं चलेगा। केवल अम्बेदकर की मूर्तियों पर राजनीति करने से हम अम्बेदकर के आदर्शों की सुरक्षा नहीं कर सकते। आज अगर अम्बेदकर जीवित होते तो भारत की यह दशा देखकर दुखी होते। क्या अम्बेदकर ने इसी भारत का सपना देखा था? क्या यही चाहते थे अम्बेदकर? मात्र अपने स्वार्थ के लिए अम्बेदकर जैसे महापुरुषों के नाम का इस्तेमाल कर हम किस भारत का निर्माण कर रहे हैं?-रोहित कौशिक
 

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