अपराधियों का ‘स्वागत’ करने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं

Edited By ,Updated: 25 Jul, 2020 03:41 AM

no political party is behind in  welcoming  criminals

जब से उत्तर प्रदेश में विकास दुबे जैसे अपराधी और उसके साथियों का एनकाऊंटर हुआ है, तब से विकास दुबे की जाति को लेकर तमाम तरह की बातें हो रही हैं। बहुत से लोग कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सुरक्षित नहीं हैं। और अब तक कितने ब्राह्मण मारे गए...

जब से उत्तर प्रदेश में विकास दुबे जैसे अपराधी और उसके साथियों का एनकाऊंटर हुआ है, तब से विकास दुबे की जाति को लेकर तमाम तरह की बातें हो रही हैं। बहुत से लोग कह रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सुरक्षित नहीं हैं। और अब तक कितने ब्राह्मण मारे गए हैं, इसकी गिनती बता रहे हैं।

इससे पहले जब उसे पकड़ा नहीं गया था, कई बुद्धिजीवी कह रहे थे कि अब तक कोई दलित या मुसलमान होता, तो उसका एनकाऊंटर कर दिया जाता। अब जब ऐसा हो गया है, तो इनमें से ही कई कह रहे हैं कि ब्राह्मण इन दिनों उत्तर प्रदेश में सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें एक ठाकुर मुख्यमंत्री चुन-चुनकर मार रहा है। यहां तक कि एक बड़े दल ने भी ऐसा ही कहा है। इसके विपरीत कई ने विकास दुबे को ब्राह्मण शेर और ब्राह्मणों का असली चेहरा तक कह दिया। हालांकि बहुत से ब्राह्मणों ने ही इसका विरोध भी किया। आपको याद होगा कि लगभग इसी तरह से माफिया सरगना छोटा राजन को भी हिन्दू डॉन पुकारा जाने लगा था। और उसे बाकायदा दाऊद इब्राहिम के बराबर खड़ा करने की कोशिश की गई थी। 

हैरत इस बात पर होती है कि इन दिनों अपराधियों की जाति देखकर धर्म देखकर, पक्ष-विपक्ष तय किए जाते हैं। इस बहाने अपराध को कम आंकने की कोशिश भी की जाती है। पिछले कुछ दशकों में जातिवादी अस्मिता के नाम पर न्यायपालिका तक के बारे में यह तर्क दिए जाने लगे हैं कि जज को अपनी ही जाति या धर्म का होना चाहिए, तभी न्याय मिल सकता है। 

जब अपने पक्ष में न्याय हो, तब सब इस पर चुप लगा जाते हैं, जैसे ही न्याय की सुई अपने मनमाफिक नहीं घूमती है, तो जाति, धर्म के तर्क दिए जाने लगते हैं। जितनी जाति तोडऩे की बातें की जाती हैं, जातिवादी विमर्श उतना ही बढ़ता जाता है। इसीलिए तो जब बड़े-बड़े अपराधी जमानत पर छूटते हैं या जेल की सजा काटकर बाहर आते हैं, तो वे विजयी चिन्ह बनाते हैं। किसी हीरो की तरह उनका स्वागत किया जाता है। फूल मालाओं से लादकर खुली जीप में जुलूस निकाला जाता है जैसे कि कोई बड़ा भारी किला जीतकर आए हैं। यह भी बताया जाने लगता है कि वह तो अपराधी थे ही नहीं, उन्हें फंसाया गया था। 

जब से जातिवादी पार्टियां बनने लगी हैं, उनके ही नेता उभरे हैं, तब से यह चलन सा बन चला है कि वे हर अच्छे-बुरे में अपनी ही जाति का पक्ष लेते हैं। इसीलिए अपराधी को अपराधी नहीं कहा जाता। अपराध के मुकाबले दूसरों की मदद करने वाले झूठे-सच्चे रॉबिनहुड टाइप के किस्से उनके बारे में मशहूर कर दिए जाते हैं। इससे यही लगता है कि जाति को कोई खत्म नहीं करना चाहता। क्योंकि जाति के समूह से ही ताकत मिलती है, उसी से चुनाव जीते जाते हैं।

अपराध को अपराध न कहकर, अपराधी की जाति देखकर, उसे अपराधी या निरपराध कहना बेहद अफसोसनाक है। यही नहीं, दुर्घटनाओं तक के मामले में खास जाति के लोगों की जाति जरूर बताई जाती है, मानो दुर्घटना उसकी जाति को देखकर तय की गई हो। और तो और किसी युद्ध में कितने सैनिक मारे गए, किसी आतंकवादी हमले में कितने पुलिस वाले खेत रहे, उनकी भी जातियां और धर्म, ढूंढ-ढूंढ कर निकाल लिए जाते हैं। 

जिस तरह गरीब और साधनहीन की कोई जाति नहीं होती, धर्म नहीं होता, वह अपनी तकदीर का मारा होता है, उसी तरह अपराधी की जाति देखकर उसकी ङ्क्षनदा या बचाव करना बेहद शर्मनाक है। ऐसा अरसे से हो रहा है और वोट के लालच में शायद अरसे तक होता रहेगा। जाति के कारण ही तो ऐसा होता है कि लोग बड़े से बड़ा अपराध करते हैं, खूब पैसा बनाते हैं, बहुत से राजनीतिक दल उनके दरवाजे पर टिकट लेकर खड़े रहते हैं और एक दिन वे संसद में बैठकर उनके लिए कानून बनाते हैं, जो उनके अपराधों से प्रताडि़त हो रहे होते हैं। अपराधियों का स्वागत करने में अपने देश में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं है।-क्षमा शर्मा

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