Edited By ,Updated: 10 Feb, 2019 04:40 AM
मुझे कोई हैरानी नहीं कि नौकरियों तथा बेरोजगारी की स्थिति चुनावों से दो महीने पहले सुॢखयां बनी हैं। आखिरकार यदि यह इतनी ही गम्भीर है जितना विपक्ष तथा समीक्षक दावा करते हैं, इसका चुनावों पर एक निर्णायक असर होगा। दुर्भाग्य से यह भी सच है कि हमारे सामने...
मुझे कोई हैरानी नहीं कि नौकरियों तथा बेरोजगारी की स्थिति चुनावों से दो महीने पहले सुॢखयां बनी हैं। आखिरकार यदि यह इतनी ही गम्भीर है जितना विपक्ष तथा समीक्षक दावा करते हैं, इसका चुनावों पर एक निर्णायक असर होगा। दुर्भाग्य से यह भी सच है कि हमारे सामने कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं है। इसकी बजाय हमारे सामने दो गुस्से भरे तथा बिल्कुल विपरीत विचार हैं।
नैशनल सैम्पल सर्वे आफिस की लीक हुई रिपोर्ट कहती है कि 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 प्रतिशत तथा 45 वर्षों में सर्वोच्च थी। अपने ही सर्वेक्षणों के आधार पर सैंटर फार मानिटरिंग आफ इंडियन इकोनामी का कहना है कि दिसम्बर 2018 तक बेरोजगारी की दर 7.4 प्रतिशत तक बढ़ चुकी थी। यदि ये आंकड़े सही हैं तो स्थित न केवल चिंताजनक बल्कि धीरे-धीरे बदतरीन होती जा रही है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि क्यों जब रेलवे ने गत वर्ष 89400 नौकरियों के लिए विज्ञापन दिया तो 2.30 करोड़ से अधिक लोगों ने आवेदन किया। तो क्या नौकरियों के लिए हमारी भूख वास्तविक तथा बढ़ती जा रही है?
निश्चित तौर पर सरकार इन सर्वेक्षणों को खारिज करती है। अरुण जेतली पूछते हैं कि यदि स्थिति इतनी ही खराब है तो क्यों हमें व्यापक सामाजिक असंतोष दिखाई नहीं देता? वास्तव में यदि नौकरियों में विनाशकारी गिरावट आई है तो दिसम्बर 2018 तक भाजपा ने उत्तर प्रदेश में शानदार विजय सहित 21 राज्यों में अप्रत्याशित जीत कैसे हासिल की?
सरकार यह भी दावा करती है कि यदि निवेश गिर रहा है तथा निर्यात स्थिर है तो अर्थव्यवस्था 7 तथा 8 प्रतिशत की दर से विकास कैसे कर सकती है, जब तक कि उत्पादन में कोई चमत्कारी विस्फोट न हो, जो स्पष्ट रूप से नहीं हुआ। इसलिए इस मान्यता को सहारा देने के लिए कि प्रयाप्त रूप से नौकरियां पैदा की गई हैं, वित्त मंत्री संकेत देते हैं कि ई.पी.एफ.ओ. सदस्यता में 2 करोड़ की वृद्धि हुई है तथा यह तथ्य कि 15.56 लाख लोगों ने कुल 7.23 लाख करोड़ रुपयों के मुद्रा ऋण प्राप्त किए हैं, जिन्होंने नौकरी के चाहवानों को नौकरी पैदा करने वालों में बदल दिया है।
सरकार यह भी तर्क देती है कि रोजगार के विचार के साथ हेर-फेर की गई है। कुबेर तथा ओला नई तरह की नौकरियों के दो उदाहरण हैं। ऐसे ही एमेजोन तथा फ्लिपकार्ट के डिलीवरी ब्वायज हैं। दुर्भाग्य से सरकार के तर्कों के महत्वपूर्ण भाग हकीकत के आगे नहीं ठहरते। ई.पी.एफ.ओ. की सदस्यता नौकरियों के औपचारीकरण को प्रतिबिंबित करती है, न कि नई नौकरियां पैदा होने को, जबकि 90 प्रतिशत मुद्रा ऋण 50,000 रुपए की राशि से कम हैं और इसलिए केवल स्वरोजगार पैदा करने तक ही सीमित हैं। वे अधिक नौकरियां पैदा नहीं कर सकते। और जहां यह सच है कि हमने व्यापक तौर पर सामाजिक असंतोष नहीं देखा है, मराठों, जाटों, कापुओं तथा पाटीदारों द्वारा आरक्षण के लिए किया गया आंदोलन इस तथ्य को प्रतिङ्क्षबबित करता है कि वे नौकरियां प्राप्त नहीं कर सकते। निश्चित तौर पर एक कारण यह है कि नौकरियां नहीं हैं।
आंकड़े यह सुझाते हैं कि भारत के युवाओं को सर्वाधिक बुरी बेरोजगारी का सामना करना पड़ा है। अजीम प्रेमजी यूनिवॢसटी के सैंटर फार सस्टेनेबल इम्प्लायमैंट का कहना है कि 2018 में यह 16 प्रतिशत थी। एन.एस.एस.ओ. की लीक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 2011-12 तथा 2017-18 के बीच ग्रामीण युवा पुरुषों के बीच बेरोजगारी की दर में 3 गुना से भी अधिक वृद्धि हुई, जबकि युवा ग्रामीण महिलाओं के मामले में यह वृद्धि लगभग 3 गुना थी। ये वास्तव में विस्यमकारी तथ्य हैं तथा युवाओं में व्याप्त गुस्से का संकेत देते हैं। लेकिन क्या ऐसा है?
जरा पीछेे जाएं तो आप एक अन्य सच पाएंगे। बेरोजगारी की दर 2011-12 से धीरे-धीरे बढ़ रही है। इसलिए नौकरियां तथा बेरोजगारी की समस्या चिंता की बात है, जो बड़े लम्बे समय से चली आ रही है। यहां तक कि यह यू.पी.ए. के शासनकाल में भी एक मुद्दा था। यह नरेन्द्र मोदी के साथ शुरू नहीं हुई हालांकि बढ़ती दिखाई दे रही है। लेकिन क्या यह वर्तमान अत्यंत आवेशित विवादात्मक माहौल में एक अति अव्यावहारिक विषय है? मेरा तो ऐसा ही मानना है। तो मेरा निष्कर्ष क्या है? मैं देख सकता हूं कि जैसे-जैसे हम चुनावी दिन के नजदीक पहुंचते जा रहे हैं यह वाद-विवाद अत्यंत उत्तेजनापूर्ण वाद-विवाद वाला बनता जा रहा है। सम्भवत: इसका निर्णय परिणामों से ही होगा।-करण थापर