‘खेती के असली मुद्दों पर ध्यान क्यों नहीं’

Edited By ,Updated: 04 Jan, 2021 03:02 AM

why not focus on the real issues of farming

एक समय था जब भारत को अपना पेट भरने के लिए अनाज की भीख मांगने विदेश जाना पड़ता था। हरित क्रांति के बाद हालात बदल गए। अब भारत में अनाज के भंडार भर गए। पर क्या इससे बहुसंख्यक, छोटी जोत वाले किसानों की आॢथक स्थिति सुधरी? क्या वजह है कि आज भी देश में...

एक समय था जब भारत को अपना पेट भरने के लिए अनाज की भीख मांगने विदेश जाना पड़ता था। हरित क्रांति के बाद हालात बदल गए। अब भारत में अनाज के भंडार भर गए। पर क्या इससे बहुसंख्यक, छोटी जोत वाले किसानों की आॢथक स्थिति सुधरी? क्या वजह है कि आज भी देश में इतनी बड़ी तादाद में किसानों को आत्महत्या करनी पड़ रही है? गेहूं का कटोरा माने जाने वाले पंजाब तक में जमीन की उर्वरकता घटी है और अविवेकपूर्ण दोहन के कारण भूजल स्तर 700 फुट नीचे तक चला गया है। 

दरअसल, यह सब हुआ उस कृषि क्रांति के कारण जिसके सूत्रधार थे अमरीका के कृषि विशेषज्ञ नार्मन बोरलोह, जिन्होंने रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों का उपयोग कर एवं ट्रैक्टर से खेत जोत कर कृषि उत्पादन को दुगना चौगुना कर दिखाया। इधर भारत में कृषि वैज्ञानिक डा. स्वामीनाथन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को राजी कर लिया और बड़े पैमाने पर रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाआें का आयात शुरू हो गया। इसके साथ ही कुछ देसी कंपनियों ने ट्रैक्टर औेर अन्य कृषि उपकरण बनाने शुरू कर दिए। शास्त्री जी के बाद जो सरकारें आईं उन्होंने इसे आमदनी का अच्छा स्रोत मान कर इन कंपनियों के साथ सांठगांठ कर भारत के किसानों को रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक दवाआें की आेर ले जाने का काम किया। नतीजतन सदियों से गाय, गोबर और गो मूत्र का उपयोग कर नंदी से हल चलाने वाले किसान ने महंगी खाद और उपकरणों के लिए ऋण लेना शुरू किया। 

इससे एक तरफ तो कृषि महंगी हो गई क्योंकि उसमें भारी पूंजी की जरूरत पडऩे लगी। दूसरा किसान बैंकों के कर्जे के जाल फंसते गए। तीसरा, सदियों से कृषि की रीढ़ बने बैल अब कृषि पर भार बन गए। जिससे उन्हें बूचडख़ानों की तरफ खदेड़ा जाने लगा। इस सब प्रक्रिया में ग्रामीण बेरोजगारी भी तेजी से बढ़ी। क्योंकि इससे गांव की आत्मनिर्भरता का ढांचा ध्वस्त हो गया। अब हर गांव शहर के बाजार पर निर्भर होता गया। जिससे गांव की आॢथक स्थिति कमजोर होती चली गई क्योंकि उपज के बदले जो आमदनी गांव में आती थी उससे कहीं ज्यादा खर्चा महंगे उपकरणों, रासायनिक खाद, कीटनाशक, डीजल आदि पर होने लगा। इस सबके दुष्परिणाम स्वरूप सीमांत किसान अपने घर और जमीन से हाथ धो बैठा। मजबूरन उसे शहरों की आेर पलायन करना पड़ा। इस तरह भारतीय कृषि व्यवस्था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने का बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का षड्यंंत्र सफल हो गया। 

चिंता की बात यह है कि आज की भारत सरकार को भी भारत की कृषि की कमर तोडऩे के इस अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र के बारे में सब कुछ पता है। मगर इन कंपनियों ने शायद सबके मुंह पर दशकों से चांदी का जूता मार रखा है। इसीलिए ये लोग दिखाने को यूरिया में नीम मिला कर देने की बात करते हैं। पर उर्वरक मंत्रालय कैमिकल मंत्रालय के साथ जुड़ा हुआ है, जबकि उर्वरक कृषि मंत्रालय का विषय है। क्योंकि रासायनिक खाद, कीटनाशक और तथाकथित उन्नत किस्म के बीज का एक अंतर्राष्ट्रीय माफिया काम कर रहा है। जो कृषि प्रधान भारत को दूसरे देशों पर निर्भर होने के लिए मजबूर कर रहा है। इस माफिया के साथ प्रशासन के लोगों की भी सांठ-गांठ है। अगर इस माफिया पर भारत सरकार का नियंत्रण होता तो देश में दस लाख किसान आत्महत्या नहीं करते। आंकड़ों की मानें तो अकेले महाराष्ट्र में साढ़े तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 

एक आेर गरीब लोग मुट्ठी भर अनाज के लिए तरसते हैं, तो वहीं गेहूं 20 रुपए किलो की दर से खरीद कर ‘भारतीय खाद्य निगम’ के गोदामों या खुले मैदानों में सडऩे के लिए छोड़ दिया जाता है। फिर उसी गेहूं को 2 रुपए किलो के भाव से शराब बनाने वाली इन कम्पनियों को बेच दिया जाता हैं। इस पूरी दानवी व्यवस्था का विकल्प महात्मा गांधी अपनी पुस्तक ‘ग्राम स्वराज’ में बता चुके हैं। कैसे गांव की लक्ष्मी गांव में ही ठहरे और गांव के लोग स्वास्थ्य, सुखी और निरोग बनें। इसके लिए जरूरत है भारतीय गोवंश आधारित कृषि की व्यापक स्थापना की। हर गांव या कुछ गांव के समूह के बीच भारतीय गोवंश के संरक्षण व प्रजनन की व्यवस्था होनी चाहिए। गांव के राजस्व रिकार्ड में दर्ज चारागाहों की भूमि को पट्टों और अवैध कब्जों से मुक्त करवा कर वहां गोवंश के लिए चारे का उत्पादन करना चाहिए। इस उपाय से गांव के भूमिहीन लोगों को रोजगार भी मिलेगा। 

देश में सात लाख गांव हैं और अगर दस-दस समर्थक भी एक एक गांव के लिए काम करें तो केवल 70 लाख समर्थकों की मदद से हर गांव में गौ विज्ञान केंद्र की स्थापना हो सकती है। क्या हम सब पहल कर एक-एक गांव को इसके लिए प्रेरित नहीं कर सकते? सड़कों व जंगलों में छोड़ दिए गए गौवंश को बूचडख़ाने की तरफ न भेज कर क्या उनके गोबर और गौमूत्र से जैविक खेती करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते? आशा है सभी किसान हितैषी संघटन इस सुझाव पर ध्यान देंगे। जैसा मैंने इस कलम में पहले भी लिखा है कि गौवंश की रक्षा गौशालाएं बनाकर नहीं हो सकती। क्योंकि ये तो जमीन हड़पने और भ्रष्टाचार के केंद्र बन जाते हैं। गौवंश की रक्षा तभी होगी जब हर किसान के घर कम से कम एक या दो गऊएं जरूर पाली जाएं।-विनीत नारायण

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