बंसल-धवन के राजनीतिक करियर पर लगा विराम!

Edited By Priyanka rana,Updated: 24 May, 2019 09:19 AM

pawan bansal

17वीं लोकसभा के चुनावी नतीजों के बाद चंडीगढ़ के दो पूर्व केंद्रीय मंत्रियों के राजनीतिक करियर पर विराम लग गया है।

चंडीगढ़(रमेश) : 17वीं लोकसभा के चुनावी नतीजों के बाद चंडीगढ़ के दो पूर्व केंद्रीय मंत्रियों के राजनीतिक करियर पर विराम लग गया है। पवन कुमार बंसल को 46 हजार से अधिक मतों से मिली हार के बाद कांग्रेस को चंडीगढ़ में अपना जनाधार बनाए रखने के लिए विकल्पों पर विचार करना होगा जबकि हरमोहन धवन का राजनीतिक सफर का इन चुनावों ने अंत कर दिया है जोकि सिर्फ साढ़े 13 हजार वोटों में ही सिमट कर रह गए। 

हाशिये पर चले गए बंसल :
वर्ष 1991, 1999, 2004 और 2009 में चंडीगढ़ से पवन कुमार बंसल ने लोकसभा चुनाव जीता और केंद्र तक पहुंचे। इस दौरान अन्य पार्टियों को उनके मुकाबले कोई उम्मीदवार मिला ही नहीं। लेकिन आज हालात बदल गए और बंसल के साथ-साथ कांग्रेस भी चंडीगढ़ में हाशिये पर चली गई। 

बंसल ने इस बार एक वर्ष पहले ही लोकसभा चुनावों की तैयारियां शुरू कर दी थी। हर एक गांव- मोहल्ले व मार्कीटों में जनसभाएं की लेकिन वोटरों को स्थिर नहीं रख पाए। दूसरी तरफ किरण खेर की टिकट को लेकर ही अंत तक असमंजस बना रहा जिन्हें नामांकन भरने की अंतिम तारीख से दो दिन पहले टिकट मिली और मात्र 20 दिन के प्रचार ने उन्हें संसद तक पहुंचा दिया। बेशक भाजपा नेत्री को मोदी के नाम की वोट पड़ी हो लेकिन बंसल के राजनीतिक करियर को बड़ा झटका लगा है, जिन्हें इस बार जीत का विश्वास था।

पार्टियां बदलने में लगे रहे धवन :
चंडीगढ़ में कभी धवन के साथ के बिना किसी का संसद तक पहुंचना नामुमकिन माना जाता था। इस चुनावों से पहले किरण खेर व पवन बंसल को संसद तक भेजने में धवन का बड़ा योगदान रहा है। एक समय था जब धवन के पास खुद का निजी वोट बैंक था। 

इसी दम पर 1989 में वह जनता दल की टिकट पर चुनावा जीते और केंद्र में चंद्रशेखर सरकार में मंत्री बने। उसके बाद वर्ष 2004 तक धवन अलग-अलग पार्टियों से चुनाव मैदान में उतरे लेकिन संसद तक नहीं पहुंच पाए। वर्ष 2009 में धवन ने कांग्रेस का दामन थामा और बंसल को जीताने में अहम भूमिका निभाई। वर्ष 2014 में धवन को भाजपा ने साथ मिलाया और उनकी मदद से किरण खेर सांसद बनी। 

लेकिन धवन को भाजपा भी रास नहीं आई और इस बार वे आम आदमी पार्टी में चले गए जोकि उनके राजनीतिक करियर का आखिरी दांव माना जा रहा है। कालोनियों और गांवों में हरमोहन धवन का सिक्का चलता था लेकिन चंडीगढ़ से कॉलोनियों की सफाई होती चली गई और धीरे-धीरे धवन के साथ जुड़े नेताओं ने भी कांग्रेस या भाजपा का दमन थाम लिया। इनमें जतिंदर भाटिया, ओ.पी. वर्मा, दविंदर सिंह बबला, दलीप सिंह व श्यामा नेगी शामिल हैं।  

कांग्रेस ने चंडीगढ़ में नहीं खोजा कोई विकल्प :
पवन बंसल के रहते कांग्रेस ने चंडीगढ़ से उनका विकल्प खोजा ही नहीं जो विकल्प दिखा, भी उसे चंडीगढ़ से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। मनीष तिवारी एक विकल्प था, जिन्हें पहले लुधियाना और इस बार आनंदपुर साहिब से टिकट दिया गया जोकि जीत भी गए। विनोद शर्मा दूसरा विकल्प थे लेकिन उन्हें कभी पंजाब तो कभी हरियाणा भेज दिया गया। 

अब कुछ वर्षों से वह राजनीति से दूर हैं, जिन्होंने पिछले विधानसभा चुनावों में खुद की पार्टी बनकर हरियाणा से चुनाव लड़ा था, जिसके बाद वह भी कांग्रेस से दूर चले गए। नवजोत कौर सिद्धू भी इस बार चंडीगढ़ से कांग्रेस का विकल्प बन कर सामने आई थी लेकिन पूर्व केंद्रीय मंत्री के सामने उनका बस नहीं चला। वर्तमान में चंडीगढ़ में ऐसा कोई चेहरा नहीं दिख रहा जो बंसल का विकल्प बन सके। 

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