Kundli Tv- राजघरानों में कुछ ऐसे मनाते थे दीपावली

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 06 Nov, 2018 01:14 PM

diwali of rajgharana

मारवाड़ में यूं तो अनेक तीज- त्यौहार समय-समय पर परम्परागत तरीके से मनाए जाते हैं, लेकिन दीपावली का त्यौहार जोधपुर का राजघराना परिवार (जो सूर्यवंशी कहलाता है) परम्परा से थोड़ा अलग हटकर मनाता है।

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मारवाड़ में यूं तो अनेक तीज-त्योहार समय-समय पर परम्परागत तरीके से मनाए जाते हैं, लेकिन दीपावली का त्योहार जोधपुर का राजघराना परिवार (जो सूर्यवंशी कहलाता है) परम्परा से थोड़ा अलग हटकर मनाता है। इसमें राजसी ठाठ-बाठ तथा परम्पराओं के साथ-साथ कुल की मर्यादा तथा कायदों का विशेष ध्यान रखा जाता है। जोधपुर दुर्ग में दशहरा और दीपावली पर मुख्य रूप से महाराजा अपने सगे भाई-बंधुओं तथा सियासतदानों के साथ मिलकर दीपोत्सव मनाते हैं।
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दीपावली से पूर्व धनतेरस, रूप चौदस की रातों को तेल के दीपक जलाए जाते हैं। ये दीपक किले के प्रमुख द्वार, मंदिर, चौक तथा राजशाला, घुड़साल, धान के कोठार व पूजा स्थलों पर जलाए जाते हैं। कुछ बड़े दीपक राठौड़ों की कुलदेवी नागणेच्या माता, इष्ट चामुंडा देवी, लोहा पोल, सती हस्त, चिडि़यानाथ जी, जयपोल, फतेहपोल, राव जोधा का फलसा, दौलतखाना चौक एवं चोखेलाव पर जलाए जाते हैं। दीपावली से पूर्व जहां-जहां दीये जलाने की परम्परा है, वहां चौक ‘पूरने’ का भी रिवाज है। यहां समस्त चौकों में मुख्य रूप से जनाना ड्योढ़ी, शृंगार चौकी, डेढ़ कंगूरा पोल, इमारती पोल के बीच लाल गेरु चूने के आकर्षक मांडणे विवाहिता एवं कुंवारी लड़कियों से ही बनवाए जाते हैं। राज दरबार में रियासतकाल के दौरान दीयों का तेल नियमानुसार कोठार से ही मिलता था। पटरानी के महल में दीपावली के दीयों को तेल अन्य रानियों से कहीं ज्यादा मिलता था। अन्य रानियों को पटरानी से आधा तेल मिलता था। जनानी ड्योढ़ी में रहने वाली राजकुमारियों को राजघराने के कायदे के अनुरूप तेल उपलब्ध होता था।
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दीपावली पर मंगल गीत घर-घर गाए जाते हैं लेकिन यह जानकर सभी को आश्चर्य होता है कि राजघराने में दीपावली के अवसर पर कोई गीत नहीं गाया जाता जबकि जनाना दरबार के समय ढोलनियां जनानी ड्योढ़ी पर मांगलिक गीत अवश्य गाती हैं। इस अवसर पर महारानी राजमाता एवं राजदादी के पगे लगाने (चरण छूने) का दस्तूर करती थी। उस वक्त महारानियां जनानी ड्योढ़ी की अनेक बुजुर्ग औरतों को सम्मान देने के लिए ‘पगे लागणों (ओढऩी का पल्ला हाथ में लेकर बैठकर पगे लगने की परम्परा) कराती थीं। वे सभी महारानी का वारन लेती थीं। राज परिवार, लक्ष्मी पूजन के लिए तिजोरी के पास एक बाजोट रखकर लाल वस्त्र बिछाते थे व राज ज्योतिषी के मुहूर्त के अनुसार थाल में कूटे कागज की हटड़ी रख उसमें फुल्लियां, चना व चांदी का सिक्का रखा जाता था। ये हटडिय़ां ताजियों के जैसी होती थीं। ये हटडिय़ां संख्या में उतनी होती थीं जितने राज परिवार में पुरुष सदस्य होते थे। सारी हटडिय़ों भर कर उसे कुमकुम व मौली बांध पर पूजा की जाती थी। थाल में लक्ष्मी जी को भोग लगाने के लिए तरह-तरह के मिष्ठान, चावल, सुपारी, इलायची आदि होते थे। गाय के कच्चे दूध से लक्ष्मी जी को छींटा दिया जाता। पूरी रात अखंड ज्योति जलती है। इस दिन कांसे की बड़ी थाली बजाकर लक्ष्मी जी का आह्वान किया जाता है।
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दीपावली की रात महाराजा एवं महारानी हीड़-सीचन भी करते हैं। इसके लिए वे गन्ने के ऊपर एक भाग पर शुद्ध मलमल का वस्त्र बांधते हैं व महारानी उस पर तेल डालती हैं। वह मशाल की भांति जलता है और उसका तेल नीचे बर्तन में जब टपकता है तो राज परिवार यह विश्वास करता है कि आने वाले समय में रोग और शोकमुक्त रहेंगे। दीपावली की रात महारानी व अन्य राज परिवार की स्त्रियां विशेष तौर पर शृंगार करती हैं। इस दिन महाराजा अपने समस्त भाई-बंधुओं व सियासतदानों के साथ पाती (पंक्ति) में बैठकर खाना करते हैं जिसमें लापसी व तरह-तरह की सब्जियां होती हैं।
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राज परिवार के जमाने में बुजुर्ग लोग कुछ बातों को शकुन से जोड़ कर चलते थे। होनी और अनहोनी बातों को भविष्यवाणी के रूप में लेते थे। यदि बच्चा आग जलाने की कोशिश करता था और यदि वह नहीं जलती थी तो माना जाता था कि महामारी फैलेगी व अकाल पड़ेगा। खेलते बालक दुखी हों तो राजा को चिंता सताएगी, बालक लड़ पड़े तो राजयुद्ध होगा, बच्चों का रोना राज्यनाश का संकेत माना जाता था। बच्चों द्वारा इंद्रियों को स्पर्श करना व्यभिचार बढऩे का सूचक माना जाता था। हालांकि राजा-रजवाड़ों के दिन अब भले ही लद चुके हैं लेकिन फिर भी मारवाड़ के राजघरानों में ये परम्पराएं आज भी मौजूद हैं। हां, थोड़ा-बहुत परिवर्तन अवश्य आया है लेकिन फिर भी मान-सम्मान व अपनत्व में कमी नहीं आई है। 
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