Edited By Jyoti,Updated: 22 Apr, 2020 10:16 PM
एक नर्तकी के कोठे से कुछ ही दूरी पर एक महात्मा का आश्रम था। उसमें एक मंदिर भी था। महात्मा वहां रहकर भजन, सत्संग आदि करते थे।
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
एक नर्तकी के कोठे से कुछ ही दूरी पर एक महात्मा का आश्रम था। उसमें एक मंदिर भी था। महात्मा वहां रहकर भजन, सत्संग आदि करते थे। दिन छिपने के साथ ही जब उस कोठे पर नर्तकी के घुंघरूओं की छम-छम आवाज आती, उसी समय वहां मंदिर में आरती होती। आरती समाप्त होने पर श्रद्धालु आरती प्रसाद लेकर, दानपात्र में श्रद्धानुसार पैसे डाल अपने घरों को चले जाते।
दूसरी तरफ कोठे पर आए लोग नर्तकी पर खूब पैसा लुटाते। मंदिर से श्रद्धालुओं के जाने के बाद महात्मा एकतारा पर अपनी मस्ती में देर रात तक भजन गाते। कोठे के अपने कमरे की खिड़की से नर्तकी आश्रम में महात्मा को एकतारे पर भजन गाते देखती रहती थी। उसे देखकर नृत्यांगना को ऐसा लगता कि वह कितनी मुकद्दर वाली है जो सामने ही महात्मा का आश्रम और मंदिर है।
मंदिर में घंटियां बजतीं लेकिन महात्मा के कान उस कोठे की तरफ ही रहते। कुछ समय बाद नृत्यांगना और महात्मा दोनों की मृत्यु हो गई। नृत्यांगना को लेने विष्णु दूत आए जबकि महात्मा को लेने यमराज। महात्मा ने यमराज से कहा,‘‘तुमसे कोई भूल तो नहीं हो रही? अरे मैं आश्रम में रहकर पूजा-पाठ, सत्संग करने वाला और मुझे लेने के लिए आप आए जबकि नृत्यांगना को लेने विष्णु दूत?’’
यमराज ने कहा,‘‘महाराज आप देह से आश्रम में जरूर रहते थे पर आपका मन कोठे पर रहता था। घंटी यहां बजती थी, आरती यहां उतारते थे पर आपके कान नृत्यांगना के गीत-संगीत पर लगे रहते थे। आपने भगवान की उतनी स्तुति नहीं की जितना उस स्त्री की निंदा में डूबे रहे। नृत्यांगना नाचती-नाचती घंटानाद की मधुर आवाज में इस तरह खो जाती, जैसे वह मंदिर में ठाकुर जी के सामने नाच रही हो। वह लोगों के सामने नाचती थी और अंतर्मन से पछतावा करती थी। पुण्य के अभिमान की अपेक्षा पाप का पछतावा कल्याण करने वाला होता है। इसलिए विष्णु दूत उसे लेने के लिए आए। सही मायने में ईश्वर प्राप्ति का मार्ग वहीं से शुरू होता है जहां आप खड़े हो।’’