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Phule Movie Review: शिक्षा की लौ से समाज में उजाला करने वाली फिल्म

Updated: 25 Apr, 2025 10:45 AM

phule movie review in hindi

यहां पढ़ें कैसी है फिल्म फुले

फिल्म- फुले (Phule)
कलाकार- प्रतीक गांधी (Prateek Gandhi), पत्रलेखा (Patralekha) , विनय पाठक (Vinay Pathak), सुशील पांडे (Sushil Pandey), दरशील सफारी (Darsheel Safari) , जॉयसेन गुप्ता (Joysen Gupta) आदि
निर्देशक- अनंत नारायण महादेवन (Ananth Narayan Mahadevan)
रेटिंग: 3.5*

Phule: फुले कोई आम बायोपिक नहीं है। यह एक ऐसी फिल्म है जो हमें बताती है कि सच्चा एक्शन विचारों में होता है, और असली क्रांति पढ़ाई से शुरू होती है। फिल्म खत्म होते-होते एक संवाद गूंजता है “हमारे देश में लोगों को धर्म के नाम पर लड़वाना सबसे आसान है, इसलिए लोगों का पढ़ा-लिखा होना बहुत जरूरी है।” और तभी अहसास होता है कि ज्योतिबा फुले कितने आगे की सोचते थे – सवा सौ साल पहले भी।

कहानी
यह कहानी है महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले की, जिन्होंने समाज की सड़ी-गली परंपराओं के खिलाफ खड़े होकर शिक्षा की लौ जलाई। उन्होंने सबसे पहले अपनी पत्नी को पढ़ाया और फिर समाज की उन बेटियों को जिन्हें पढ़ाना तब ‘पाप’ समझा जाता था। जब बाल विवाह, विधवाओं का मुंडन और छुआछूत समाज में जीवित थे – तब उन्होंने यह सब कैसे किया, यही इस फिल्म का मुख्य आधार है।  

यह फिल्म ना सिर्फ इतिहास को उजागर करती है, बल्कि यह दिखाती है कि कैसे एक व्यक्ति और उसकी पत्नी समाज को बदल सकते हैं – सोच बदल सकते हैं।

निर्देशन
अनंत महादेवन ने निर्देशन में फिर से साबित किया है कि वो सिर्फ अच्छे अभिनेता ही नहीं, बेहतरीन फिल्ममेकर भी हैं। फुले का ट्रीटमेंट संतुलित है – फिल्म न तो बोझिल होती है, न ही भावनात्मक रूप से जबरदस्ती। जहां जो जरूरी है, वही दिखाया और कहा गया है। अनंत महादेवन और मुअज्जम बेग की लेखनी फिल्म को एक ठोस आधार देती है। इससे पहले उनकी फिल्म द स्टोरीटेलर ने भी दर्शकों का दिल जीता था, और फुले उस विरासत को आगे बढ़ाती है।

अभिनय
प्रतीक गांधी इस बार भी चौंकाते हैं। वो ज्योतिबा फुले के किरदार में पूरी तरह ढल जाते हैं – उनकी जवानी से लेकर बुढ़ापे तक के हर शेड को उन्होंने बखूबी जिया है। उनके अभिनय में ईमानदारी है, और यही उन्हें इस रोल में अविस्मरणीय बना देता है। यह अब तक का उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन माना जा सकता है और वो निश्चित रूप से राष्ट्रीय पुरस्कार के हकदार हैं।

पत्रलेखा ने सावित्रीबाई फुले के किरदार को आत्मा से निभाया है। उनके हाव-भाव, संवाद अदायगी और सादगी उन्हें स्क्रीन पर जीवंत बना देती है। खासकर एक सीन जिसमें वो एक आदमी को थप्पड़ मारती हैं जो उनके पति को मारने की धमकी देता है – वो दृश्य याद रह जाता है। वो दृश्य नहीं, वो एक ऐतिहासिक मोड़ है – शायद यहीं से महिला सशक्तिकरण शुरू हुआ था।  

संगीत
रोहन प्रधान और रोहन गोखले की जोड़ी ने संगीत में भी वही गहराई लाई है जो इस फिल्म की आत्मा है। फिल्म के गाने सिर्फ संगीत नहीं, भावनाएं हैं – जो दृश्य के साथ-साथ आपकी सोच में उतर जाते हैं। थिएटर से बाहर निकलकर भी ये गीत आपके साथ रहते हैं।

क्यों देखें फिल्म
फुले एक ज़रूरी फिल्म है – समाज के लिए, सिनेमा के लिए और हर उस दर्शक के लिए जो यह जानना चाहता है कि असली बदलाव कैसे आते हैं। यह एक ऐसी फिल्म है जिसे सिर्फ देखा नहीं, महसूस किया जाना चाहिए। इसमें मसाला नहीं है, लेकिन इसमें वो आत्मा है जो आज की बहुत-सी फिल्मों में खो चुकी है।  

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