दशकों तक रहेगा ‘2017’ का प्रभाव

Edited By Punjab Kesari,Updated: 30 Dec, 2017 03:40 AM

effect of 2017 will last for decades

छोटे से छोटे काल खंड का आकलन व्यापक होता है क्योंकि इसमें मात्र सत्ता के कार्यों या राजनीति की उठापटक की ही नहीं बल्कि तत्कालीन समाज की सामूहिक सोच में हुए परिवर्तनों की भी पहचान और उनसे उभरी भावी नियति का लेखा-जोखा और विश्लेषण होता है। इस मानदंड पर...

छोटे से छोटे काल खंड का आकलन व्यापक होता है क्योंकि इसमें मात्र सत्ता के कार्यों या राजनीति की उठापटक की ही नहीं बल्कि तत्कालीन समाज की सामूहिक सोच में हुए परिवर्तनों की भी पहचान और उनसे उभरी भावी नियति का लेखा-जोखा और विश्लेषण होता है। इस मानदंड पर देखा जाए तो सन् 2017 भारत के लिए वह छोटा लेकिन गंभीर काल खंड है जिसके तमाम पहलू अगले कई दशकों तक देश को प्रभावित करते रहेंगे। 

आर्थिक: इस साल बजट पेश करने की परम्परागत तारीख बदली गई क्योंकि मोदी सरकार और उसके वित्त मंत्री का मानना था कि 28 फरवरी को बजट पेश करने से विभिन्न मदों में विभागों को विकास के लिए पैसा देने में देरी होती है और फिर मानसून आ जाता है, लिहाजा काम नहीं हो पाता। देखने में यह सामान्य फैसला लगता है लेकिन यह इस बात की तसदीक है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आर्थिक व्यवस्था में कुछ मौलिक परिवर्तन करना चाहते हैं। ध्यान रहे कि इस साल की शुरूआत से नवम्बर, 2016 को अचानक हुई नोटबंदी का असर भी पडऩे लगा था।

फैसला सही था या गलत, यह विश्लेषण का विषय है लेकिन जनता को यह लगा कि भले ही अमल में खामी की वजह से उन्हें नकदी के लिए लाइन में लगना पड़ा हो लेकिन ‘‘सेठवा फंसा और भ्रष्ट अफसर नहीं बचेंगे’’ का भरोसा उनके जेहन में बना रहा। यही कारण था कि घंटों ए.टी.एम. में खड़े रह कर खाली हाथ वापस आने के बाद भी किसी युवक ने किसी सरकारी बस पर एक पत्थर नहीं फैंका। दूसरा सबसे बड़ा आर्थिक फैसला था देश के अप्रत्यक्ष करों को एक में समाहित कर एकल टैक्स सिस्टम लाना जिसे जी.एस.टी. कहते हैं। लोगों को दिक्कत हुई, नोटबंदी के फैसले की तरह इसके भी नकारात्मक प्रभाव से व्यापार गिरा लेकिन यह उम्मीद बनी रही कि सब कुछ बेहतरी के लिए हो रहा है। जनता ने इसके तमाम नकारात्मक पहलुओं के बावजूद सरकार पर भरोसा रखा जो बाद के चुनाव परिणाम में दिखा। 

सामाजिक वैमनस्यता: इस बीच धर्मनिरपेक्षता की 70 साल पुरानी यूरोपीय अवधारणा (जिसका आधार चर्च और राजा के सबंधों को लेकर था) जिसे नेहरूवियन मॉडल ऑफ  सैकुलरिज्म के नाम से जाना जाता है, से नाराज हिन्दुओं में एकजुटता अपने चरम पर पहुंची। देश में सोच के स्तर पर ही नहीं बल्कि धरातल पर भी हिन्दू समाज ने आक्रामक रुख अपनाया। गौ के नाम पर किसी पहलू खान या किसी जुनैद का मारा जाना जारी रहा। देश का मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी भी बंट गए। जो बहुसंख्यक आक्रामकता को गलत कहे वह गाली का हकदार बना, उसकी नस्ल को बुरा-भला कहा गया, उसे पाकिस्तान भेजे जाने की हिदायत मिली। उधर नेहरू ब्रांड सैकुलरिज्म के अलम्बरदारों के एक वर्ग को मोदी, हिन्दू और वर्तमान नीतियों का हर पहलू गलत लगने लगा और उन्हें मोदी में भावी हिटलर की पदचाप सुनाई देने लगी। देश में इतना बड़ा सामजिक व सोच के स्तर पर विभेद पहले कभी नहीं देखा गया था। 

बहरहाल मोदी सरकार ने एक और क्रांतिकारी कदम उठाते हुए साल के अंत में मुसलमानों में प्रचलित विवाह संबंधित कुप्रथा ‘‘तत्काल तीन तलाक’’ को खत्म करने का कानून पारित किया। पिछले 70 साल से कोई सरकार ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी या वोट के लालच में नहीं करती थी यह कहते हुए कि किसी सम्प्रदाय के निजी मामलों में सत्तातंत्र का दखल सैकुलरिज्म की अवधारणा के खिलाफ  है। बहरहाल सभ्य समाज में और मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ यह एक बदनुमा दाग था। लिहाजा यह पहली बार देखने में आया कि ये महिलाएं भी इस कुप्रथा के खिलाफ बाहर निकलीं। शायद इस्लाम में पुनर्जागरण का यह पहला अध्याय है जिसके तहत इस धर्म को कट्टरपंथियों के हाथ से निकालने में मदद मिलेगी और उदार तथा असली इस्लाम का चेहरा सामने आएगा। 

राजनीति और मोदी की साढ़े तीन साल बाद भी स्वीकार्यता: राजनीतिक तौर पर चार सबसे बड़ी घटनाएं रहीं-बिहार में 2015 में मिले जनादेश का खुला अपमान करते हुए जनता दल नेता नीतीश कुमार का राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू यादव का साथ छोड़ भारतीय जनता पार्टी के साथ सरकार बनाना। जिस जनता ने लालू-नीतीश गठबंधन को भारी बहुमत से जिताया था उसे झटका लगा जब नीतीश लालू की 2 साल बाद ही खिलाफत करने लगे और सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा का दामन थामा। संविधान और प्रजातंत्र में नैतिक मूल्यों के अलम्बरदार देखते रह गए जनादेश के साथ हुए बलात्कार को। 

भारत का संविधान मात्र इतना ही कहता है कि मुख्यमंत्री वही हो सकता है जिसे निचली सदन का बहुमत प्राप्त हो। देश का दल-बदल कानून अपने 91वें संशोधन के बावजूद इस बात पर खामोश रह जाता है कि चुनाव पूर्व अगर कोई समझौता हुआ है जिस पर मतदाता ने अपनी मोहर लगाई है तो उसे तोडऩे पर क्या सजा होनी चाहिए। सन् 2015 ही नहीं, सन् 2017 के मई तक के नीतीश के वे भाषण जिनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी योजनाओं की लानत-मलामत की गई और ठीक 1 महीने बाद की गलबहियां भारतीय प्रजातंत्र का विद्रूप चेहरा दिखती हैं। भाजपा का फिर साथ पकड़ते हुए भी नीतीश ने उसी नैतिकता का सहारा लिया और कहा ‘‘हम सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकते’’ यानी ‘‘लालू अनैतिक हैं’’। यह इल्हाम (ब्रह्मज्ञान) नीतीश को 2015 में नहीं हुआ था या फिर जनता को मूर्ख मानते हैं। 

इस बीच मोदी का विजय रथ चलता रहा। मोदी चूंकि एक ‘‘शाश्वत फाइटर’’ हैं लिहाजा वह बिहार का चुनाव हो या उत्तर प्रदेश का, उसी शिद्दत से लड़ते हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव में मोदी की सफलता में मात्र उनकी लोकप्रियता का बरकरार रहना ही नहीं, सत्ताधारी समाजवादी पार्टी की अंतर्कलह और कांग्रेस नेतृत्व में जुझारूपन के अभाव का बड़ा योगदान रहा। देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता में आने से भाजपा का शासन 68 प्रतिशत जनसंख्या व 74 प्रतिशत भू-भाग पर हो गया। अगर नीतीश के साथ सरकार बनाने में अनैतिकता थी तो उत्तर प्रदेश में भारी जीत ने उस अनैतिकता को 15 करोड़ मतदाताओं के बीच कोई असर न होने का सन्देश दिया। इसी काल खंड में हुए गुजरात व हिमाचल प्रदेश के चुनावों में भाजपा की फिर एक बार जीत हुई और जनता ने मोदी पर प्यार उंडेला। दोनों राज्यों में जीत हुई, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना यह कि मोदी के अपने गृह राज्य गुजरात में 22 साल के बाद भी विजय और वह भी 2012 के मत से 1 प्रतिशत ज्यादा मतों से।

कांग्रेस की नई नीति: जब देश की सबसे पुरानी और मोदी-युग में दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया तो मंच के पीछे के पर्दे पर न तो नेहरू की तस्वीर थी, न ही इंदिरा गांधी या राजीव गांधी की। तस्वीर थी तो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की जो स्वयं ही मंच पर विराजमान थे। इसका संदेश यह था कि कांग्रेस की सोच में कुछ मौलिक परिवर्तन किए जा रहे हैं। शायद इसे नेहरूवियन मॉडल के सैकुलरिज्म से निकाल कर भारतीय सैकुलरिज्म में ढालने की योजना है जिसमें दिग्विजय या मणिशंकर ब्रांड ‘‘ओसामा जी’’ और ‘‘बाटला हाऊस एन्काऊंटर’’ को फर्जी बनाने का धंधा बंद होगा। 

शायद आने वाले दिनों में राहुल गांधी लिबरल सैकुलरिज्म के तहत तमाम मंदिरों में जाएंगे। हिन्दू एकजुटता के कारण की समझ शायद कांग्रेस को आ गई है। यह अलग बात है कि इस चुनाव में एक बड़ा परिवर्तन मिला कांग्रेस नेता राहुल गांधी के जुझारूपन के रूप में। इस बदले राहुल में निरंतरता दिखी, सोच की परिपक्वता का आभास हुआ और देश को विश्वास होने लगा कि कांग्रेस के रूप में एक विकल्प आज भी है। देखना यह होगा कि राहुल इस निरंतरता को कितना बरकरार रखते हैं पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में। 

अगले दशकों तक प्रभाव: आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक स्तर पर इस साल हुए बदलाव का असर जाहिर है अगले कई दशकों तक रहेगा क्योंकि इनमें से अधिकांश बदलाव वापस नहीं किए जा सकते। हां, सामाजिक स्तर पर बढ़ते वैमनस्य को रोकना आने वाले समय में चुनौती होगी, शासन चाहे मोदी का हो या राहुल का।-एन.के. सिंह

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